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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 88 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 88/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क्व१॒॑ त्यानि॑ नौ स॒ख्या ब॑भूवु॒: सचा॑वहे॒ यद॑वृ॒कं पु॒रा चि॑त् । बृ॒हन्तं॒ मानं॑ वरुण स्वधावः स॒हस्र॑द्वारं जगमा गृ॒हं ते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्व॑ । त्यानि॑ । नौ॒ । स॒ख्या । ब॒भू॒वुः॒ । सचा॑वहे॒ इति॑ । यत् । अ॒वृ॒कम् । पु॒रा । चि॒त् । बृ॒हन्त॑म् । मान॑म् । व॒रु॒ण॒ । स्व॒धा॒ऽवः॒ । स॒हस्र॑ऽद्वारम् । ज॒ग॒म॒ । गृ॒हम् । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्व१ त्यानि नौ सख्या बभूवु: सचावहे यदवृकं पुरा चित् । बृहन्तं मानं वरुण स्वधावः सहस्रद्वारं जगमा गृहं ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्व । त्यानि । नौ । सख्या । बभूवुः । सचावहे इति । यत् । अवृकम् । पुरा । चित् । बृहन्तम् । मानम् । वरुण । स्वधाऽवः । सहस्रऽद्वारम् । जगम । गृहम् । ते ॥ ७.८८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 88; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (त्यानि) सा (नौ) अस्माकं (सख्या) मैत्री (क्व) कुत्र (बभूवुः) अस्ति (यत्) या (पुरा) पूर्वस्मिन्काले (अवृकम्) हिंसारहिताऽभूत् (सचावहे) तां सेवेमहि (चित्) तथा च (ते) तव (सहस्रद्वारम्) अनेकोपायलभ्यं (गृहम्) स्वरूपं (जगम) प्राप्नुयाम यदैश्वर्यं (बृहन्तम्, मानम्) असीमास्ति (स्वधावः, वरुण) हे स्वैश्वर्येण विराजमान परमात्मन् ! वयं भवत उक्तस्वरूपं प्राप्नुयाम ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (त्यानि) वह (नौ) हमारी (सख्या) मैत्री (क्व) कहाँ (बभूवुः) है, (यत्) जो (पुरा) पूर्वकाल में (अवृकं) हिंसारहित थी, (सचावहे) उसकी हम सेवा करें (चित्) और (ते) तुम्हारे (सहस्रद्वारं) अनन्त ऐश्वर्यवाले (गृहं) स्वरूप को (जगम) प्राप्त हों, जो (बृहन्तं, मानम्) सीमारहित है। (स्वधावः, वरुण) हे अनन्तैश्वर्य्य परमात्मन् ! हम आपको उक्त स्वरूप को प्राप्त हों ॥५॥

    भावार्थ

    जो जिज्ञासु सब कर्मों को हिंसारहित करता है और परमात्मा के साथ निष्पापादि गुणों को धारण करके उसकी मैत्री को उपलब्ध करता है, वह उसके अनन्त ऐश्वर्य्ययुक्त स्वरूप को प्राप्त होता है। तात्पर्य्य यह है कि जब तक जिज्ञासु अपने आपको उसकी कृपा का पात्र नहीं बनाता, तब तक वह उसकी स्वरूपप्राप्ति का अधिकारी नहीं बन सकता ॥५॥

