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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒भुर्न रथ्यं॒ नवं॒ दधा॑ता॒ केत॑मा॒दिशे॑ । शु॒क्राः प॑वध्व॒मर्ण॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒भुः । न । रथ्य॑म् । नव॑म् । दधा॑त । केत॑म् । आ॒ऽदिशे॑ । शु॒क्राः । प॒व॒ध्व॒म् । अर्ण॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋभुर्न रथ्यं नवं दधाता केतमादिशे । शुक्राः पवध्वमर्णसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋभुः । न । रथ्यम् । नवम् । दधात । केतम् । आऽदिशे । शुक्राः । पवध्वम् । अर्णसा ॥ ९.२१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शुक्राः) हे पवित्रकारकपरमात्मन् ! भवान् (रथ्यम् नवम्) नवमश्वं (दधाता) वशमानयन् (ऋभुर्न) सारथिरिव सर्वान् वशमानयन् (केतम् आदिशे) ज्ञानमुपदिशति (अर्णसा पवध्वम्) भवान् मां धनाद्यैश्वर्येण तर्पयतु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शुक्राः) हे पवित्रकारक परमात्मन् ! आप (रथ्यम् नवम्) नये घोड़े को (दधाता) वश में रखते हुए (ऋभुर्न) सारथी की तरह (केतम् आदिशे) आप सबको बश में करके ज्ञानादि ऐश्वर्य देते हैं (अर्णसा) आप हमको धनाद्यैश्वर्य देकर (पवध्वम्) पवित्र करिये ॥६॥

    भावार्थ

    जीव करने में स्वतन्त्र और भोगने में परतन्त्र है। ईश्वर कर्मों के भुगाने में उसे ऐसे नियमों में निगडित रखता है, जिसका वह अतिक्रमण कदापि नहीं कर सकता। बड़े-२ सम्राटों को भी कर्मों का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता है। इसी अभिप्राय से यह कहा है कि जिस प्रकार जीवों को अपने अधीन रखता है ॥६॥

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    विषय

    'रथ्य-नव-केत' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (ऋभुः न) = 'उरु भाति' ज्ञान से दीप्त समझदार पुरुष की तरह (रथ्यम्) = हमारे शरीर रथ के उत्तम सारथि (नवम्) = [ नु स्तुतौ] स्तुत्य उपासना के योग्य (केतम्) = प्रज्ञानस्वरूप प्रभु को (आदिशे) = कर्त्तव्य कर्मों का आदेश प्राप्त कराने के लिये, हे सोमकणो ! उस प्रभु को मेरे (दधात) = अन्दर स्थापित करो । सोमकणों के रक्षण से मेरे हृदय में प्रभु की स्थिति हो । उस प्रभु से मुझे कर्त्तव्य कर्मों का उपदेश मिलता रहे। [२] (शुक्राः) = हे सोमकणो ! मेरे जीवन को [शुच्] दीप्त व पवित्र करनेवाले वीर्यकणो ! तुम (अर्णसा) = ज्ञानजल के द्वारा (पवध्वम्) = मेरे जीवन को पवित्र करनेवाले होवो |

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से प्रभु मेरे शरीर रथ के सारथि बनेंगे। तब भटकने का प्रश्न ही न इन सोमकणों के रक्षण से हमारा ज्ञान भी उत्तरोत्तर बढ़ेगा ।

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    विषय

    ज्ञान के सञ्चय का आदेश।

    भावार्थ

    (ऋभुः रथ्यं न) धन से सम्पन्न पुरुष जिस प्रकार (आदिशे) अश्वों के सञ्चालनार्थ रथ के सारथि को धरता है, उसी प्रकार हे विद्वान् जनो ! आप लोग (आदिशे) आगे के ज्ञान के लिये (नवं केतं दधात) नये से नया ज्ञान प्राप्त करो। और (शुक्राः अर्णसा पवध्वम्) शुद्धाचार हो कर जलवत् ज्ञान से अपने को सदा पवित्र किया करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१,३ विराड् गायत्री। २,७ गायत्री। ४-६ निचृद् गायत्री। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as an expert artist makes a new chariot and controls the motive power in order to reach the destination so, O Soma, let the pure streams flow, purify us, and bring us blissful enlightenment for total fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीव कर्म करण्यास स्वतंत्र व भोगण्यास परतंत्र आहे. ईश्वर कर्म भोगण्यासाठी त्याला अशा नियमात बांधून ठेवतो ज्याचे तो कधीही अतिक्रमण करू शकत नाही. मोठमोठ्या सम्राटांनाही कर्माचे फळ अवश्य भोगावे लागते. त्यामुळे म्हटले आहे की ज्या प्रकारे सारथी घोड्यांना आपल्या अधीन ठेवतो त्याच प्रकारे परमेश्वर जीवांना आपल्या अधीन ठेवतो. ॥६॥

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