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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 4
    ऋषिः - रेनुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    स मृ॒ज्यमा॑नो द॒शभि॑: सु॒कर्म॑भि॒: प्र म॑ध्य॒मासु॑ मा॒तृषु॑ प्र॒मे सचा॑ । व्र॒तानि॑ पा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ चारु॑ण उ॒भे नृ॒चक्षा॒ अनु॑ पश्यते॒ विशौ॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । मृ॒ज्यमा॑नः । द॒शऽभिः॑ । सु॒कर्म॑ऽभिः । प्र । म॒ध्य॒मासु॑ । मा॒तृषु॑ । प्र॒ऽमे । सचा॑ । व्र॒तानि॑ । पा॒नः । अ॒मृत॑स्य । चारु॑णः । उ॒भे इति॑ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । अनु॑ । प॒श्य॒ते॒ । विशौ॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मृज्यमानो दशभि: सुकर्मभि: प्र मध्यमासु मातृषु प्रमे सचा । व्रतानि पानो अमृतस्य चारुण उभे नृचक्षा अनु पश्यते विशौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । मृज्यमानः । दशऽभिः । सुकर्मऽभिः । प्र । मध्यमासु । मातृषु । प्रऽमे । सचा । व्रतानि । पानः । अमृतस्य । चारुणः । उभे इति । नृऽचक्षाः । अनु । पश्यते । विशौ ॥ ९.७०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मध्यमासु प्रमातृषु) ज्ञानेन्द्रियेषु (प्रमे) प्रमाणार्थं (सचा) सङ्गतः (सः) असौ परमात्मा (दशभिः कर्मभिः) सूक्ष्मभूतैः पञ्चभिस्तथा पञ्चस्थूलभूतैः (मृज्यमानः) विराड्रूपेणाभिव्यक्तः   सर्वत्र विराजते (व्रतानि पानः) व्रतकर्ता जनः (चारुणोऽमृतस्य) शोभनामृतभावप्रदातृणी (उभे विशौ) ये द्वे ज्ञानकर्मणी ते (नृचक्षाः) सर्वज्ञ एव (अनुपश्यते) अवलोकयति नान्यः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मध्यमासु प्रमातृषु) ज्ञानेन्द्रियों में (प्रमे) प्रमाण के लिये (सचा) संगत (सः) वह परमात्मा (दशभिः कर्मभिः) पाँच सूक्ष्म भूत और पाँच स्थूलभूतों से (मृज्यमानः) विराट् रूप से अभिव्यक्ति को प्राप्त हुआ सर्वत्र विराजमान है। (व्रतानि पानः) व्रतों को धारण करनेवाला मनुष्य (चारुणोऽमृतस्य) सुन्दर अमृतभाव के देनेवाले (उभे विशौ) दोनों ज्ञान और कर्म जो हैं, उनको (नृचक्षाः) सर्वज्ञ पुरुष ही (अनुपश्यते) देखता है, अन्य नहीं ॥४॥

    भावार्थ

    जो पुरुष तपश्चर्यादि कर्मों को करता है, वही पुरुष ज्ञान तथा कर्म के प्रभाव से सर्वत्राभिव्यक्त परमात्मा को ज्ञानदृष्टि से देख सकता है, अन्य नहीं ॥४॥

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    विषय

    मृज्यमानः दशभिः सुकर्मभिः

    पदार्थ

    [१] सोम का रक्षण तभी होता है, जब कि सब की सब इन्द्रियाँ उत्तम कर्मों में ही लगी रहें । (सः) = वह सोम (दशभिः सुकर्मभिः) = [ शोभनं कर्म येषां ] उत्तम कर्मोंवाली दसों इन्द्रियों से (मृज्यमान:) = शुद्ध किया जाता है। यह सोम (सचा) = हमारे अन्दर समवेत होता हुआ, रुधिर में ही व्याप्त होता हुआ, (मध्यमासु) = [मध्ये वासु] हृदयदेश में निवास करनेवाली (मातृषु) = इन वेदरूप माताओं के होने पर (प्रमे) = [प्रमातुम्] वस्तुतत्त्व को जानने के लिये होता है, अर्थात् सोम हमें तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराता है। [२] (अमृतस्य) = शरीर को रोगों का शिकार न होने देनेवाले [न मृतं यस्मात्] (चारुणः) = जीवन को सुन्दर बनानेवाले सोम के व्रतानि व्रतों को, सोमरक्षण के नियमों को (पानः) = रक्षित करता हुआ, उन सब नियमों का पालन करता हुआ (नृचक्षाः) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाला यह व्यक्ति (उभे विशौ) = दोनों प्रजाओं को, भौतिक दृष्टिकोण से बलशाली तथा अध्यात्म दृष्टिकोण से दिव्यगुणोंवाली प्रजाओं को (अनुपश्यते) = अनुकूलता से देखता है । अर्थात् यह अपने जीवन में, गतमन्त्र के अनुसार 'नृम्णा देव्या' बलों व दिव्यगुणों दोनों को प्रेरित करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- इन्द्रियाँ सुकर्मों में लगी रहें तो सोम पवित्र बना रहता है। यह पवित्र सोम हमें तत्त्वज्ञान प्राप्त कराता है । सोमी पुरुष सब मनुष्यों का ध्यान करता है तथा भौतिक व अध्यात्म दोनों जीवनों को सुन्दर बनाता है।

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    विषय

    विद्योपार्जनार्थ गुरुगृह में वास,और प्रभु की आराधना।

    भावार्थ

    (सः) वह विद्वान् पुरुष (दशभिः सुकर्मभिः) दसों धर्म के लक्षण धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध अथवा पांच यम अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और पांच नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान इन दस (सुकर्मभिः) शुभ कर्मों द्वारा (मृज्यमानः) पवित्र, स्वच्छ होता हुआ, (मध्यमासु) मध्यम, बीच की (मातृषु) मातृतुल्य प्रेमयुक्त व्यक्तियों गुरुजनों के बीच (प्र मे) उत्तम ज्ञान प्राप्त करने के लिये (प्र सचा) अच्छी प्रकार स्थिरता से रहे वह (व्रतानि पानः) व्रतों, यम नियमादि पालनीय कर्मों को पालन करता हुआ (नृ-चक्षाः) नेता जनों वा मनुष्यों वा अपने आत्मा को देखता हुआ (विशौ उभे अनु) दोनों उत्तम और निकृष्ट स्थावर जंगम वा मानव तिर्यङ् दोनों प्रजाओं को बीच में (अमृतस्य चारुणः) अमृत, अविनाशी भोक्ता आत्मा का (पश्यते) साक्षात् करता है। अथवा—(चारुः अमृतस्य व्रतानि पानः उभे विशौ अनु पश्यते) वह शासकवत् अमृत, सर्वव्यापक प्रभु के नियमों का पालन करता हुआ दोनों प्रजाओं पर कृपा दृष्टि रखता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    He, blissful and watchful guardian of humanity both pious and impious, exalted by ten efficient senses and pranas and by ten holy observances of Dharma, who is pervasive in the midst of human faculties of perception and volition, awareness and understanding to watch and warn us, thereby strengthening and promoting the holy and immortal dharmic discipline of humanity, He watches at first hand what people do in thought, word and deed.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष तपश्चर्या इत्यादी कर्मांना करतो. तोच पुरुष ज्ञान व कर्माच्या प्रभावाने सर्वत्र अभिष्यक्त परमेश्वराला ज्ञानदृष्टीने पाहू शकतो, इतर नव्हे. ॥४॥

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