ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 109/ मन्त्र 22
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्दु॒रिन्द्रा॑य तोशते॒ नि तो॑शते श्री॒णन्नु॒ग्रो रि॒णन्न॒पः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्दुः॑ । इन्द्रा॑य । तो॒श॒ते॒ । नि । तो॒श॒ते॒ । श्री॒णन् । उ॒ग्रः । रि॒णन् । अ॒पः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दुरिन्द्राय तोशते नि तोशते श्रीणन्नुग्रो रिणन्नपः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्दुः । इन्द्राय । तोशते । नि । तोशते । श्रीणन् । उग्रः । रिणन् । अपः ॥ ९.१०९.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 109; मन्त्र » 22
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 12
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 12
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दुः) सर्वप्रकाशकः परमात्मा (इन्द्राय) कर्मयोगिने (तोशते) साक्षात्क्रियते (उग्रः) उग्ररूपः सः (श्रीणन्) प्रेरयन् (अपः, रिणन्) मन्दकर्माण्यपनयन् (नि, तोशते) अज्ञानं नाशयति ॥२२॥ इति नवोत्तरशततमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दुः) सर्वप्रकाशक परमात्मा (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (तोशते) साक्षात्कार किया जाता है, (उग्रः) उग्रस्वरूप परमात्मा (श्रीणन्) अपनी प्रेरणा द्वारा (अपः, रिणन्) मन्द कर्मों को दूर करता हुआ (नि, तोशते) निरन्तर अज्ञान का नाश करता है ॥२२॥
भावार्थ
इस मन्त्र का आशय यह है कि सुख की इच्छावाले पुरुष को मन्दकर्मों का सर्वथा त्याग करना चाहिये। जब तक पुरुष मन्द कर्म नहीं छोड़ता, तब तक वह परमात्मपरायण कदापि नहीं हो सकता और न सुख उपलब्ध कर सकता है, इसी अभिप्राय से मन्त्र में अज्ञान के नाश द्वारा मन्द कर्मों के त्याग का विधान किया है ॥२२॥ यह १०९ वाँ सूक्त और २१ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
तोशते नितोशते
पदार्थ
(इन्दुः) = यह शक्ति वाली सोम (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (तोशते) = शत्रुओं का वध करता है और (नितोशते) = खूब ही वध करता है। हमारे शत्रुओं का संहार करके यह हमारे उन्नतिपथ को सुगम करता है (श्रीणन्) = ज्ञानाग्नि के द्वारा हमारा यह परिपाक करता है । (उग्र:) = तेजस्वी होता है । तथा (अपः रिणन्) = कर्म को हमारे में प्रेरित करता है। सुरक्षित हुआ हुआ यह हमें शक्ति देकर क्रियाशील बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करता है। यह हमें ज्ञान परिपक्व करता हुआ तेजस्वी व क्रियाशील बनाता है । इस प्रकार सोमरक्षण 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों को तेजस्वी बनानेवाला यह 'त्र्यरुण' है, सब काम आदि शत्रुओं को अपने से कम्पित करके दूर करनेवाला 'त्रसदस्यु' है, दास्यव भाव इससे भयभीत होकर दूर रहते हैं। अगले सूक्त के ऋषि ये 'त्र्यरुण व त्रसदस्यु' ही हैं। ये प्रार्थना करते हैं-
विषय
परमेश्वर प्राप्तवर्थ तपः-साधना।
भावार्थ
(इन्दुः) इस आत्मा को (इन्द्राय) परमेश्वर के प्राप्त्यर्थ ही (तोशते) तप द्वारा पीड़ित किया जाता है, (नि तोषते) नियमों द्वारा क्लेशित किया जाता है, (श्रीणन्) वह सेवा करता हुआ ही (उग्रः) बलशाली होकर (अपः रिणन्) नाना कर्म करता है। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वरा ऋषयः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, १०, १३, १४, १५, १७, १८ आर्ची भुरिग्गायत्री। २–६, ९, ११, १२, १९, २२ आर्ची स्वराड् गायत्री। २०, २१ आर्ची गायत्री। १६ पादनिचृद् गायत्री॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The mighty self-refulgent Soma spirit of beauty and bliss is realised for the soul and, mingling and moving with the flow of karma, it is attained for the salvation of the soul in ultimate freedom from karma and sufferance.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्राचा आशय हा आहे की, सुखाची इच्छा बाळगणाऱ्या पुरुषांनी मूढ कर्माचा सर्वस्वी त्याग केला पाहिजे. जोपर्यंत पुरुष मूढ कर्म सोडत नाही तोपर्यंत तो कधीही परमात्मपरायण होऊ शकत नाही किंवा सुखही प्राप्त करू शकत नाही. याच अभिप्रायाने मंत्रात अज्ञानाचा नाश करून अज्ञानयुक्त कर्माचा त्याग करण्याचे विधान केलेले आहे. ॥२२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal