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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 99/ मन्त्र 7
    ऋषिः - नृमेधः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - गान्धारः

    इ॒त ऊ॒ती वो॑ अ॒जरं॑ प्रहे॒तार॒मप्र॑हितम् । आ॒शुं जेता॑रं॒ हेता॑रं र॒थीत॑म॒मतू॑र्तं तुग्र्या॒वृध॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒तः । ऊ॒ती । वः॒ । अ॒जर॑म् । प्र॒ऽहे॒तार॑म् । अप्र॑ऽहितम् । आ॒शुम् । जेता॑रम् । हेता॑रम् । र॒थिऽत॑मम् । अतू॑र्तम् । तु॒ग्र्य॒ऽवृध॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इत ऊती वो अजरं प्रहेतारमप्रहितम् । आशुं जेतारं हेतारं रथीतममतूर्तं तुग्र्यावृधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इतः । ऊती । वः । अजरम् । प्रऽहेतारम् । अप्रऽहितम् । आशुम् । जेतारम् । हेतारम् । रथिऽतमम् । अतूर्तम् । तुग्र्यऽवृधम् ॥ ८.९९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 99; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O men and women of the earth, for your protection and progress follow Indra, unaging, all inspirer and mover, himself unmoved and self-inspired, most dynamic, highest victor, thunderer, master of the chariot of life, inviolable augmenter of strength to victory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाचे पालनपोषण कुणाला शरण जाऊन होऊ शकते? अर्थात अजर, अमर परमेश्वराच्या आश्रयाने आपल्या अंत:करणात त्याची अनुभूती प्रत्यक्ष करणेच त्याला शरण जाणे होय. ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    [हे मानवो!] (वः) तुम्हारी अपनी (ऊती) रक्षा, सहायता व देखरेख हो इस हेतु तुम (अजरम्) सदैव समर्थ, (प्रहेतारम्) सर्व प्रेरक परन्तु स्वयं (अप्रहितम्) स्वतन्त्र, (आशुम्) व्याप्त होने से सर्वत्र शीघ्र प्राप्त, (जेतारम्) इसी लिये जयशील (हेतारं= होतारम्) दानशील (रथीम्) रथ के स्वामी अर्थात् उत्तम अधिष्ठाता, (अतूर्तम्) अमर (तुग्र्यावृधम्) दुर्भावनाओं को मारने में हितकारी बल प्रदान करके बढ़ाने वाले प्रभु की शरण में (इत) जाओ॥७॥

    भावार्थ

    मानव की देखभाल अन्य किसी की शरण में जाकर हो सकती है? स्पष्ट है कि अजर, अमर परमेश्वर की शरण में ही; स्व अन्तःकरण में उसकी अनुभूति प्रत्यक्ष करना ही उसकी शरण में जाना है॥७॥

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    विषय

    राजा प्रजा के व्यवहारों के साथ परमेश्वर के गुणों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग ( अजरम् ) अविनाशी ( प्र-हेतारं ) सबके प्रेरक, शत्रुओं के नाशक, और ( अप्र-हितम् ) स्वयं किसी से भी प्रेरित न होने वाले, ( आशुम् ) वेगवान् व्यापक, (जेतारं) सर्वविजयी, ( हेतारं ) दुष्टों के नाशक, ( रथि-तमम् ) रथ वालों में सर्वोत्तम, विश्वमात्र में महारथी के तुल्य, (अतूर्तम्) अहिंसित, अबाधित, ( तुग्र्य-वृधम् ) दुष्टों के नाश करने की शक्ति को बढ़ाने वाले, परमेश्वर को आप लोग ( ऊती ) अति प्रेमपूर्वक ( इतः ) आगे करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नृमेध ऋषि:॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ आर्ची स्वराड् बृहती॥ २ बृहती। ३, ७ निचृद् बृहती। ५ पादनिचृद बृहती। ४, ६, ८ पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'तुग्र्यावृध' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (वः) = तुम्हारे (अजरम्) = जरा को दूर करनेवाले, (प्रहेतारम्) = शत्रुओं को दूर प्रेरित करनेवाले (अप्रहितम्) = किसी से भी पराषित न होनेवाले, (आशुम्) = वेगवान्, (जेतारम्) = शत्रुओं को पराजित करनेवाले, (हेतारम्) = शत्रुओं को दूर कम्पित करनेवाले प्रभु को (ऊती) = रक्षण के लिये (इतः) = द्यावापृथिवी प्राप्त होते हैं, अर्थात् प्रभु ही सबका रक्षण करते हैं। [२] उस प्रभु को रक्षा के लिये सब प्राप्त होते हैं जो (रथीतमम्) = रथ के सर्वोच्च संचालक हैं, (अतूर्तम्) = किसी से हिंसित होनेवाले नहीं। तथा (तुग्रयावृधम्) = शरीरस्थ रेतःकणरूप जलों का वर्धन करनेवाले हैं। वस्तुतः शत्रुओं का हिंसन करके, शरीर में शक्तिकणों के वर्धन के द्वारा ही, प्रभु हमारा रक्षण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सम्पूर्ण द्यावापृथिवी रक्षण के लिये प्रभु को ही प्राप्त होते हैं। प्रभु शत्रुओं का हिंसन करके हमारा रक्षण करते हैं। वे रेत कणरूप जलों का हमारे में वर्धन करते हैं।

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