ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
ऋषिः - दृळहच्युतः आगस्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पव॑मान धि॒या हि॒तो॒३॒॑ऽभि योनिं॒ कनि॑क्रदत् । धर्म॑णा वा॒युमा वि॑श ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑मान । धि॒या । हि॒तः । अ॒भि । योनि॑म् । कनि॑क्रदत् । धर्म॑णा । वा॒युम् । आ । वि॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमान धिया हितो३ऽभि योनिं कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमा विश ॥
स्वर रहित पद पाठपवमान । धिया । हितः । अभि । योनिम् । कनिक्रदत् । धर्मणा । वायुम् । आ । विश ॥ ९.२५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पवमान) हे सर्वेषां पालक भगवन् ! त्वं (धिया हितः) बुद्ध्या धृतः (अभि योनिम्) हृदयरूपे स्थाने (कनिक्रदत्) साधूपदिशन् (आविश) प्रविश अथ च (धर्मणा) अपहतपाप्मादिभिर्धर्मैः (वायुम्) कर्मयोगिविदुषो हृदयम् आगत्य प्रविश ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले परमात्मन् ! (धिया हितः) बुद्धि से धारण किये हुए आप (अभि योनिम्) हृदयरूपी स्थान में (कनिक्रदत्) सदुपदेश करते हुए (आविश) प्रवेश कीजिये और (धर्मणा) अपने अपहतपाप्मादि धर्मों द्वारा (वायुम्) कर्मयोगी विद्वान् के हृदय में आकर प्रवेश करें ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि जो लोग शुद्ध बुद्धि द्वारा परमात्मा की उपासना करते हैं, उनके हृदय को परमात्मा सदैव शुद्ध करता है। तात्पर्य यह है कि अपहतपाप्मादि परमात्मा के गुणों को वही पुरुष धारण कर सकता है, जो पुरुष योगसाधनादि द्वारा संस्कृत की हुई बुद्धि के साथ परमात्मा का ध्यान करता है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः” कठ० ३।१२॥ तथा “यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम्। तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति” मु० ३१३। जब जिज्ञासु पुरुष उस स्वतःप्रकाश ब्रह्म को अपने योगज सामर्थ्य से देखता है, तो पुण्य पाप से छूटता है अर्थात् जिस प्रकार वह परमपुरुष निष्पाप है, उसी प्रकार वह भी निष्पाप होकर उसके सत्यादि गुणों को धारण करता है। इसी का नाम बैदिक मत में मुक्ति है अर्थात् पापरूपी मल से छूट कर ब्रह्म के अमृतभावादि धर्मों को धारण करने का नाम मुक्ति है, इसीलिये “ब्रह्मविदाप्नोति परम्” और “अमृततत्वमानशुः” इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में उसको अमृत शब्द से कथन किया है, केवल उपनिषदों में ही नहीं, किन्तु वेद के बहुत से मन्त्रों में अमृत शब्द से मुक्त पुरुषों का कथन किया है, जैसे कि “कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे” ऋग्० १।२।२४।१॥ और “अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे” ऋग्० १।२४।१॥ इत्यादि मन्त्रों से स्पष्ट है कि अमृत यहाँ मुक्त पुरुषों का नाम है, क्योंकि अमृतानाम् यह निर्धारणषष्ठी है और निर्धारण बहुतों में से ही किया जाता है। इससे स्पष्ट है कि बहुत शब्द से यहाँ मुक्त जीव ही लिये जा सकते हैं, अन्य नहीं ॥जो लोग इन मन्त्रों के अर्थ पुनर्जन्म के करके अमृतों के अर्थ देवताओं के करते हैं, उनके मत में भी देव मुक्त पुरुष ही हो सकते हैं।