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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्बृहती स्वरः - मध्यमः

    क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे । अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । ई॒म् । वे॒द॒ । सु॒ते । सचा॑ । पिब॑न्तम् । कत् । वयः॑ । द॒धे॒ । अ॒यम् । यः । पुरः॑ । वि॒ऽभि॒नत्ति॑ । ओज॑सा । म॒न्दा॒नः । शि॒प्री । अन्ध॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे । अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वयः । दधे । अयम् । यः । पुरः । विऽभिनत्ति । ओजसा । मन्दानः । शिप्री । अन्धसः ॥ ८.३३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Who would for certain know Indra in this created world of beauty and glory, how much power and force he wields while he rules and sustains it, Indra who wears the helmet and breaks down the strongholds of negativities with his lustrous might, the lord who shares and enjoys the soma of his own creation?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ऐतरेय ब्राह्मण (१-२८) प्रमाणे ‘प्राणो वै वय:’ - प्राणच वयस् आहे. शूर सेनापती अन्नाचे ग्रहण करून व प्राणशक्तीच्या संचयाने बलवान होतो त्याच्या शारीरिक बल व साहसाचे हेच रहस्य आहे. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अयम्) यह (यः) जो (शिप्री) सुमुख सेनाध्यक्ष (अन्धसः) अन्न आदि भोग्य पदार्थों से (सुते) उत्पन्न रस से (मन्दानः) तृप्त हो उत्पन्न बल से बली बनकर (ओजसा) पराक्रम के द्वारा (पुरः) शत्रुओं व शत्रुभूत दुर्भावनाओं की दुर्ग रचनाओं को (वि-भिनत्ति) नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है, (ईम्) उसको कौन जानता है; (सचा) साथ ही (पिबन्तम्) पिया हुआ (वयः) प्राण (कत्) कितना है--यह भी कौन जानता है? ॥७॥

    भावार्थ

    शूर सेनापति अन्न के सेवन व प्राणशक्ति के संचय से बलशाली बनता है। उसके शारीरिक बल व साहस का रहस्य यही है ॥७॥

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    विषय

    प्रभु के गुण-स्तवन।

    भावार्थ

    ( यः ) जो (ओजसा ) पराक्रम से ( पुरः ) शत्रु के पुरों, दुर्गों, प्रकोटों को ( वि-भिनत्ति ) तोड़ डालता है ( अयं ) वह ( अन्धसः ) अन्न वा जीवनधारक पदार्थ से ( मन्दानः ) आनन्द लाभ करता हुआ रहे। ( सुते ) ऐश्वर्य के बल पर ( पिबन्तं ) राष्ट्र का पालन करते हुए ( ईं ) इसको ( कः वेद ) कौन जानता है, और कौन जनाता है कि वह ( कत् वयः दधे ) कितना बल धारण करता है। इसी प्रकार प्रभु परमेश्वर अपने बल से नाना ब्रह्माण्ड पुरों को संहार करता, (शिप्री) बलवान्, ( अन्धसः मन्दानः ) प्राणधारी जीवों को आनन्द देता रहता है । ( वयः ) वह उत्सन्न जगत् में व्यापक होकर सबका पालन करता है. उसके अपार बल, आयु और ज्ञान को कौन जानता है ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथि: काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१—३, ५ बृहती। ४, ७, ८, १०, १२ विराड् बृहती। ६, ९, ११, १४, १५ निचृद् बृहती। १३ आर्ची भुरिग बृहती। १६, १८ गायत्री। १७ निचृद् गायत्री। १९ अनुष्टुप्॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोमरक्षण के लाभ व साधन

    पदार्थ

    [१] (सुते) सोम का सम्पादन होने पर (कः) = कोई विरल पुरुष ही (ईम्) = निश्चय से (सचा) = अपने साथ होनेवाले इस प्रभु को वेद-जानता है। ऐसे व्यक्ति विरल ही होते हैं जो संयमी जीवन बिताते हुए, सोमरक्षण द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके प्रभु का दर्शन करते हैं। (पिबन्तम्) = सोम का पान करनेवाले को (कद्वयः) = आनन्दयुक्त जीवन दधे धारण करता है [कत्पयं] अर्थात् इस सोमरक्षक पुरुष का जीवन आनन्दमय होता है। [२] (अयम्) = यह (यः) = जो (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (पुर: विभिनत्ति) = शत्रुओं की नगरियों को विदीर्ण कर देता है, काम-क्रोध-लोभ के किलों को तोड़ देता है, यह (अन्धसः) = इस सोम के द्वारा (मन्दान:) = आनन्द का अनुभव करता है। यह (शिप्री) = उत्तम हनु व नासिकाओंवाला बनता है। अर्थात् चबाकर खाता है और प्राणायाम को अपनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण [क] हमें प्रभु-दर्शन के योग्य बनाता है, [ख] जीवन को आनन्दमय करता है। सो हम वासनाओं को विनष्ट करके, चबाकर खाते हुए तथा प्राणायाम करते हुए सोम का रक्षण करें।

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