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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 59/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सुपर्णः काण्वः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    घृ॒त॒प्रुष॒: सौम्या॑ जी॒रदा॑नवः स॒प्त स्वसा॑र॒: सद॑न ऋ॒तस्य॑ । या ह॑ वामिन्द्रावरुणा घृत॒श्चुत॒स्ताभि॑र्धत्तं॒ यज॑मानाय शिक्षतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒त॒ऽप्रुषः॑ । सौम्याः॑ । जी॒रऽदा॑नवः । स॒प्त । स्वसा॑रः । सद॑ने । ऋ॒तस्य॑ । याः । ह॒ । वा॒म् । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । घृ॒त॒ऽश्चुतः॑ । ताभिः॑ । ध॒त्त॒म् । यज॑मानाय । शि॒क्ष॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतप्रुष: सौम्या जीरदानवः सप्त स्वसार: सदन ऋतस्य । या ह वामिन्द्रावरुणा घृतश्चुतस्ताभिर्धत्तं यजमानाय शिक्षतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतऽप्रुषः । सौम्याः । जीरऽदानवः । सप्त । स्वसारः । सदने । ऋतस्य । याः । ह । वाम् । इन्द्रावरुणा । घृतऽश्चुतः । ताभिः । धत्तम् । यजमानाय । शिक्षतम् ॥ ८.५९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 59; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Endowed with gifts of goodness and grace, kind and generous, givers of life energy, seven sisters of yours, five senses, mind and intellect, O Indra and Varuna, loving and judicious divine powers of humanity, in this house of truth and divine law of yajna in human life, are replete with the beauty and splendour of life. With these, pray bring in the knowledge and wisdom of divinity and nature revealed by the sages and enlighten the yajamana.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मानव जीवन यज्ञात पाच प्राण व मन आणि बुद्धी या सात उपकरणाचे अधिक महत्त्व आहे. यांना सुशोभित करण्याने मानवाचे जीवन तेजस्वी बनते, परंतु हे तेव्हाच शक्य आहे की, ही सातही साधने परस्पर ‘स्वसा’ (भगिनीप्रमाणे) प्रमाणे मिळून चालतील व यज्ञकार्यात परस्पर मिळून काम करतील. निरुक्त (५-१) मध्ये सांगितलेले आहे ‘सह सर्पणात् स्वसार: ता हि सह सर्पन्ति’ ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (इन्द्रावरुणा) शक्ति, न्याय तथा प्रेम भावनाओं की प्रतीक दिव्य शक्तियो! (ऋतस्य सदने) परम सत्य की प्राप्ति के साधनभूत जीवन यज्ञ में सहयोगी, (घृतप्रुषः) तेजःपूर्ण (सौम्याः) सौम्य स्वभाव, (जीरदानवः) जीवनदाता, (याः) जो (वाम्) तुम्हारी (सप्तस्वसारः) सात भगिनियों के जैसे पाँच प्राण व मन तथा बुद्धि उपकरण हैं और वे (घृतश्चुतः) तेज के दाता भी हैं (ताभिः) उन स्वसा-भूत सातों उपकरणों से (धत्तम्) इस यज्ञ को पुष्टि दो तथा (यजमानाय) यजमान आत्मा को (शिक्षतम्) बोध दो॥४॥

    भावार्थ

    मानव-जीवनरूपी यज्ञ में पाँच प्राण व मन तथा बुद्धि--इन सात उपकरणों का बड़ा महत्त्व है। इन्हें साधने से मानव-जीवन तेजस्वी बनता है। परन्तु यह तभी होता है जब कि ये सातों साधन आपस में 'स्वसाओं' की तरह साथ-साथ चलें। यज्ञकार्य में आपसी मेल से काम करें॥४॥

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    विषय

    गुरु और आचार्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्रा वरुणा ) ऐश्वर्यवन् ! हे श्रेष्ठ पुरुष ! आचार्य स्वयंवृत गुरो ! ( याः ) जो ( वाम् ) आप दोनों की, ( घृत-प्रुषः ) जल बिन्दुनिषेकवत् शीतल सुखदायिनी, स्नेहयुक्त, ( सौम्या ) सौम्य, उत्तम शिष्यों के हितकारिणी, ( जीर-दानवः ) जीवन प्रदान करने वाली, ( सप्तस्वसारः ) सात वहनों के समान सात छन्दोमयी स्वयं अनायास बाहर आने वाली, वा सुखपूर्वक अज्ञान का नाश करने वाली, (घृत श्चुतः ) तेजः प्रकाश के देने वाली वाणियां हैं ( ताभिः ) उन वाणियों से आप दोनों ( यजमानाय ) दानशील, आत्मसमर्पक जन को ( ऋतस्य सदने ) सत्य ज्ञान और न्याय के स्थान में ( धत्तम् ) स्थापित करो और ( शिक्षतम् ) उत्तम शिक्षा करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुपर्णः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रावरुणौ देवते॥ छन्दः—१ जगती। २, ३ निचृज्जगती। ४, ५, ७ विराड् जगती। ६ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वेदवाणियाँ [सप्त स्वसारः]

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रिया व निद्वेषता के भावो ! (याः) = जो (ह) = निश्चय से (वाम्) = आपकी (सप्त) = सात छन्दोमयी वेदवाणियाँ (स्वसारः) = [ स्व + सृ] आत्मतत्व की ओर ले चलनेवाली हैं, वे वाणियाँ (घृतप्रुषः) = ज्ञानदीप्ति से सिक्त करनेवाली हैं, (सौम्याः) = हमें सौम्य स्वभाव का बनानेवाली हैं और (जीरदानवः) = जीवन प्रदान करनेवाली हैं। ये वाणियाँ हमारे जीवनों में (घृतश्चुतः) = ज्योति को क्षरित करनेवाली हैं। [२] (ताभिः) = उन वाणियों के द्वारा (ऋतस्य सदने) = सत्य के निवास स्थान प्रभु में (धत्तम्) = हमें स्थापित करिये। हे इन्द्रावरुणा ! आप (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (शिक्षतम्) = शिक्षा को देनेवाले होइये अथवा इस यजमान को शक्तिशाली बनाने की कामना कीजिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदवाणियाँ ज्ञानदीप्ति से हमें व्याप्त करनेवाली, हमें सौम्य व दीर्घजीवी बनानेवाली हैं। ये हमें आत्मतत्व की ओर ले चलती हैं। जितेन्द्रियता व निर्देषता के भाव हमें इन वेदवाणियों के द्वारा प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं।

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