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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 83/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कुसीदी काण्वः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यू॒यं हि ष्ठा सु॑दानव॒ इन्द्र॑ज्येष्ठा अ॒भिद्य॑वः । अधा॑ चिद्व उ॒त ब्रु॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यू॒यम् । हि । स्थ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । इन्द्र॑ऽज्येष्ठाः । अ॒भिऽद्य॑वः । अध॑ । चि॒त् । वः॒ । उ॒त । ब्रु॒वे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यूयं हि ष्ठा सुदानव इन्द्रज्येष्ठा अभिद्यवः । अधा चिद्व उत ब्रुवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यूयम् । हि । स्थ । सुऽदानवः । इन्द्रऽज्येष्ठाः । अभिऽद्यवः । अध । चित् । वः । उत । ब्रुवे ॥ ८.८३.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 83; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O generous Vishvedevas, you, with Indra, lord omnipotent as supreme, are and abide as heavenly and brilliant in knowledge and divinity. That’s why I speak, celebrate and pray to you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व देवतांमध्ये प्रमुख देव महादेव, परमेश्वर आहे. तो जेथे बाह्य स्वरूपाने (सृष्टीरूपाने) प्रकाशमान आहे- तेथे तो स्वत: ज्ञानी आहे किंवा ज्ञानाद्वारे जाणता येतो. तो ज्ञानाच्या ज्योतीनेही दीप्तिमान आहे. ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (सुदानवः) शुभ दानदाता दिव्यगुणिजनो! आप सब (इन्द्रज्येष्ठाः) प्रमुख हैं, (अभिद्यवः) दीप्तिमान् तथा ज्ञानवान् हैं; (अध चित्) यह समझने के बाद मैं उपासक (वः) आपकी (उप ब्रुवे) वन्दना करता हूँ; (उत) और फिर स्तुति करता हूँ॥९॥

    भावार्थ

    सभी देवों में प्रमुख महादेव, प्रभु ही हैं। वे जहाँ बाह्य स्वरूप से प्रकाशित हैं, वहाँ वे स्वयं ज्ञानी हैं या ज्ञान से जाने जाते हैं अतएव ज्ञान की ज्योति से भी प्रकाशित हैं॥९॥ अष्टम मण्डल में तिरासीवाँ सूक्त व चौथा वर्ग समाप्त॥

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    विषय

    विद्वान् तेजस्वी, व्यवहारकुशल विद्वान् जनों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( सुदानवः ) उत्तम दानशील पुरुषो ! ( यूयं ) आप लोग ( इन्द्र-ज्येष्ठाः ) अन्न देने वाले, शत्रु के नाशक, ऐश्वर्यवान् और सत्य ज्ञानदर्शी को अपना ज्येष्ठ मानने वाले और ( अभि-द्यवः ) स्वयं तेजस्वी, ( स्थ हि ) अवश्य होवो। ( अध चित् उत् ) और भी मैं ( वः ब्रुवे ) आप लोगों को उपदेश करूं। इति चतुर्थो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुसीदी काण्व ऋषिः॥ विश्वे देवताः॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९ गायत्री। ३ निचृद गायत्री। ४ पादनिचृद गायत्री। ७ आर्ची स्वराड गायत्री। ८ विराड गायत्री।

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    विषय

    इन्द्रज्येष्ठा, अभिद्यवः, सुदानवः [देवाः]

    पदार्थ

    [१] दे देवो! (यूयम्) = आप (हि) = निश्चय से (इन्द्रज्येष्ठा:) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को ज्येष्ठत्व देनेवाले (अभिद्यवः) = [अभिगत दीप्तयः] प्राप्त ज्ञान ज्योतिवाले तथा (सुदानवः) = बुराइयों का सम्यक् खण्डन करनेवाले हो। [२] (अधा चित्) = सो अब निश्चय से (वः उपब्रुवे) = आपका ही मैं स्तवन करता हूँ । (उत) = और आप से ही अपने जीवन के निर्माण के लिये प्रार्थना करता हूँ। आप प्रभु की उपासना के द्वारा प्राप्त ज्ञान ज्योतिवाले हो । आप हमारे जीवनों में भी बुराइयों का खण्डन करते हुए उन्हें उज्वल बनाने का अनुग्रह करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- देव वे हैं जो प्रभु को ज्येष्ठ बनाकर ज्ञान को प्राप्त करते हैं और बुराइयों का अपने जीवन में खण्डन करते हैं। इनके सम्पर्क में हम भी देव बनें। देव बनकर महादेव की प्राप्ति की प्रबल कामनावाले हम 'उशना' बनें (कामयमान) । 'उशना ' ही काम्य है-कविपुत्र है- अतिशयेन क्रान्तदर्शी है। यह प्रभु की प्रार्थना करता हुआ कहता है-

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