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    विषय

    भक्त-उपास्य का सखाभाव ।

    भावार्थ

    हे (वरण ) वरणीय श्रेष्ठतम ! हे ( स्वधावः ) प्राणपते ! (नौ) हम दोनों के (त्यानि सख्यानि) वे नाना प्रकार के सख्य, मित्रता के भाव ( क्व बभूवुः ) कहां हुए, ( यत् ) जो हम दोनों ( पुराचित् ) मानों पूर्वकाल से ( अवृकं ) परस्पर चोरी का भाव न रखते हुए ( सचावहे ) परस्पर मिलकर रहें । हे ( वरुण ) वरण योग्य ! नाथ ! हे ( स्वधावः ) और अमृत के स्वामिन् ! हम ( बृहन्तं ) महान् ( मानं ) परिमाण वाले ( सहस्रद्वारं ) सहस्रों द्वार वाले ( गृहं जगाम ) घर को प्राप्त हों । भक्त उपास्य का पतिपत्नीवत् सख्य प्रदर्शित है। यह जीवों के लिये जगत् बहुत भारी सहस्रों द्वारवाला प्रभु का बनाया गृह है, मुमुक्षु के लिये मानं ) ज्ञानमय महान् 'गृह', ग्रहण योग्य आश्रय, मोक्षपद प्रभु गृह है उसे प्राप्त करें। इसी प्रकार प्रजा के प्रति राजा भी पूर्व परिचित मित्रोंवत् वर्त्ते वे अव्याज, वृकाचार कुटिलतादि से रहित होकर विचरे, प्रजाएं राजा के सहस्रद्वार विशाल गृहवत् राष्ट्र को प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ वरुणो देवता ॥ छन्दः – १, २, ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्राणपति सखा

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (वरण) = वरणीय! हे (स्वधावः) = प्राणपते ! नौ हम दोनों के (त्यानि सख्यानि) = वे नाना मित्रता के भाव (क्व बभूवुः) = कहाँ हुए, (यत्) = जो हम दोनों (पुराचित्) = मानो पूर्वकाल से (अवृकं) = परस्पर चोरी का भाव न रखते हुए (सचावहे) = मिलकर रहें। हे (वरुण) = वरणीय ! हे (स्वधावः) = अमृत के स्वामिन् ! हम (बृहन्तं) = महान् (मानं) = परिमाणवाले सहस्त्रद्वारं सहस्रों द्वारवाले (गृहं जगाम) = घर को प्राप्त हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- परमात्मा प्राणों का भी प्राण है ऐसा जानकर उपासक जीव उस परमेश्वर से करे। इससे मनुष्य चोरी आदि पाप भावों से बचकर अनन्त सुख को प्राप्त कर सकेगा।

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    मन्त्रार्थ

    (स्वधावः-वरुण) हे आनन्दरसपूर्ण परमात्मन्! (नौ त्यानि सख्या क्व बभूवुः) हम दोनों के वे सखिभाव कहाँ चले गए ? (पुरा चित्-यत्-अनुकं सचावहे) पहले जैसे अभिन्नरूप से सेवन करते थे । वे अब हम दोनों सेवन करें (बृहन्तं मानं सहस्रद्वारं गृहं ते) महान् मानकारी- मापने वाले-संसार जिसके सम्मुख तुच्छ है ऐसे बहुत द्वारों वाले खुले विचरण सदन को प्राप्त होऊँ ॥५॥

    टिप्पणी

    "स इत्स्वपा भुवनेष्वास य इमे द्यावापृथिवी जजान' (ऋ० ४।५६।३) के स्वधायै स्वेति रसाय (वेत्येतदाह" शत० ५।४।३।७)

    विशेष

    ऋषिः—वसिष्ठः (उपासक पूर्ववत्) देवता-वरुणः (परमात्मा पूर्ववत्)

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord, where are those days of dawn, that flight of bliss, that friendship and intimacy we lived together ever before without violation? What happened? O Varuna, lord of absolute power and bliss, let us come home with you, to that very state of bliss open a thousand ways, that grace abounding and infinite.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो जिज्ञासू सर्व कर्म हिंसारहित करतो व निष्पाप बनून परमात्म्याशी मैत्री करतो, तेव्हा तो त्याच्या अनंत ऐश्वर्ययुक्त स्वरूपाला प्राप्त होतो.

    टिप्पणी

    तात्पर्य हे, की जोपर्यंत जिज्ञासू आपल्याला त्याचे कृपापात्र मानत नाही तोपर्यंत तो त्याच्या स्वरूपप्राप्तीचा अधिकारी बनू शकत नाही. ॥५॥

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