ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - आर्चीस्वराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वज्र॒मेको॑ बिभर्ति॒ हस्त॒ आहि॑तं॒ तेन॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नते ॥
स्वर सहित पद पाठवज्र॑म् । एकः॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । हस्ते॑ । आऽहि॑तम् । तेन॑ । वृ॒त्राणि॑ । जि॒घ्न॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वज्रमेको बिभर्ति हस्त आहितं तेन वृत्राणि जिघ्नते ॥
स्वर रहित पद पाठवज्रम् । एकः । बिभर्ति । हस्ते । आऽहितम् । तेन । वृत्राणि । जिघ्नते ॥ ८.२९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Another holds the thunderbolt, wielded firmly, by which he destroys evil and dark forces of ignorance, want and suffering. (This is Indra, cosmic energy, or soul, or Daksha, omnipotent will and action.)
मराठी (1)
भावार्थ
केवळ विद्येने किंवा ज्ञानाने किंवा क्रियाकलापाने हा जीव निषिद्ध कर्मापासून निवृत्त होत नाही; परंतु निवृत्तीसाठी वस्तुतत्त्वाचे पूर्ण ज्ञान व बलवती इच्छाशक्ती असली पाहिजे हीच दोन्ही आत्म्याची अस्त्रे आहेत. त्यांचेच प्रयत्नपूर्वक उपार्जन करावे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
आत्मदेवं दर्शयति ।
पदार्थः
एकः=आत्मदेवः । हस्ते=पाणौ । आहितम्=स्थापितम् । वज्रम्=महाऽऽयुधम् । बिभर्ति=धारयति । तेन वज्रेण । वृत्राणि=निखिलान् विघ्नान् । जिघ्नते=हन्ति=निपातयति ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
आत्मदेव को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(एकः) एक आत्मदेव (हस्ते+आहितम्) हस्त में निहित=स्थापित (वज्रम्) विवेकरूप महान् आयुध (बिभर्ति) रखता है, (तेन) उस वज्र से (वृत्राणि) निखिल विघ्नों को (जिघ्नते) हनन करता रहता है ॥४ ॥
भावार्थ
केवल विद्या से वा ज्ञान से वा कर्म्मकलाप से यह जीव निषिद्ध कर्म्मों से निवृत्त नहीं होता, किन्तु निवृत्ति के लिये वस्तुतत्त्व का पूर्णज्ञान और बलवती इच्छाशक्ति होनी चाहिये, यही दोनों आत्मा के महास्त्र हैं, इनका ही यत्न से उपार्जन करें ॥४ ॥
विषय
उसके महान् अद्भुत कर्म ।
भावार्थ
वह ( एकः ) एक अद्वितीय ( हस्ते आहितं वज्रम् ) हाथ में पकड़े शस्त्र के समान स्वयं ( वज्रम् ) वीर्य, बल को ( आहितं ) सर्वत्र व्यापक रूप से ( बिभर्ति ) धारण करता है। ( तेन ) उससे वह ( वृत्राणि ) मेघस्थ जलों को विद्युत् के तुल्य, प्रकृति के आवरणकारी परमाणुओं को ( जिघ्नते ) आघात करता, उनमें स्पन्द उत्पन्न करता और संचालित करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीच ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः— १, २ आर्ची गायत्री। ३, ४, १० आर्ची स्वराड् गायत्री। ५ विराड् गायत्री। ६—९ आर्ची भुरिग्गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'वज्रभर्ता - वृत्रहन्ता' प्रभु [इन्द्रः]
पदार्थ
[१] (एकः) = अद्वितीय प्रभु (हस्ते) = हाथ में (आहितम्) = स्थापित (वज्रम्) = वज्र को (बिभर्ति) = धारण करते हैं। [२] (तेन) = इस वज्र के द्वारा वे (वृत्राणि) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को (जिघ्नते) = विनष्ट करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान की आवरणभूत वासना को प्रभु विनष्ट कर देते हैं। वे प्रभु वज्रहस्त हैं। उपासक प्रभु का ध्यान करता है, प्रभु उसके शत्रुओं का विनाश करते हैं।
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