ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 76/ मन्त्र 5
वृषे॑व यू॒था परि॒ कोश॑मर्षस्य॒पामु॒पस्थे॑ वृष॒भः कनि॑क्रदत् । स इन्द्रा॑य पवसे मत्स॒रिन्त॑मो॒ यथा॒ जेषा॑म समि॒थे त्वोत॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ऽइव । यू॒था । परि॑ । कोश॑म् । अ॒र्ष॒सि॒ । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । वृ॒ष॒भः । कनि॑क्रदत् । सः । इन्द्रा॑य । प॒व॒से॒ । म॒त्स॒रिन्ऽत॑मः । यथा॑ । जेषा॑म । स॒म्ऽइ॒थे । त्वाऽऊ॑तयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषेव यूथा परि कोशमर्षस्यपामुपस्थे वृषभः कनिक्रदत् । स इन्द्राय पवसे मत्सरिन्तमो यथा जेषाम समिथे त्वोतयः ॥
स्वर रहित पद पाठवृषाऽइव । यूथा । परि । कोशम् । अर्षसि । अपाम् । उपऽस्थे । वृषभः । कनिक्रदत् । सः । इन्द्राय । पवसे । मत्सरिन्ऽतमः । यथा । जेषाम । सम्ऽइथे । त्वाऽऊतयः ॥ ९.७६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 76; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(त्वोतयः) भवता सुरक्षिता वयं (यथा) येन प्रकारेण (समिथे) सङ्ग्रामे (जेषाम) जयेम तथा भवान् करोतु। (सः) सः (मत्सरिन्तमः) आनन्ददायकस्त्वं (इन्द्राय) कर्मयोगिने (पवसे) पवित्रयसि। (वृषा) कामनावर्षकाणां (यूथेव) समूह इव (कोशम्) ऐश्वर्यस्य कोषं (पर्यर्षसि) प्राप्नोषि। यथा (अपामुपस्थे) जलाभिमुखं (वृषभः) मेघमण्डलं (कनिक्रदत्) शब्दं कृत्वा प्राप्नोति तद्वत् ॥५॥ इति षट्सप्ततितमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(त्वोतयः) आपसे सुरक्षित होते हुए (यथा) जैसे (समिथे) संग्राम में (जेषाम) हम जीतें, वैसा आप करें। (सः) वह (मत्सरिन्तमः) आनन्द के प्रदाता आप (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (पवसे) पवित्रता प्रदान करते हैं। आप (वृषा) कामनाओं के (यूथेव) दातृगण के समान (कोशम्) ऐश्वर्य के कोश को (पर्यर्षसि) प्राप्त होते हैं, जिस प्रकार (अपामुपस्थे) जलों के समीप (वृषभः) मेघमण्डल (कनिक्रदत्) गर्ज कर प्राप्त होता है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा हमारे ज्ञान-विज्ञानादि कोशों की रक्षा करनेवाला है और वह उद्योगी और कर्मयोगियों को सदैव पवित्र करता है। यह ७६ वाँ सूक्त और पहिला वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वही जीव के समस्त कोशों को बनाता, स्वयं प्रकाशमय, कृपालु और रक्षक है।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् ! सोम ! (वृषा इव) जिस प्रकार बलवान् पुरुष (यूथा) जन समूहों को प्राप्त कर (कोशम् अर्षति) धन-कोश को प्राप्त करता है उसी प्रकार तू (कोशम्) भीतरी अन्तःकरण वा प्राणमय आदि आनन्दमय कोशों को (परि अर्षसि) सब प्रकार से व्याप ले। तू (अपां उपस्थे) प्राणों, समस्त लोकों के ऊपर भी (वृषभः) बलशाली होकर (कनिक्रदत्) आत्मा के समान उनमें व्याप्त है। (सः) वह तू (मत्सरिन्तमः) अति अधिक तृप्ति, सन्तोष और आनन्ददायक होकर (इन्द्राय) तुझे प्रत्यक्ष देखने वाले के लिये (पवसे) स्वच्छ रूप में प्रकट होता है। (यथा) जिससे हम जीव गण भी (समिथे) संग्रामों में (त्वा-ऊतयः) तेरी रक्षा से रक्षित होकर (जेषाम) विजय लाभ करें। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। २ विराड् जगती। ३, ५ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती॥
विषय
'संग्राम विजेता' सोम
पदार्थ
[१] (वृषा इव) = जैसे एक बैल (यूथा) = गो-समूहों की ओर जाता है, इसी प्रकार हे सोम ! तू (कोशं परिअर्षसि) = अन्नमय आदि कोशों को प्राप्त होता है। वस्तुतः उन सब कोशों को तू ही उस-उस ऐश्वर्य से परिपूर्ण करता है । (अपां उपस्थे) = कर्मों की उपासना में (वृषभ:) = शक्तिशाली यह सोम (कनिक्रदत्) = प्रभु के स्तोत्रों का खूब ही उच्चारण करता है। अर्थात् सोमरक्षक पुरुष प्रभु- स्मरण के साथ सदा कार्यों में प्रवृत्त रहता है, यह क्रियाशीलता उसकी शक्ति को स्थिर रखती है । [२] हे सोम ! (सः) = वह तू (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये पवसे प्राप्त होता है । (मत्सरिन्तमः) = उसके जीवन में अतिशयेन आनन्द का संचार करता है। हे सोम ! तू हमें प्राप्त हो, (यथा) = जिससे कि हम (त्वा उतयः) = तेरे से रक्षित हुए हुए (जेषाम) = विजयी हों। सोम हमें वह शक्ति प्राप्त कराता है, जिससे कि हम सदा विजयी होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमें सदा संग्रामों में विजय प्राप्त कराता है। सब कोशों को यही परिपूर्ण करता है। प्रभु स्मरण के साथ हमें कर्मशील बनाता है, हमारे में आनन्द का संचार करता है । अगले सूक्त में भी 'कवि' ही सोम का स्तवन करता है-
इंग्लिश (1)
Meaning
As a generous chief rules over multitudes so, O Soma, mighty virile spirit of divinity, thundering in the depth of clouds of vapour, you overflow the clouds. Thus, O most joyous and blissful spirit of the universe, you flow for the soul. Pray bless us so that under your natural protections of grace we may win in the struggles of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आमच्या ज्ञान-विज्ञान इत्यादी कोशांचे रक्षण करणारा आहे व तो उद्योगी आणि कर्मयोग्यांना सदैव पवित्र करतो. ॥५॥
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