यदि कहा जाय कि देव विद्वानों का नाम है, तो यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि यहाँ विद्वानों का कोई प्रसङ्ग नहीं, प्रसङ्ग यहाँ मुक्त पुरुषों का ही है। युक्ति इसमें यह है कि बहुत जीवों को अमृतभाव प्राप्त हो। तभी ‘अमृतानाम्’ यह बहुवचन कहा जा सकता है। यदि उत्पत्तिनाश न होने के अभिप्राय से यहाँ अमृत शब्द का प्रयोग होता, तो “न मृत्युरासीदमृतं न” इस मन्त्र में मृत्यु के मुकाबिले में अमृत शब्द का प्रयोग न होता। मृत्यु के प्रतिपक्षी अमृत शब्द का प्रयोग इस बात को सिद्ध करता है कि जिस पुरुष ने अमृतपद का लाभ किया है, उसी का नाम यहाँ अमृत है, अन्य का नहीं। इससे स्पष्ट रीति से मुक्त पुरुषों का ग्रहण पाया जाता है ॥जो लोग उक्त मन्त्रों के यह अर्थ करते हैं कि उक्त दोनों मन्त्र बद्ध जीवों की प्रार्थना का वर्णन करते हैं, वे वेद के आशय से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, क्योंकि बद्ध जीव की प्रार्थना पुनः माता-पिता के बन्धन में पड़ने की कदापि नहीं हो सकती, क्योंकि इन मन्त्रों के अन्त में “पितरं च दृशेयं मातरं च” अर्थात् मैं पुनः माता-पिता को देखूँ, यह कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि माता-पिता का देखना वही चाहता है, जिसने देर में इस संसारचक्र के माता-पिता को त्यागा हुआ है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि यहाँ मुक्त जीव की प्रार्थना है, बद्ध जीव की नहीं। इसके विषय में “स यो वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति।” इस प्रमाण से यह पाया जाता है कि ब्रह्मवेत्ता मुक्त पुरुष का भी कुल होता है। उसके कुल में कोई अब्रह्मवित् नहीं होता। अथवा इसके अर्थ ये भी किये जा सकते हैं कि मुक्त पुरुष का जन्म “अब्रह्मवित्कुले=अब्रह्मविदां कुले न भवति” अर्थात् अब्रह्मवेत्ताओं के कुल में नहीं होता, किन्तु ब्रह्मवेत्ताओं के ही कुल में होता है। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि मुक्त पुरुष का जन्म लोकोपकार के लिये फिर भी होता है। इसी का नाम मुक्ति से पुनरावृत्ति है।इतना ही नहीं “यं यं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान्। तं तं लोकं जयते तांश्च कामान्” मुक्त पुरुष जिस-जिस लोकविशेष की कामना करता है, उसी-उसी लोकविशेष में जाकर उत्पन्न होता है। इसी अभिप्राय से “ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे” इस वाक्य में मुक्ति से पुनरावृत्ति का कथन किया है। जो यह कहा जाता है कि “त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योमुर्क्षीय मामृतात्” इस मन्त्र में अमृत रहने की प्रार्थना की गयी है। इससे मुक्ति नित्य सिद्ध होती है।इसका उत्तर यह है कि यदि स्वभावसिद्ध मुक्ति से पुनरावृत्ति नहीं होती, तो मुक्त रहने की प्रार्थना ही क्यों की जाती। जिस प्रकार दुःखनिवृत्ति की प्रार्थना है, तो दुःख प्राप्त था, तब दुःखनिवृत्ति की प्रार्थना है। इसी प्रकार मुक्ति से पुनरावृत्ति प्राप्त थी, तभी उससे न छूटने की प्रार्थना की गयी।