ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 5
त्यं चि॒त्पर्व॑तं गि॒रिं श॒तव॑न्तं सह॒स्रिण॑म् । वि स्तो॒तृभ्यो॑ रुरोजिथ ॥
स्वर सहित पद पाठत्यम् । चि॒त् । पर्व॑तम् । गि॒रिम् । श॒तऽव॑न्तम् । स॒ह॒स्रिण॑म् । वि । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । रु॒रो॒जि॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्यं चित्पर्वतं गिरिं शतवन्तं सहस्रिणम् । वि स्तोतृभ्यो रुरोजिथ ॥
स्वर रहित पद पाठत्यम् । चित् । पर्वतम् । गिरिम् । शतऽवन्तम् । सहस्रिणम् । वि । स्तोतृऽभ्यः । रुरोजिथ ॥ ८.६४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
You break and break open the cloud and the mountain bearing a hundred and a thousand gifts for the divine singers, celebrants and dedicated yajakas.
मराठी (1)
भावार्थ
जलाचा वृष्टिकर्ता तोच देव आहे. सृष्टीच्या आरंभी हे मेघ कुठून आले? त्यांची उत्पत्ती कशी झाली? जर मेघ नसतील तर जीवही येथे नसते इत्यादी भाव सदैव बाळगले पाहिजेत. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वम् । स्तोतृभ्यः=स्तुतिकर्तृभ्यो जनेभ्यः । शतवन्तं सहस्रिणञ्च । त्यं चित् । तं पर्वतं गिरिम् । विरुरोजिथ=विरुजसि ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र ! तू ही जलवर्षिता भी है, तू (स्तोतृभ्यः) स्तुतिपरायण इन समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये (त्यम्+चित्) उस (गिरिम्) मेघ को (वि+रुरोजिथ) विविध प्रकार से छिन्न-भिन्न कर बरसाता है, जो मेघ (पर्वतम्) अनेक पर्वतों से युक्त हैं, जो (शतवन्तम्) संख्या में सैकड़ों और (सहस्रिणम्) सहस्रों हैं ॥५ ॥
भावार्थ
जलवर्षणकर्ता भी वही देव है । सृष्टि की आदि में कहाँ से ये मेघ आए, इनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यदि मेघ न हो, तो जीव भी यहाँ न होते इत्यादि भावना सदा करनी चाहिये ॥५ ॥
विषय
विद्वान् के कर्त्तव्य।
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य, पवन या विद्युत् ( पर्वतं चित् रुजति ) मेघ को छिन्न भिन्न करता है, उसी प्रकार हे ज्ञानशालिन् ! तू भी (त्यं) उस ( पर्वतं ) नाना पोरुओं से ( गिरिं ) ज्ञान का उपदेश करने वाले, ( शत-वन्तं सहस्रिणं) सौ और हजार अध्यायों वा सूक्तादि से युक्त वेद ज्ञान को ( स्तोतृभ्यः ) यथार्थ वक्ताजनों के लिये ( रुरोजिथ ) पृथक् २ कर व्याख्या कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रगाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७, ९ निचृद् गायत्री। ३ स्वराड् गायत्री। ४ विराड् गायत्री। २, ६, ८, १०—१२ गायत्री। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अविद्यापर्वत का विदारण
पदार्थ
[१] अविद्या पञ्चपर्वा कहलाती है-' अविद्या अस्मिता राग द्वेष व अभिनिवेश' रूप पांच क्लेश ही इसके पांच पर्व हैं। यह अविद्या शत सहस्रों व हज़ारों रूपों में प्रकट होती है। प्रभु ही इस अविद्यापर्वत का विदारण करते हैं । (त्यं) = उस (चित्) = निश्चय से पर्वत पाँच पर्वोंवाले अविद्यापर्वत को, गिरिं जो हमें निगल-सा जाता है, (शतवन्तं) = सैकड़ों शाखाओंवाला है तथा (सहस्रिणं) = सहस्रों प्रशाखाओंवाला हैं, इस पर्वत को, हे प्रभो ! (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिए आप ही (विरुरोजिथ) = विशेषरूप से भग्न करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। प्रभु ही हमारे लिए अविद्या पर्वत का विनाश करेंगे।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal