ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 99/ मन्त्र 5
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - इन्द्राविष्णू
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रा॑विष्णू दृंहि॒ताः शम्ब॑रस्य॒ नव॒ पुरो॑ नव॒तिं च॑ श्नथिष्टम् । श॒तं व॒र्चिन॑: स॒हस्रं॑ च सा॒कं ह॒थो अ॑प्र॒त्यसु॑रस्य वी॒रान् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । दृं॒हि॒ताः । शम्ब॑रस्य । नव॑ । पुरः॑ । न॒व॒तिम् । च॒ । श्न॒थि॒ष्ट॒म् । श॒तम् । व॒र्चिनः॑ । स॒हस्र॑म् । च॒ । सा॒कम् । ह॒थः । अ॒प्र॒ति । असु॑रस्य । वी॒रान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राविष्णू दृंहिताः शम्बरस्य नव पुरो नवतिं च श्नथिष्टम् । शतं वर्चिन: सहस्रं च साकं हथो अप्रत्यसुरस्य वीरान् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राविष्णू इति । दृंहिताः । शम्बरस्य । नव । पुरः । नवतिम् । च । श्नथिष्टम् । शतम् । वर्चिनः । सहस्रम् । च । साकम् । हथः । अप्रति । असुरस्य । वीरान् ॥ ७.९९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 99; मन्त्र » 5
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्राविष्णू) हे न्यायशक्तिमन् ! व्यापकशक्तिमँश्च परमात्मन् ! भवान् (दृंहिताः) सर्वत्र वृद्धिमाप्नुवानः (शम्बरस्य) मेघवत्प्रसृतस्य शत्रोः (नव, नवतिम्) नवनवतिं तथा (वर्चिनः) मायाविनस्तस्य (शतम्) शतसङ्ख्याकानि (च) च पुनः (सहस्रम्) सहस्रसङ्ख्याकानि (पुरः) दुर्गाणि (श्नथिष्टम्) ध्वंसयतु, तथा (साकम्) शत्रूनपि युगपदेव नाशयत (अप्रत्यसुरस्य) तस्य च अप्रतिद्वन्द्विनः (वीरान्) सैनिकान् (हथः) हिनस्तु ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्राविष्णू) हे न्याय और वज्ररूप शक्तिवाले परमात्मन् ! आप (दृंहिताः) दृढ़ से दृढ़ (शम्बरस्य) मेघ के समान फैले हुए शत्रु के (नवनवतिं) निन्यानवे (च) और उस (वर्चिनः) मायावी पुरुष के (शतं) सैकड़ों (च) और (सहस्रं) हजारों (पुरीः) दुर्गों को (श्नथिष्टं) नाश करें तथा (साकं) शीघ्र ही (अप्रत्यसुरस्य) उसके उभरने से प्रथम ही उसके (वीरान्) सैनिकों को (हथः) हनन करो ॥५॥
भावार्थ
मायावी शत्रु को दमन करने के लिये न्यायशील पुरुषों को परमात्मा उपदेश करते हैं कि तुम लोग अन्यायकारी शत्रुओं के सैकड़ों हजारों दुर्गों से मत डरो, क्योंकि (माया) अन्याय से जीतने की इच्छा करनेवाला असुर स्वयं अपने पाप से आप मारा जाता है और उसके लिये आकाश से वज्रपात होता है, जैसा कि अन्यत्र भी कहा है कि “प्र वर्तय दिवो अश्मानमिन्द्र” ॥ मं. ७।१०४ मं, १९॥ परमात्मा ! तुम अन्यायकारी मायावी के लिये आकाश से वज्रपात करो। इस प्रकार न्याय की रक्षा के लिये वीर पुरुषों के प्रति यहाँ परमात्मा का उपदेश है ॥५॥
विषय
राजा-सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्राविष्णू ) इन्द्र ! ऐश्वर्यवन् हे विष्णो ! व्यापक शक्तिशालिन् ! आप दोनों ( शम्बरस्य ) शान्ति, प्रजा सुख के नाशक शत्रु के ( नव नवतिं च पुरः) ९९ नगरियों या प्रकारों को ( श्नथिष्टम् ) नाश करो । ( असुरस्य ) बलवान् शत्रु के ( अप्रति ) बेजोड़, ( शतं सहस्रं च वर्चिनः वीरान् ) सौ, हज़ार बलवान् तेजस्वी वीरों को भी ( साकं हथः ) एक साथ दण्डित करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ १—३, ७ विष्णुः। ४—६ इन्द्राविष्णु देवते॥ छन्दः—१, ६ विराट् त्रिष्टुप्। २, ३ त्रिष्टुप्। ४, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
विषय
अजेय शत्रुसेना पर विजय
पदार्थ
पदार्थ - हे (इन्द्राविष्णू) = ऐश्वर्यवन्! हे व्यापक शक्तिशालिन् ! आप दोनों (शम्बरस्य) = शान्तिसुख-नाशक शत्रु के (नव नवतिं च पुरः) = ९९ नगरियों, प्रकारों को (श्नथिष्टम्) = नाश करो। (असुरस्य) = बलवान् शत्रु के (अप्रति) = बेजोड़, (शतं सहस्त्रं च बर्चिन: वीरान्) = सौ हजार तेजस्वी वीरों को (साक हथः) = एक साथ दण्डित करो।
भावार्थ
भावार्थ- राजा और सेनापति राष्ट्र में सुख और शान्ति स्थापना करने के लिए शत्रु के ९९ [निन्यानवे] प्रकार की नगरों को नष्ट करने की विद्या को जानकर शत्रु की अजेय सौ हजार सेना को भी परास्त करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra-Vishnu, lord of unrivalled might and universal presence, you break through the nine and ninety fortified strongholds of the dark and expansive citadels of hoarded treasure and destroy a hundred, even thousand, of the brave warriors together even before the unique evil power is up for defence and offence.
मराठी (1)
भावार्थ
मायावी शत्रूचे दमन करण्यासाठी न्यायी पुरुषांना परमात्मा उपदेश करतो, की तुम्ही अन्यायी शत्रूंच्या शेकडो, हजारो दुर्गांनाही घाबरू नका. कारण (माया) अन्यायाने जिंकण्याची इच्छा करणारा असुर स्वत: आपल्या पापाने मारला जातो व त्याच्यावर आकाशातून व्रजपात होतो. जसे अन्यत्र म्हटलेले आहे ‘प्र वर्तय दिवो अश्मानमिन्द्र’ ॥ मं. ७।१०।४ मं. १९ ॥ परमात्मा! तू अन्यायकारी मायावीसाठी आकाशातून वज्रपात कर. या प्रकारे न्यायाच्या रक्षणासाठी वीर पुरुषांना परमात्म्याचा उपदेश आहे. ॥५॥
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