अन्य बात यह है कि प्रार्थना जिस वस्तु की की जाती है, वह सम्पूर्ण ही पुरुष को ज्यो की त्यों प्राप्त हो, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिन मन्त्रों में यह प्रार्थना है कि हे ईश्वर ! आप हमको सब ऐश्वर्य दें, तो क्या जीव को कभी सब ऐश्वर्य प्राप्त हो सकता है ? यदि यह कहा जाय कि यहाँ उपचार है अर्थात् सब ऐश्वर्य से तात्पर्य बहुत ऐश्वर्य का है, तो क्या “मृत्योमुर्क्षीय मामृतात्” इस वाक्य में अधिक काल तक मुक्त से अविमुक्त होने के अर्थ नहीं लिये जा सकते ?अस्तु। मुख्य प्रसङ्ग यह है कि अमृतपद वेद में बहुधा मुक्ति के लिये आता है और कहीं-२ ब्रह्मस्वरूप के लिये भी आता है। उक्त मन्त्र में अमृत पद ब्रह्म के स्वरूप को कथन करता है, इसलिये कोई दोष नहीं, क्योंकि अमृतपद के निर्णय के लिये विशेष नियम यह है कि जहाँ अमृत पद में एकवचन होता है, वहाँ प्रायः अमृत शब्द ईश्वर के स्वरूप का बोधक होता है और जहाँ द्विवचन वा बहुवचन होता है, वहाँ मुक्त पुरुषों का ग्रहण होता है। इस नियम का व्यभिचार केवल “न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि” इस वाक्य में पाया जाता है। इसका कारण यह है कि यहाँ अमृत पद मृत्यु का प्रतिद्वन्दी है, इसलिये यहाँ एकवचन भी मुक्ति को कहता है, अन्यत्र कहीं नहीं। अन्यत्र सर्वत्रैव अमृत शब्द एकवचनान्त है। वेद में सर्वत्र अमृत पद ईश्वर के स्वरूप को कथन करता है, इसलिये “मृत्योमुर्क्षीय मामृतात्” यहाँ ईश्वर के स्वरूप से मत दूर हो, यह अर्थ है ॥२॥
विषय
धर्मणा वायुमा विश
पदार्थ
[१] हे (पवमान) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले सोम ! (धिया) = बुद्धिपूर्वक कर्मों के द्वारा (हितः) = शरीर के अन्दर ही स्थापित किया गया तू (योनिं अभि) = उस सब के उत्पत्ति-स्थान प्रभु की ओर हमें ले चलनेवाला हो। सोमरक्षण से ही बुद्धि की दीप्ति होकर हमें प्रभु की प्राप्ति होती है । [२] हे सोम ! तू (कनिक्रदत्) = उस प्रभु का आह्वान करता हुआ, (धर्मणा) = धारणात्मक कर्मों को करने के द्वारा (वायुम्) = उस गति के द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाले प्रभु को (आविश) = प्राप्त हो, प्रभु में प्रवेश करनेवाला बन । वस्तुतः सोमरक्षण से [क] हम प्रभु-प्रवण बनकर प्रभु का स्तवन करनेवाले बनते हैं। [ख] धर्म के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, [ग] अन्ततः प्रभु को प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - सोम का रक्षण ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगे रहने के द्वारा होता है । रक्षित सोम हमें प्रभु की ओर झुकाववाला बनाता है और हमें धर्म के कार्यों में प्रवृत्त करके प्रभु को प्राप्त कराता हैं ।
विषय
जीव का देह में आने का कारण।
भावार्थ
हे (पवमान) पवित्र रूप ! हे देह में आने वाले ! तू (धिया हितः) कर्म वा मानस कामना द्वारा बद्ध होकर (योनिम् अभि कनिक्रदत्) गृहत् देह को प्राप्त होता है। और (धर्मणा) धारण सामर्थ्य से (वायुम् आ विश) प्राण तक में प्रविष्ट है। (२) इसी प्रकार ‘पवमान’ व्यापक प्रभु (धिया) ज्ञान बल से सर्वत्र विद्यमान विश्वों को चलाता है वह धारक प्रयत्न से वायु प्रत्येक गतिमान् पदार्थ तक के भीतर है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दृढ़च्युतः आगस्त्य ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ५, ६ गायत्री। २, ४ निचृद गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of purity and power, let your presence concentrated by senses and mind in awareness, speaking aloud in the heart and soul, abide in the pranic and intelligential vitality of the soul with living consciousness of divine law and virtues of holy life and thus purify and sanctify us.