ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 82/ मन्त्र 10
अ॒स्मे इन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा द्यु॒म्नं य॑च्छन्तु॒ महि॒ शर्म॑ स॒प्रथ॑: । अ॒व॒ध्रं ज्योति॒रदि॑तेॠता॒वृधो॑ दे॒वस्य॒ श्लोकं॑ सवि॒तुर्म॑नामहे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मे इति॑ । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । द्यु॒म्नम् । य॒च्छ॒न्तु॒ । महि॑ । शर्म॑ । स॒ऽप्रथः॑ । अ॒व॒ध्रम् । ज्योतिः॑ । अदि॑तेः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । दे॒वस्य॑ । श्लोक॑म् । स॒वि॒तुः । म॒ना॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मे इन्द्रो वरुणो मित्रो अर्यमा द्युम्नं यच्छन्तु महि शर्म सप्रथ: । अवध्रं ज्योतिरदितेॠतावृधो देवस्य श्लोकं सवितुर्मनामहे ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मे इति । इन्द्रः । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । द्युम्नम् । यच्छन्तु । महि । शर्म । सऽप्रथः । अवध्रम् । ज्योतिः । अदितेः । ऋतऽवृधः । देवस्य । श्लोकम् । सवितुः । मनामहे ॥ ७.८२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 10
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजपुरुषेभ्यो धनं परमात्मनो रक्षा च प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(इन्द्रः) वैद्युतविद्यावेत्तारः (वरुणः) जलविद्यावेत्तारः (मित्रः) जगतः सुहृदः (अर्यमा) न्यायकर्तारश्च ये राजपुरुषास्ते (अस्मे) अस्मभ्यम् (द्युम्नम्) ऐश्वर्यं (यच्छन्तु) ददतु, तथा च (सप्रथः, महि, शर्म) सुप्रसिद्धं महत् सुखं (ज्योतिः) परमात्मा नित्यं ददातु (अवध्रम्) अस्मान्सदा रक्षतु, यस्माद्भवम् (अदितेः) अखण्डनीयस्य (ऋतावृधः) सत्यरूपयज्ञस्याधारं (देवस्य) दिव्यशक्तिसम्पन्नं (सवितुः) स्वतःप्रकाशं (श्लोकम्) पुण्यस्तुतिं (मनामहे) गायेम शश्वत् ॥१०॥ इति त्र्यशीतितमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजपुरुषों से धन और परमात्मा से रक्षा की प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
(इन्द्रः) वैद्युतविद्यावेत्ता (वरुणः) जलीयविद्या के ज्ञाता (मित्रः) सबके मित्र (अर्यमा) न्याय करनेवाले जो राजकीय पुरुष हैं, वे (अस्मे) हमें (द्युम्नं) ऐश्वर्य्य (यच्छन्तु) प्राप्त करायें और (सप्रथः, महि, शर्म) सब से बड़ा सुख (ज्योतिः) स्वयंप्रकाश परमात्मा हमको नित्य प्रदान करे, (अवध्रं) हमको नाश न करे, ताकि हम (अदितेः) अखण्डनीय (ऋतावृधः) सत्यरूप यज्ञ के आधार (देवस्य) दिव्यशक्तिसम्पन्न (सवितुः) स्वतःप्रकाश परमात्मा के (श्लोकं) यज्ञ को (मनामहे) सदा गान करते रहें ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र का आशय यह है कि जिस प्रकार ऋग्, यजुः, साम, अथर्व ये चारों वेद परमात्मा की आज्ञापालन कराने के लिए चार विभागों में विभक्त हैं, इसी प्रकार राज्यशासन भी चार विभागों में विभक्त जानना चाहिये अर्थात् आग्नेयास्त्र तथा वारुणास्त्रविद्या जाननेवालों से सैनिकरक्षण और राजमन्त्री तथा न्यायाधीश इन दोनों से राज्यप्रबन्ध, इस प्रकार उक्त चारों से धन की याचना करते हुए सदा ही इनके कल्याण का शुभचिन्तन करते रहो अर्थात् सम्राट् के राष्ट्रप्रबन्ध के उक्त चारों से सांसारिक सुख की अभिलाषा करो और दिव्यशक्तिसम्पन्न परमात्मा से नित्य सुख की प्रार्थना करते हुए उनके दिव्य गुणों का सदा गान करते रहो, जिससे तुम्हें सद्गति प्राप्त हो ॥१०॥ यह ८२वाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
और प्रजा को उत्तम बलदाता हो ।
