ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 52/ मन्त्र 7
क॒दा च॒न प्र यु॑च्छस्यु॒भे नि पा॑सि॒ जन्म॑नी । तुरी॑यादित्य॒ हव॑नं त इन्द्रि॒यमा त॑स्थाव॒मृतं॑ दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठक॒दा । च॒न । प्र । यु॒च्छ॒सि॒ । उ॒भे इति॑ । नि । पा॒सि॒ । जन्म॑नी॒ इति॑ । तुरी॑य । आ॒दि॒त्य॒ । हव॑नम् । ते॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । आ । त॒स्थौ॒ । अ॒मृत॑म् । दि॒वि ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा चन प्र युच्छस्युभे नि पासि जन्मनी । तुरीयादित्य हवनं त इन्द्रियमा तस्थावमृतं दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठकदा । चन । प्र । युच्छसि । उभे इति । नि । पासि । जन्मनी इति । तुरीय । आदित्य । हवनम् । ते । इन्द्रियम् । आ । तस्थौ । अमृतम् । दिवि ॥ ८.५२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 52; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Eternal lord immanent and transcendent, when is it you neglect your devotee? Never. You bless both lives, this here and the next hereafter. Indeed the very call on you in prayer means honour and glory immortal which abides in heaven.
मराठी (1)
भावार्थ
जगातील पापी-पुण्यात्मा दोन्ही प्रकारच्या माणसांच्या कर्मांचा द्रष्टा परमेश्वर आहे. या कार्यात त्याच्या हातून प्रमाद होत नाही. जे परमात्म्याला आवाहन करू लागतात, त्यांना जणू त्या अविनाशी परम कारण प्रभूचे ऐश्वर्य मिळालेले असते, परंतु हे आवाहन तोच जीव करतो, ज्याला ज्ञानाचा प्रकाश मिळालेला असतो. ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (तुरीय) चतुर्थ अर्थात् परमकारण! (आदित्य) विनाश से परे! (इन्द्रियम्) ऐश्वर्य प्राप्ति का लक्षक (अमृतम्) मोक्षप्रापक (ते) आपका (हवनम्) आवाहन या प्रार्थना दिविज्ञान के प्रकाश पर (आतस्थौ) आश्रित है। आप तो (उभे) अच्छे तथा बुरे-स्वभाव से पापी पुण्यात्मा--दोनों (जन्मनी) जीवों पर (निपासि) विशेष ध्यान देते हैं; द्रष्टा के अपने इस कर्त्तव्य में आप (कदाचन) कभी (न) नहीं (प्रयुच्छसि) प्रमाद करते हैं॥७॥
भावार्थ
विश्व के पापी-पुण्यात्मा--दोनों तरह के मनुष्यों के कर्मों का द्रष्टा प्रभु है--इस कार्य में वह कभी प्रमाद नहीं करता। हाँ, जो परमात्मा का आवाहन करने लगते हैं, उन्हें मानो उस अविनाशी, परमकारण प्रभु का ऐश्वर्य प्राप्त हो गया हो। यह आवाहन वह जीव करता है जिसे ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हो जाता है॥७॥
विषय
उसकी स्तुति प्रार्थनाएं।
भावार्थ
हे प्रभो ! तू ( कदाचन प्रयुच्छसि ) कभी भी प्रमाद नहीं करता । ( उभे जन्मनी नि पासि ) इह और पर दोनों लोकों को पालन करता है। हे ( तुरीय ) सबसे पार ! हे (आदित्य) सब विश्व के नियन्तः ! ( ते ) तेरा यह ( हवनं इन्द्रियम् ) देने योग्य ऐश्वर्य है जो ( दिवि ) मोक्ष में ( अमृतं ) अमृतस्वरूप ( आ तस्थौ ) विद्यमान है। ( २ ) इसी प्रकार जगत् आदि तीनों अवस्थाओं से अतीत आत्मा के ही इन्द्रिय विभूति हैं जो ( दिवि ) शिरोरूप मस्तक में जीवित जागृत रूप में विद्यमान है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ७ निचृद् बृहती। ३, बृहती। ६ विराड् बृहती। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ४, ६, ८, १० निचृत् पंक्तिः॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'तुरीय आदित्य' प्रभु
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! आप (कदा च) = कभी भी (न प्रयुच्छसि) = प्रमाद नहीं करते हो। (उभे) = दोनों (जन्मनी) = जन्मों को - इहलोक व परलोक को (निपासि) = निश्चय से रक्षित करते हो। [२] हे (तुरीय) = समाधिजन्य तुरीयावस्था से प्राप्त होने योग्य ! (आदित्य) = सूर्यवत् देदीप्यमान प्रभो ! [आदित्यवर्णम्] (ते हवनम्) = आपका पुकारना (इन्द्रियं) = वीर्य व बल है, अर्थात् आपकी आराधना से शक्ति प्राप्त होती है। आपके (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में (अमृतं) = नीरोगता व अमरता (आतस्थौ) = स्थित है। आपसे दिया जानेवाला यह ज्ञान का प्रकाश हमारे लिए अमृतत्व को देनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु प्रमादरहित होकर हमारे इहलोक व परलोक का रक्षण करते हैं। प्रभु की आराधना हमें शक्ति देती है। प्रभु से दिये गये ज्ञान के प्रकाश में अमृतत्व निहित हैं।
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