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो की, जे लोक शुद्ध बुद्धीद्वारे परमात्म्याची उपासना करतात. त्यांचे हृदय परमात्मा सदैव शुद्ध करतो. तात्पर्य हे की अपहत पाप्मादि परमात्म्याच्या गुणांना तोच पुरुष धारण करू शकतो जो पुरुष योगसाधन इत्यादीद्वारे संस्कृत केलेल्या बुद्धीबरोबर परमेश्वराचे ध्यान करतो. यामुळेच म्हटले आहे की ‘‘दृश्यते त्वग्रया बुदध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:’’ क. ३।१२ व ‘‘यदा पश्य: पश्यते रुकमवर्णं कर्त्तारमीशं पुरुषं ब्रह्ययोनिम् । तदा विद्वान पुण्यपाप विधूय निरञ्जन: परमं साम्यमुपति’’ मु. ३।१।३. जेव्हा जिज्ञासू पुरुष त्या स्वत: प्रकाश ब्रह्माला आपल्या योगसामर्थ्याने पाहतो तेव्हा पुण्य-पापापासून त्याची सुटका होते. अर्थात ज्या प्रकारे तो परमपुरुष निष्पाप आहे त्याच प्रकारे तो ही निष्पाप बनून त्याच्या सत्य इत्यादी गुणांना धारण करतो. याचेच नाव वैदिक मतामध्ये मुक्ती आहे. त्यासाठी ‘‘ब्रह्मविदाप्नोति परम्’’ व ‘‘अमृतत्वमानशु:’’ इत्यादी उपनिषद वाक्यांमध्ये त्याला अमृत म्हटले आहे. केवळ उपनिषदातच नव्हे तर वेदाच्या पुष्कळ मंत्रांमध्ये अमृत शब्दाने मुक्त पुरुषांचे कथन केलेले आहे जसे की ‘‘कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे’’ ऋग्वेद १।२।२४।१ व ‘‘अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे’’ १।२४।१ इत्यादी मंत्रांनी स्पष्ट आहे की अमृत येथे मुक्त पुुरुषांचे नाव आहे. कारण अमृतानाम् ही निर्धारण षष्ठी आहे व निर्धारण पुष्कळामधूनच केले जाते. यावरून स्पष्ट आहे पुष्कळ शब्दाने येथे मुक्त जीवच असा अर्थ घेता येतो. दुसरा नाही.
टिप्पणी
जे लोक या मंत्रांचे अर्थ पुनर्जन्म करून अमृतचा अर्थ देवता करतात, त्यांच्या मते ही देव मुक्तपुरुषच होऊ शकतात. $ जर असे म्हटले की देव विद्वानांचे नाव आहे तर येथे हे लक्षात ठेवले पाहिजे की, येथे विद्वानांचा कोणताच प्रसंग नाही. प्रसंग मुक्त पुरुषांचाच आहे, यात युक्ती अशी की, पुष्कळशा जीवांनी अमृतभाव प्राप्त व्हावा, तेव्हाच ‘अमृतानाम्’ हे बहुवचन म्हटले जाऊ शकते. जर उत्पत्तिनाश न होण्याच्या अभिप्रायाने येथे अमृत शब्दाचा प्रयोग झाला असता तर ‘‘न मृत्युरासीदमृतं न’’ या मंत्रात मृत्यूच्या तुलनेत अमृतचा प्रयोग झाला नसता. मृत्यूचा प्रतिपक्षी अमृत शब्दाचा प्रयोग ही गोष्ट सिद्ध करते की ज्या पुरुषाने अमृत पदाचा लाभ घेतलेला आहे त्याचे नाव येथे अमृत आहे. दुसऱ्याचे नाही यामुळे स्पष्ट रीतीने मुक्त पुरुषांचे ग्रहण केलेले आढळून येते. $ जे लोक वरील मंत्रांचा हा अर्थ करतात की, वरील दोन्ही मंत्र बद्ध जीवांच्या प्रार्थनेचे वर्णन करतात ते वेदाच्या आशयापासून सर्वस्वी अनभिज्ञ आहेत. कारण बद्ध जीवाची प्रार्थना पुन्हा माता-पिता यांच्या बंधनात पडण्याची कधीही होऊ शकत नाही. कारण या मंत्राच्या शेवटी ‘‘पितरं च दृशेयं मातरं च’’ अर्थात मी पुन्हा माता-पित्याला पाहावे हे कधीच होऊ शकत नाही. कारण माता-पित्याला पाहण्याची