भावार्थ
( इन्द्र ) ऐश्वर्यवान् जलप्रदाता, सूर्यवत् तेजस्वी ( वरुणः ) मेघवत् उदार, वरण करने योग्य, ( मित्रः ) सर्वस्नेही, (अर्यमा) शत्रुओं का नियन्त्रण करने में कुशल पुरुष ( अस्मे ) हमें ( महि द्युम्नं ) बड़ा ऐश्वर्य और ( सप्रथः शर्म ) विस्तारयुक्त शरण, गृह आदि ( यच्छन्तु ) प्रदान करें । ये सब ( ऋत-वृधः ) सत्य, न्याय, धन आदि को बढ़ाने और उनके बल पर स्वयं बढ़ने वाले होकर ( अदितेः ) अखण्ड शासनकर्त्ता, प्रजा के माता पिता एवं पुत्रवत् प्रिय पालक के ( अवध्रं ) न नाश होने वाले ( ज्योतिः ) ज्ञान और प्रताप का प्रदान करें। हम भी उसी ( देवस्य ) सर्वदाता ( सवितुः ) सर्वैश्वर्यवान् प्रभु की ( श्लोकं ) वाणी वेद तथा आज्ञा का ( मनामहे ) आदर से मान तथा मनन करें । इतिः तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्दः—१, २, ६, ७, ९ निचृज्जगती। ३ आर्ची भुरिग् जगती। ४,५,१० आर्षी विराड् जगती। ८ विराड् जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
वेदानुसार व्यवस्था
पदार्थ
पदार्थ- (इन्द्र) ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी (वरुणः) = मेघवत् उदार, वरणीय, (मित्र:) = स्नेही, अर्यमा शत्रुओं के नियन्त्रण में कुशल पुरुष (अस्मे) = हमें (महि द्युम्नं) = बड़ा ऐश्वर्य और (सप्रथः शर्म) = विस्तारयुक्त शरण, गृह आदि (यच्छन्तु) = प्रदान करें। ये सब (ऋत-वृधः) = सत्य, न्याय, धन आदि को बढ़ाने और स्वयं बढ़नेवाले होकर (अदितेः) = अखण्ड शासनकर्त्ता, प्रजा के माता पिता एवं (पुत्रवत्) = पालक के (अवध्रं) = न नाश होनेवाले (ज्योतिः) = ज्ञान और प्रताप को प्रदान करें। हम भी उसी (देवस्य) = दाता (सवितुः) = प्रभु की (श्लोकं) = वाणी- वेद तथा आज्ञा का (मनामहे) = मान तथा मनन करें।
भावार्थ
भावार्थ- राजा को योग्य है कि वह प्रजाओं के लिए घरों तथा ऐश्वर्य का दान करे। उन्हें उचित न्याय प्रदान कर अपने शासन को स्थिर करे। प्रजा पालक होकर ज्ञान के विस्तार हेतु वेदवाणी के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था करे। अगले सूक्त का ऋषि वसिष्ठ व देवता इन्द्रावरुणौ है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
May Indra, Varuna, Mitra and Aryama, lord of power, justice and generosity, love and friendship, and guide and lord ruler of the world order, bless us with honour and excellence and give us great good peace and prosperity ever increasing. We pray for the kind and beneficial light of mother Infinity and celebrate the glory of the self-refulgent Savita, lord creator, inspirer of life and protector of the tmth and law of this expansive universe.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा आशय असा, की ज्या प्रकारे ऋग्., यजु, साम, अथर्व चारही वेद परमात्म्याची आज्ञा पालन करविण्यासाठी चार विभागांत विभक्त आहेत. त्याच प्रकारे राज्यशासनही चार भागांत विभक्त जाणले पाहिजे. आग्नेयास्त्र व वारुणास्त्र विद्या जाणणाऱ्यापासून सैनिक रक्षण व राज्यमंत्री आणि न्यायाधीश या दोघांपासून राज्यप्रबंध या प्रकारे वरील चारही जणांकडून धनाची याचना करीत सदैव त्यांच्या कल्याणाची इच्छा करा. सम्राटाच्या राज्य प्रबंधाद्वारे चौघांकडून सांसारिक सुखाची अभिलाषा करा. दिव्यशक्तिसंपन्न परमात्म्याला सुखासाठी नित्य प्रार्थना करा व त्याच्या दिव्य सुखाचे सदैव गान करा. ज्यामुळे तुम्हाला सद्गती मिळेल. ॥१०॥
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