ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 74/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आग॑न्म वृत्र॒हन्त॑मं॒ ज्येष्ठ॑म॒ग्निमान॑वम् । यस्य॑ श्रु॒तर्वा॑ बृ॒हन्ना॒र्क्षो अनी॑क॒ एध॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒ग॒न्म॒ । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मम् । ज्येष्ठ॑म् । अ॒ग्निम् । आन॑वम् । यस्य॑ । श्रु॒तर्वा॑ । बृ॒हन् । आ॒र्क्षः । अनी॑के । एध॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
आगन्म वृत्रहन्तमं ज्येष्ठमग्निमानवम् । यस्य श्रुतर्वा बृहन्नार्क्षो अनीक एधते ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अगन्म । वृत्रहन्ऽतमम् । ज्येष्ठम् । अग्निम् । आनवम् । यस्य । श्रुतर्वा । बृहन् । आर्क्षः । अनीके । एधते ॥ ८.७४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 74; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let us rise and reach Agni, highest divinity, greatest destroyer of evil and darkness and friend of humanity, under whose blessed shelter the great, renowned and distinguished heroes find inspiration and rise.
मराठी (1)
भावार्थ
श्रुतर्वा = जे ईश्वराची आज्ञा सदैव ऐकतात व त्यानुसार चालतात. आर्क्ष = ऋक्षमित्र. येथे ऋक्ष शब्द मनुष्यवाची आहे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
वृत्रहन्तमम्=अतिशयेन वृत्राणां विघ्नानां हन्तारम् । ज्येष्ठम् । आनवम्=मनुष्यमित्रम् । अनुरिति मनुष्यनाम । अग्निं=सर्वाधारम् । आगन्म=अभिमुखं गच्छेम । यस्य+अनीके=कृपया विद्यमानः । श्रुतर्वा=श्रोतृजनः । बृहन्=महान् । आर्क्षः=मनुष्यहितकारी च । एधते=वर्धते ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे विज्ञानि जनो ! हम सब ही (वृत्रहन्तमम्) निखिल विघ्नों और उपद्रवों को विनष्ट करनेवाले (ज्येष्ठम्) ज्येष्ठ (आनवम्) मनुष्यहितकारी (अग्निम्) सर्वाधार जगदीश की ओर (आगन्म) जाएँ । (यस्य+अनीके) जिसकी शरण में रहते हुए (श्रुतर्वा) श्रोतृजन और (बृहन्) महान् जन और (आर्क्षः) मनुष्यहितकारी (एधते) इस जगत् में उन्नति कर रहे हैं ॥४ ॥
भावार्थ
श्रुतर्वा=जो ईश्वर की आज्ञाओं को सदा सुना करते हैं और उनपर चलते हैं । आर्क्ष=ऋक्षमित्र । यहाँ ऋक्ष शब्द मनुष्यवाची है ॥४ ॥
विषय
missing
भावार्थ
( यस्य ) जिस के ( अनीके ) सैन्य बल में ( बृहन् ) बड़ा भारी ( आर्क्ष: ) शत्रु को भर्जन या पीड़न करने में समर्थ ( श्रुतर्वा ) प्रसिद्ध अश्वारोही जन ( एधते ) वृद्धि को प्राप्त होता है, उस (ज्येष्ठम् ) सब में बड़े ( आनवं ) मनुष्यों के हितैषी ( अग्निम् ) तेजस्वी ( वृत्रहन्तमं ) सबसे अधिक शत्रुहन्ता पुरुष को हम ( आ अगन्म ) प्राप्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेय ऋषि:॥ देवताः—१—१२ अग्निः। १३—१५ श्रुतर्वण आर्क्ष्यस्य दानस्तुतिः। छन्द्रः—१, १० निचुदनुष्टुप्। ४, १३—१५ विराडनुष्टुप्। ७ पादनिचुदनुष्टुप्। २, ११ गायत्री। ५, ६, ८, ९, १२ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'श्रुतर्वा बृहन्- आर्क्ष'
पदार्थ
[१] हम (वृत्रहन्तमम्) = वासनाओं के अधिक-से-अधिक विनष्ट करनेवाले प्रभु को आगन्म प्राप्त होते हैं जो प्रभु (ज्येष्ठं) = प्रशस्यतम हैं, (अग्निम्) = हमें आगे ले चलनेवाले हैं तथा (आनवम्) = हमें प्रीणित करनेवाले हैं। [२] उन प्रभु को हम प्राप्त होते हैं, (यस्य) = जिनके (अनीके) = बल में वह (एधते) = वृद्धि को प्राप्त होता है, जो (श्रुतर्वा) = [ श्रुतेन इयर्ति] शास्त्रज्ञान के अनुसार गतिवाला होता है। (बृहन्) = बड़े हृदयवाला होता है-विशाल हृदय । (आर्क्षः) = [ऋष् गतौ ] गतिशील होता है- सदा क्रियाशील । मस्तिष्क में 'श्रुतर्वा', हृदय में 'बृहन्' तथा हाथों में 'आर्क्ष' बनकर हम प्रभु के सच्चे उपासक होते हैं और प्रभु के बल से बलसम्पन्न बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के हम उपासक बनें। प्रभु हमारी वासनाओं को विनष्ट करेंगे हमें प्राणशक्ति प्राप्त कराएँगें और प्रशस्त जीवनवाला बनाएँगे। सच्चा उपासक ' श्रुतर्वा बृहन् व आर्क्ष' होता है।
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