तोच इच्छा करतो ज्याने उशिरा संसार चक्राच्या माता-पित्याचा त्याग केलेला आहे. यावरून स्पष्ट सिद्ध होते की येथे मुक्त जीवाची प्रार्थना आहे. बद्ध जीवाची नाही. या विषयात ‘‘सयो वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति’’ $ या प्रमाणावरून हे आढळून येते की ब्रह्मवेत्ता मुक्त पुरुषाचे ही कुल असते. त्याच्या कुळात कोणी अब्रह्मवित् नसतो. य्चा असाही अर्थ करता येईल की या मुक्त पुरुषाचा जन्म ‘अब्रह्मवित्कुले = अब्रह्मविदां कुले न भवति’ अर्थात अब्रह्मवेत्त्यांच्या कुलात होत नाही तर ब्रह्मवेत्त्यांच्याच कुलात होतो. यावरून हे स्पष्ट सिद्ध होते की मुक्त पुरुषाचा जन्म लोकोपकारासाठी होतो. याचेच नाव मुक्तीपासून पुनरावृत्ती आहे. $ एवढेच नव्हे तर ‘‘यंयं लोकं मनसा संविभाति विशुद्धसत्व: कामयते यांश्व कामान् । तं तं लोकं जयते तांश्च कामान्’’ मुक्त पुरुष ज्या ज्या लोकविशेषाची कामना करतो त्याच त्याच लोकात उत्पन्न होतो. याच अभिप्रायाने ‘‘ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले प्रामृतात परिमुच्यन्ति सर्वे’’ या वाक्यात मुक्तीतून पुनरावृत्तीचे कथन केलेले आहे. हे म्हटले जाते की ‘‘त्र्यबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात’’ या मंत्रात अमृत असण्याची प्रार्थना केलेली आहे. यावरून मुक्ती नित्य सिद्ध होते. $ याचे उत्तर हे आहे की जर स्वभावसिद्ध मुक्तीने पुनरावृत्ती होत नसेल तर मुक्त राहण्याची प्रार्थनाच का केली असती. जेव्हा दु:खनिवृत्तीची प्रार्थना केली जाते तेव्हा दु:ख झालेले असते. त्यामुळेच दु:खनिवृत्तीची प्रार्थना केलेली असते. याचप्रकारे मुक्ती पुनरावृत्ती होते त्यामुळेच त्यापासून न सुटण्याची प्रार्थना केली गेलेली आहे. $ दुसरी गोष्ट अशी आहे की ज्या वस्तूची प्रार्थना केली जाते ती संपूर्ण पुरुषाला जशीच्या तशी प्राप्त होईल हे सांगता येत नाही. कारण ज्या मंत्रात ही प्रार्थना आहे की हे ईश्वर! तू आम्हाला सर्व ऐश्वर्य दे. तर जीवाला कधी सर्व ऐश्वर्य प्राप्त होऊ शकते काय? जर असे म्हटले की येथे उपचार आहे अर्थात सर्व ऐश्वर्याचे तात्पर्य पुष्कळ ऐश्वर्याचे आहे ‘‘मृत्योर्मुक्षीय मामृताते्’’ या वाक्यात अधिक काळापर्यंत मुक्तीपासून अविमुक्त होण्याचा अर्थ घेतला जाऊ शकत नाही का? $ अमृतपद वेदात बहुतेक मुक्तीसाठी येते व कुठे कुठे ब्रह्मस्वरूपासाठीही येते. वरील मंत्रात अमृतपद ब्रह्माच्या स्वरूपाचे कथन करते. त्यासाठी कोणता दोष नाही. कारण अमृतपदाच्या निर्णयासाठी विशेष नियम हा आहे की जेथे अमृतपदात एकवचन येते तेथे बहुतेक अमृत शब्द ईश्वराच्या स्वरूपाचा बोधक असतो व जेथे द्विवचन किंवा बहुवचन असते तेथे मुक्त पुरुषांचे ग्रहण होते. या नियमाचा व्यभिचार केवळ ‘‘न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि’’ या वाक्यात आढळून येतो. याचे कारण हे आहे की येथे अमृतपद मृत्यूचे प्रतिद्वंद्वी आहे. यासाठी येथे एकवचन ही मुक्ती म्हणविले जाते. इतरत्र कुठे नाही. सर्व ठिकाणी अमृत शब्द एकवचनात आहे. वेद सर्वत्र ईश्वराच्या स्वरूपाचे कथन करतो. त्यासाठी ‘‘मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्’’ येथे ईश्वराच्या स्वरूपापासून दूर होऊ नये असा अर्थ आहे. ॥२॥
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