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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 9
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒स्माकं॒ सु रथं॑ पु॒र इन्द्र॑: कृणोतु सा॒तये॑ । न यं धूर्व॑न्ति धू॒र्तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्माक॒म् । सु । रथ॑म् । पु॒रः । इन्द्रः॑ । कृ॒णो॒तु॒ । सा॒तये॑ । न । यम् । धूर्व॑न्ति । धू॒र्तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकं सु रथं पुर इन्द्र: कृणोतु सातये । न यं धूर्वन्ति धूर्तय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकम् । सु । रथम् । पुरः । इन्द्रः । कृणोतु । सातये । न । यम् । धूर्वन्ति । धूर्तयः ॥ ८.४५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 43; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May Indra, mighty warring soul, turn our chariot of body and the body politic to the heights of the first and foremost order of strength and excellence for the achievement of success and victory in the battle of life so that no enemies can violate it.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो आत्मा पापाचरणरहित व सदाचारांनी सुभूषित आणि विवेकी आहे तोच स्वत:चा आधार असलेल्या शरीराला जगात श्रेष्ठ व पूज्य बनवितो. त्यासाठी हे माणसांनो! आत्मकल्याणाच्या मार्गावर चालणाऱ्या पुरुषाच्या शिकवणीनुसार वागून स्वत:त सुधारणा करा. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    स इन्द्रः । अस्माकम् । सु=शोभनम् । रथम् । सातये=लाभाय । पुरः=अग्रे । कृणोतु=करोति । यमिन्द्रम् । धूर्तयः=हिंसकाः पापाचाराः । न धूर्वन्ति=न हिंसन्ति ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्रः) वह शुद्ध और दृढ़व्रती जीवात्मा (अस्माकम्) हमारे (सु+रथम्) शरीररूप सुन्दर रथ को (सातये) अभीष्ट लाभ के लिये (पुरः+कृणोतु) इस संसार में सबके आगे करे अर्थात् इस शरीर को यशस्वी बनावे (यम्) जिस अन्तरात्मा को (धूर्तयः) हिंसक पापाचार (न+धूर्वन्ति) हिंसित नहीं कर सकते ॥९ ॥

    भावार्थ

    जो आत्मा पापाचरणों से रहित और सदाचारों से सुभूषित और विवेकी है, वही स्वाधार शरीर को जगत् में श्रेष्ठ और पूज्य बनाता है । अतः हे मनुष्यों ! आत्मकल्याण के मार्गों के तत्त्वविद् पुरुषों की शिक्षा पर चलकर अपने को सुधारो ॥९ ॥

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    विषय

    उत्तम सेनापति अग्नि।

    भावार्थ

    ( यं धूर्तयः ) जिसको हिंसक जन ( न धूर्वन्ति ) नाश न कर सकें वह ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता सेनापति होकर (अस्माकं सातये) हमारे अभीष्ट लाभ के लिये ( रथं पुरः सु कृणोतु ) हमारे रथ सैन्य को आगे अच्छी प्रकार करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    कैसा रथ ?

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु (अस्माकं) = हमारे (सु-रथं) = उत्तम रथ को (पुरः कृणोतु) = आगे करें। यह रथ शत्रुओं की ओर आक्रमण के लिए आगे ही बढ़े। (सातये) = यह सब धनों की प्राप्ति के लिए हो। 'काम' को पराजित करके हम 'स्वास्थ्य-धन' को प्राप्त करें। 'क्रोध' को जीतकर हम 'मानसशान्तिरूप धन' को प्राप्त करें। 'लोभ' को जीतकर हम 'ज्ञान धन' को प्राप्त करें। [२] हमारा यह रथ ऐसा हो कि (यं) = जिसे (धूर्तयः) = हिंसक शत्रु (न धूर्वन्ति) = हिंसित नहीं कर पायें। हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा शरीर रथ आगे और आगे बढ़े। यह सब धनों का विजय करनेवाला किसी से हिंसित न हो।

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