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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 9 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वाम॑ग्ने समिधा॒नो वसि॑ष्ठो॒ जरू॑थं ह॒न्यक्षि॑ रा॒ये पुरं॑धिम्। पु॒रु॒णी॒था जा॑तवेदो जरस्व यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइ॒धा॒नः । वसि॑ष्ठः । जरू॑थम् । ह॒न् । यक्षि॑ । रा॒ये । पुर॑म्ऽधिम् । पु॒रु॒ऽनी॒था । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । ज॒र॒स्व॒ । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने समिधानो वसिष्ठो जरूथं हन्यक्षि राये पुरंधिम्। पुरुणीथा जातवेदो जरस्व यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। सम्ऽइधानः। वसिष्ठः। जरूथम्। हन्। यक्षि। राये। पुरम्ऽधिम्। पुरुऽनीथा। जातऽवेदः। जरस्व। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे जातवेदोऽग्ने ! यथा समिधानो वसिष्ठो जरूथं जीर्णे मेघं हँस्तथा सुसभ्यं पुरन्धिं त्वां रायेऽहं यक्षि यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात पुरुणीथा जरस्व ॥६॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) विद्वांसम् (अग्ने) वह्निवद्विद्यादिगुणप्रकाशित (समिधानः) सम्यक् प्रकाशमानः (वसिष्ठः) अतिशयेन धनाढ्यः (जरूथम्) जरावस्थया युक्तम् (हन्) हन्ति (यक्षि) सङ्गच्छेः (राये) धनाय (पुरन्धिम्) यो बहून् दधाति तम् (पुरुणीथा) पुरुन्नयन्ति येषु तानि धर्म्यकर्माणि (जातवेदः) जातविज्ञान (जरस्व) प्रशंस (यूयम्) उपदेशकाः (पात) रक्षत (स्वस्तिभिः) सुखैः (सदा) सर्वस्मिन् काले (नः) अस्मान् ॥६॥

    भावार्थः

    ये सराजकाः सभ्याः सूर्यो मेघमिवाऽविद्यां दुष्टाचाराँश्च घ्नन्ति सर्वान् धर्म्यमार्गं नयन्ति ते सर्वेषां यथावद्रक्षका भवन्ति ॥६॥ अत्राग्निदृष्टान्तेन विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति नवमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे विद्वान् क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (जातवेदः) विज्ञान को प्राप्त (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्यादि गुणों से प्रकाशित विद्वन् ! जैसे (समिधानः) सम्यक् प्रकाशमान (वसिष्ठः) अत्यन्त धनी (जरूथम्) शिथिलावस्था से युक्त जीर्ण मेघ को (हन्) हनन करता है, वैसे सुन्दर सभा के योग्य (पुरन्धिम्) बहुतों को धारण करनेवाले (त्वाम्) आप विद्वान् का (राये) धन प्राप्ति के लिये मैं (यक्षि) सङ्ग करता हूँ (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुख साधनों से (नः) हमारी (सदा) सदा (पात) रक्षा करो और (पुरुनीथा) बहुतों को प्राप्त होनेवाले धर्मयुक्त कर्मों की (जरस्व) प्रशंसा करो ॥६॥

    भावार्थ

    जो राजा के सहित सम्य लोग, सूर्य मेघ को जैसे, वैसे अविद्या और दुष्टाचारों का नाश करते हैं, सब को धर्मयुक्त मार्ग को प्राप्त कराते, वे सब के यथावत् रक्षक होते हैं ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह नववाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    विद्वान् का विद्योपदेश कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन्, अग्निवत् तेजस्विन् ! ( वसिष्ठः ) ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरु के अधीन उत्तम वसु ब्रह्मचारी ( त्वा जरूथं ) तुझ विद्या और वयस् में वृद्ध एवं उत्तन ज्ञान के उपदेष्टा पुरुष को ( हन् ) प्राप्त हो । वह विद्वान् होकर ( राये) धन को प्राप्त करने के लिये (पुरन्धिम् ) बहुत से धनों को धारने वाले आढ्य पुरुष को ( यक्षि ) प्राप्त करे । हे ( जातवेदः) विद्वन् ! हे धनवन् ! तू (पुर-नीथाः ) बहुत सी वाणियों और बहुत से मार्गों व उपायों से सम्पन्न होकर (जरस्व ) अन्यों को विद्या का उपदेश कर और स्वयं बड़ा हो । हे विद्वान् पुरुषो ! ( यूयं नः सदा स्वस्तिभिः पात ) तुम हमें सदा शुभ कल्याणकारी साधनों से पालन करो । इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः - १ त्रिष्टुप् । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३ भुरिक् पंक्ति: । ६ स्वराट् पंक्तिः ॥ षड़ृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'जरूथ-जरण'

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (वसिष्ठः) = उत्तम वसुओंवाला व वशियों में श्रेष्ठ यह स्तोता (त्यां समिधानः) = आपको दीप्त करता हुआ (जरूथम्) = इस परुषभाषी व जरणीय [नष्ट करने योग्य] कटुभाषणरूप राक्षसी वृत्ति को (हन्) = नष्ट करता है। आप (पुरन्धिम्) = पालक बुद्धिवाले इस स्तोता को (राये) = ऐश्वर्य के लिये (यक्षि) = संगत करिये। [२] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! आप (पुरुणीथा) = इन अनेक मार्गोंवाले, मायामय विविध छलछिद्रान्वित मार्गों से गति करनेवाले राक्षसी भावों को (जरस्व) = जीर्ण करिये। और इस प्रकार (अयम्) = आप (स्वस्तिभिः) = कल्याणमार्गों के द्वारा नः हमारा सदा पात सर्वदा रक्षण करिये। हमें शुभमार्गों पर ले चलते हुए आप हमारा कल्याण करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ-वशी स्तोता प्रभु का स्मरण करता है। प्रभु ही वस्तुतः उसे राक्षसीभावों के आक्रमण से बचाते हैं। अगले सूक्त में भी वसिष्ठ द्वारा अग्नि का उपासन है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य जसा मेघांचा नाश करतो तसे जे राजासहित सभ्य लोक अविद्या व दुष्टाचरणाचा नाश करतात व सर्वांना धर्मयुक्त मार्ग दाखवितात ते सर्वांचे यथायोग्य रक्षक असतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light and fire of life, the celebrant settled in peace and prosperity enkindles you. Bright and blazing, all knowing all present, burn off the dead wood, develop the living resources of nature and the cities for the sake of wealth. Extend the creative and productive programmes. And you all, Agni and other enlightened ones, always protect and promote us with happiness and all round well being.

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