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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 62/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒यु॒जो अस॑मो॒ नृभि॒रेक॑: कृ॒ष्टीर॒यास्य॑: । पू॒र्वीरति॒ प्र वा॑वृधे॒ विश्वा॑ जा॒तान्योज॑सा भ॒द्रा इन्द्र॑स्य रा॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यु॒जः । अस॑मः । नृऽभिः॑ । एकः॑ । कृ॒ष्टीः । अ॒यास्यः॑ । पू॒र्वीः । अति॑ । प्र । व॒वृ॒धे॒ । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । ओज॑सा । भ॒द्राः । इन्द्र॑स्य । रा॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयुजो असमो नृभिरेक: कृष्टीरयास्य: । पूर्वीरति प्र वावृधे विश्वा जातान्योजसा भद्रा इन्द्रस्य रातय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयुजः । असमः । नृऽभिः । एकः । कृष्टीः । अयास्यः । पूर्वीः । अति । प्र । ववृधे । विश्वा । जातानि । ओजसा । भद्राः । इन्द्रस्य । रातयः ॥ ८.६२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 62; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 40; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sole and self-sufficient, unequal, one supreme among humanity, beyond the power of mortals, he excels and transcends all those born ever before or at present or to be born in future, by virtue of his lustre and magnanimity. Great are the powers and gifts of Indra’s generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा हा सर्वशक्तिमान अर्थात् तो आपल्या कार्यात कुणाचे साह्य घेत नाही. ॥२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रस्य महत्त्वं प्रदर्श्यते ।

    पदार्थः

    कीदृशः स इन्द्र इत्यपेक्षायामाह, अयुज इत्यादि । अयुजः=योगरहितः असहायः, स्वकार्ये न केनचिद्योगं भजत इत्यर्थः । पुनः । असमः=असदृशः । पुनः । नृभिः=नृणां देवानाञ्च मध्ये एकः सर्वश्रेष्ठः । अयास्यः=उपक्षययितुमशक्यः । पुनः । पूर्वीः=पूर्वतनीः । कृष्टीः=प्रजाः । अतिक्रम्य स प्रवावृधे प्रकर्षेण वर्धते । ननु स ओजसा=स्वप्रतापेन पराक्रमेण च । सर्वाणि जातानि अतिक्रम्य प्रवर्धते भद्रा इत्यादि व्याख्यातम् ॥२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्र का महत्त्व दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अयुजः) वह इन्द्र अपने कार्य्य में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं करता है । (असमः) उसके सदृश कोई नहीं है । (नृभिः+एकः) वह मनुष्यों और देवों में एक ही है । पुनः (अयास्यः) उसका क्षय कोई नहीं कर सकता । पुनः (पूर्वीः+कृष्टीः) पहले की और आज की सर्व प्रजाओं को (अति) उल्लङ्घन कर (प्र+वावृधे) अत्यन्त विस्तृत है अर्थात् (ओजसा) निज पराक्रम और प्रताप से (विश्वा+जातानि) सम्पूर्ण जगत् से वह बढ़ करके है ॥२ ॥

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    विषय

    एक अद्वितीय, अविनाशी

    भावार्थ

    वह परमेश्वर ( एकः ) अकेला, अद्वितीय, ( अयुजः ) अन्य सहायक के विना, ( असमः ) अपने समान अन्य से रहित, ( अयास्यः ) अविनाशी, अपराजित, कभी न थकने वाला, अप्राप्य और मुख्य है। वह ( नृभिः ) जीवों द्वारा ही ( पूर्वीः कृष्टी: ) बहुत सी सनातन प्रजाओं को ( प्र वावृधे ) बढ़ाता है और ( विश्वा जातानि ) सभी उत्पन्न प्राणियों को भी इसी प्रकार ( ओजसा ) अपने बल पराक्रम से ( इति प्र वावृधे ) इसी प्रकार बढ़ाता रहता है। ( इन्द्रस्य रातयः भद्राः ) ऐश्वर्यवान् प्रभु के सब दान अति सुखकारी होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ३, ६, १०, ११ निचृत् पंक्ति:। २, ५ विराट् पंक्तिः। ४, १२ पंक्तिः। ७ निचृद् बृहती। ८, ९ बृहती॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'शक्तिप्रदाता' सर्वशक्तिमान् प्रभु

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (अयुजः) = अपने कार्यों में किसी सहाय की आवश्यकता नहीं रखते। (असमः) = उनके समान कोई नहीं है। वे (एकः) = अद्वितीय प्रभु (नृभिः) = सारे मनुष्यों व देवों से (अयास्यः) = पराजित नहीं किये जा सकते। ये प्रभु (पूर्वीः) = अपना पालन व पूरण करनेवाली (कृष्टी:) = श्रमशील प्रजाओं को (अति प्रवावृधे) = अतिशयेन बढ़ानेवाले हैं। [२] ये प्रभु (विश्वाः) = सब (जातानि) = उत्पन्न प्राणियों को (ओजसा) = ओज से बढ़ाते हैं। इस (इन्द्रस्य) = सर्वशक्तिमान् प्रभु की (रातयः) = देन (भद्राः) = कल्याणकर हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - अनन्त शक्तिवाले वे प्रभु अद्वितीय हैं। सभी को वे ही शक्ति प्राप्त करा रहे हैं।

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