ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 41/ मन्त्र 7
य आ॒स्वत्क॑ आ॒शये॒ विश्वा॑ जा॒तान्ये॑षाम् । परि॒ धामा॑नि॒ मर्मृ॑श॒द्वरु॑णस्य पु॒रो गये॒ विश्वे॑ दे॒वा अनु॑ व्र॒तं नभ॑न्तामन्य॒के स॑मे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । आ॒सु॒ । अत्कः॑ । आ॒ऽशये॑ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । ए॒षा॒म् । परि॑ । धामा॑नि । मर्मृ॑शत् । वरु॑णस्य । पु॒रः । गयः॑ । विश्वे॑ । दे॒वाः । अनु॑ । व्र॒तम् । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒के । स॒मे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य आस्वत्क आशये विश्वा जातान्येषाम् । परि धामानि मर्मृशद्वरुणस्य पुरो गये विश्वे देवा अनु व्रतं नभन्तामन्यके समे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । आसु । अत्कः । आऽशये । विश्वा । जातानि । एषाम् । परि । धामानि । मर्मृशत् । वरुणस्य । पुरः । गयः । विश्वे । देवाः । अनु । व्रतम् । नभन्ताम् । अन्यके । समे ॥ ८.४१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 41; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Varuna is the one who vibrates at the heart of all these people and pervades all things born, immanent in and transcending over all regions of the universe. Indeed the divinities of nature and humanity stand ready in harness before the presence of Varuna, all committed to his law and their duty in the law. May all negativities and enmities vanish from the world.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या ईश्वराच्या नियमानुसार सूर्य इत्यादी सर्व देव चालत आहेत, त्याची पूजा करा. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
यो वरुणः । आसु=प्रजासु । अत्कः=व्याप्तोऽस्ति । अत सातत्यगमने । अथवा प्रजासु यो सततगामी भवति । यश्च । एषां जनानां । विश्वा=विश्वानि=सर्वाणि । जातानि= चरित्राणि । आशये=आशयति=जानातीत्यर्थः । धामानि= समस्तानि स्थानानि । परि परितः । मर्मृशत्=मृशतः= व्याप्नुवतः । वरुणस्य । गये=रथे । पुनः=पुरस्तात् । विश्वेदेवाः । व्रतं । अनुगच्छन्ति । नभन्तामित्यादि गतम् ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(यः) जो वरुण (आसु) इन प्रजाओं में (अत्कः) व्याप्त है अथवा इन में सतत गमनशील है और जो (एषाम्) इन प्राणियों के (विश्वा+जातानि) समस्त उत्पन्न चरित्र को (आशये) जानता है और (धामानि) समस्त स्थानों में (परि) चारों तरफ से (मर्मृशत्) व्याप्त होते हुए (वरुणस्य) वरुण के (गये+पुरः) रथ के सामने (विश्वे+देवाः) समस्त सूर्य्यादि देव (व्रतम्+अनु) नियम के पीछे-२ चलते हैं (नभन्ताम्) इत्यादि पूर्ववत् ॥७ ॥
भावार्थ
जिस ईश्वर के नियम के अनुसार सब सूर्य्यादि देव चल रहे हैं, हे मनुष्यों ! उसकी पूजा करो ॥७ ॥
विषय
सर्वोपरि वरुण।
भावार्थ
( यः ) जो सर्वश्रेष्ठ प्रभु ( आसु ) इन समस्त दिशाओं में और प्रजाओं में ( अत्कः ) व्यापक होकर ( आशये ) सर्वत्र गुप्तरूप से विद्यमान है और जो ( एषां विश्वा जातानि ) इन समस्त लोकों के समस्त पदार्थों को और ( धामानि ) सब स्थानों को ( परि मर्मृशत् ) सब प्रकार से जानता है उस ( वरुणस्य पुरः ) सर्वश्रेष्ठ स्वामी के समक्ष ( गये ) उसके शासन में ( विश्वे देवाः ) समस्त विद्वान् गण और समस्त सूर्यादि पदार्थ आत्मा या प्राण के अधीन इन्द्रियों के तुल्य ( व्रतम् अनु ) अधीन रहकर कार्य करते हैं। (अन्यके समे) इससे विपरीत बुद्धि वाले द्वेषीजन ( नभन्तां ) नष्ट होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभाकः काण्व ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्दः—१, ५ त्रिष्टुप्। ४, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८ स्वराट् त्रिष्टुप्। २, ३, ६, १० निचृज्जगती। ९ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
आसु अत्कः आशये
पदार्थ
[१] (यः) = जो वरुण (आसु) = इन लोकों व प्रजाओं में (अत्कः) = [ व्याप्तः ] व्याप्त हुए हुए (आशये) = रहते हैं और (एषां) = इन लोकों के (विश्वा) = सब (जातानि) = प्रादुर्भावों को तथा इन प्रजाओं के (धामानि) = तेजों को (परिमर्मृशत्) = छूते हैं [मृश्, To handle ] व्यवस्थित करते हैं। [२] (वरुणस्य) = इस शासक प्रभु के (पुरः) = सामने ही गये, अपने-अपने घर में, स्थान में (देवाः) = सब देव (व्रतं) = अपने-अपने व्रत का (अनु) [गच्छन्ति] = अनुसरण करते हैं। हम सब इस प्रभु के समक्ष होते हुए कार्य करेंगे तो (समे) = सब (अन्यके) = शत्रु (नभन्ताम्) = अवश्य नष्ट होंगे ही।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु ही व्यापकता के द्वारा सबका नियमन कर रहे हैं। प्रभु के स्मरण से ही सब शत्रुओं का विनाश होता है।
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