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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ए॒ष शु॒ष्म्यदा॑भ्य॒: सोम॑: पुना॒नो अ॑र्षति । दे॒वा॒वीर॑घशंस॒हा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । शु॒ष्मी । अदा॑भ्यः । सोमः॑ । पु॒ना॒नः । अ॒र्ष॒ति॒ । दे॒व॒ऽअ॒वीः । अ॒घ॒शं॒स॒ऽहा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष शुष्म्यदाभ्य: सोम: पुनानो अर्षति । देवावीरघशंसहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः । शुष्मी । अदाभ्यः । सोमः । पुनानः । अर्षति । देवऽअवीः । अघशंसऽहा ॥ ९.२८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (एषः) अयं परमात्मा (शुष्मी) प्रबलः परमात्मा (अदाभ्यः) दम्भरहितः (सोमः) सौम्यस्वभावः (पुनानः) पविता (अर्षति) सर्वं व्याप्नोति (देवावीः) देवरक्षकः (अघशंसहा) दुरात्मनां विनाशयिता चास्ति ॥६॥ इति अष्टाविंशतितमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (एषः) यह (शुष्मी) बलवाला परमात्मा (अदाभ्यः) दम्भ से अप्राप्य है (सोमः) सौम्यस्वभाववाला (पुनानः) पवित्रताकारक (सर्वत्र) व्याप्त हो रहा है (देवावीः) देवताओं का रक्षक तथा (अघशंसहा) अघशंसियों का नाश करनेवाला है ॥६॥

    भावार्थ

    जो लोग स्वयं पापों अथवा पापियों की प्रशंसा करते हैं, उनको परमात्मा कदापि प्राप्त नहीं होता। परमात्मप्राप्ति के लिये सदैव सरल प्रकृति होनी चाहिये। तात्पर्य यह है कि परमात्मप्राप्ति विना दैवी सम्पत्ति के नहीं होती। दैवी सम्पत्ति के गुण ये हैं−तेज, तेजस्वी होना, धृति-दृढ़ता, क्षमा, शौच, अद्रोह, अहिंसा, सत्य, अक्रोध इत्यादि अनेक प्रकार के दैवी सम्पत्ति के गुण हैं और जो लोग आसुरी सम्पत्तिवाले हैं, उनमें निम्नलिखित अवगुण होते हैं−दम्भ दर्प=गर्व, अभिमान, क्रोध, पारुष्य इत्यादि। इस मन्त्र में परमात्मा ‘अदाभ्यः’ पद से इस बात का उपदेश करता है कि दम्भ दर्पादि छोड़कर तुम लोग सन्मार्ग का ग्रहण करो ॥६॥ यह अट्ठाईसवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    शुष्मी अदाभ्यः

    पदार्थ

    [१] (एष:) = यह सोम (शुष्मी) = हमें शत्रु- शोषक बल को प्राप्त कराता है। (अदाभ्यः) = रोगकृमियों व वासनाओं से हिंसित नहीं होता । (सोमः) = यह सोम (पुनानः) = हमें पवित्र करता हुआ (अर्षति) = गति करता है । [२] (देवावी:) = सुरक्षित हुआ हुआ सोम दिव्यगुणों का प्रीणयिता होता है, दिव्य गुणों के द्वारा हमें तृप्त करता है और (अघशंसहा) = बुराई के शंसन करने की वृत्ति का विनाश करता है । हमारा अघों की ओर झुकाव नहीं रहता ।

    भावार्थ

    भावार्थ-सोम हमें 'सबल, नीरोग, पवित्र व दिव्य गुणयुक्त' बनाकर पाप से पराङ्मुख करता है । पुनः नृमेध ऋषि कहता है-

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    विषय

    उसका कर्त्तव्य, दुष्टों का दमन।

    भावार्थ

    (एषः) यह (शुष्मी) बलवान्, (अदाभ्यः) विनष्ट न होने चाला, (सोमः) ऐश्वर्यवान्, सर्वसञ्चालक, (पुनानः) पवित्र करता हुआ, (देवावीः) विद्वान् उत्तम गुणों की रक्षा वा कामना और उन से प्रीति करता हुआ (अघ-शंसहा) पाप कहने वालों को दण्ड देता हुआ (अर्षति) हमें प्राप्त हो। इत्यष्टादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रियमेध ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:–१, ४, ५ गायत्री। २, ३, ६ विराड् गायत्री॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This mighty undauntable Soma, pure and purifying, pervades and rolls in the universe everywhere, protector and promoter of the good and destroyer of sin and scandal.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक स्वत: पापी आहेत किंवा पापी लोकांची प्रशंसा करतात, त्यांना परमात्मा कधीही प्राप्त होत नाही. परमात्मप्राप्तीसाठी सदैव सरळ स्वभावाचे असणे आवश्यक आहेत. तेज, तेजस्वी होणे, धृति-दृढता, क्षमा, शौच, अद्रोह, अहिंसा, सत्य, अक्रोध इत्यादी अनेक प्रकारचे दैवी संपत्तीचे गुण आहेत व जे लोक आसुरी संपत्तियुक्त असतात त्यांच्यात खालील अवगुण असतात. दम्भ, दर्प, गर्व, अभिमान, क्रोध, कठोरता इत्यादी. या मंत्रात परमात्मा अदाभ्य: पदाने हा उपदेश करतो की दम्भ, दर्प इत्यादी सोडून तुम्ही लोक सन्मार्गाचे ग्रहण करा. ॥६॥

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