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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 82/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    प॒र्जन्य॑: पि॒ता म॑हि॒षस्य॑ प॒र्णिनो॒ नाभा॑ पृथि॒व्या गि॒रिषु॒ क्षयं॑ दधे । स्वसा॑र॒ आपो॑ अ॒भि गा उ॒तास॑र॒न्त्सं ग्राव॑भिर्नसते वी॒ते अ॑ध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र्जन्यः॑ । पि॒ता । म॒हि॒षस्य॑ । प॒र्णिनः॑ । नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । गि॒रिषु॑ । क्षय॑म् । द॒धे॒ । स्वसा॑रः । आपः॑ । अ॒भि । गाः । उ॒त । अ॒स॒र॒न् । सम् । ग्राव॑ऽभिः । न॒स॒ते॒ । वी॒ते । अ॒ध्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्जन्य: पिता महिषस्य पर्णिनो नाभा पृथिव्या गिरिषु क्षयं दधे । स्वसार आपो अभि गा उतासरन्त्सं ग्रावभिर्नसते वीते अध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पर्जन्यः । पिता । महिषस्य । पर्णिनः । नाभा । पृथिव्याः । गिरिषु । क्षयम् । दधे । स्वसारः । आपः । अभि । गाः । उत । असरन् । सम् । ग्रावऽभिः । नसते । वीते । अध्वरे ॥ ९.८२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 82; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वीते अध्वरे) पवित्रेषु यज्ञेषु (ग्रावभिः) रक्षया भवान् (नसते) प्राप्तो भवति (उत) अथ च (गाः) पृथिव्यादिलोकलोकान्तरेषु (अभि असरन्) गच्छन् (आपः) सर्वव्यापको भवान् (स्वसारः) स्वयं गतिशीलः सन् विराजमानो भवति। कथं भूतो भवान् (पर्जन्यः) सर्वतर्पकोऽस्ति अथ च (पिता) सर्वरक्षकोऽस्ति। तथा (महिषस्य पर्णिनः) महागतिशीलपदार्थानां नियन्तास्ति अथ च (पृथिव्याः, नाभा) पृथिव्यादिलोकलोकान्तराणां केन्द्रो भूत्वा (गिरिषु) सकलपदार्थेषु (क्षयं दधे) रक्षामुत्पादयति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वीते, अध्वरे) पवित्र यज्ञों में (ग्रावभिः) रक्षा से आप (नसते) प्राप्त होते हैं (उत) और (गाः) पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों में (अभि असरन्) गति करते हुए (आपः) सर्वव्यापक आप (स्वसारः) स्वयं गतिशील होकर विराजमान होते हैं। आप कैसे हैं (पर्जन्यः) सबके तर्पक हैं और (पिता) सबके रक्षक हैं और (महिषस्य, पर्णिनः) बड़े से बड़े गतिशील पदार्थों के नियन्ता हैं और (पृथिव्याः, नाभा) पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के केन्द्र होकर (गिरिषु) सब पदार्थों में (क्षयं, दधे) रक्षा को उत्पन्न करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा इस चराचर ब्रह्माण्ड का उत्पादक है और पर्जन्य के समान सबका तृप्तिकारक है। उसी परमात्मा से सब प्रकार की शान्ति और रक्षा उत्पन्न होती हैं ॥३॥

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    विषय

    शास्य और शासक की स्थिति।

    भावार्थ

    (पर्णिनः महिषस्य पिता पर्जन्यः पृथिव्याः नाभौ गिरिषु क्षयं दधे) जिस प्रकार पत्तों वाले महान् वृक्ष का भी पालक जलवर्षी रसप्रद पिता के तुल्य मेघ जिस प्रकार पृथिवी के आकर्षण शक्ति के बन्धन में रहकर पर्वतों में ही अपना निवास या आश्रय पाता वा पर्वतों में ही जलमय ऐश्वर्य को स्थापित करता है, उसी प्रकार (महिषस्य) महान् (पर्णिनः) पालन, पूरण एवं दूर देशों तक गमन साधनों वाले पुरुष का (पिता) पालक पुरुष पिता तुल्य, (पर्जन्यः) शत्रुओं का उत्तम विजेता, सब को तृप्त, सन्तुष्ट करने वाला पुरुष (पृथिव्याः नाभा) पृथिवी के बीच, नाभि या केन्द्र में और (गिरिषु) पर्वतों वा विद्वानों के आश्रय ही अपने (क्षयं) निवास और ऐश्वर्य को धारण कराता है। [ राजशक्ति का पर्वतों में रहना जैसे शिमला आदि में शासन केन्द्र हैं ]। जब शासक उच्च स्थल में रहे तब (आपः) जल स्वभाव की निम्न स्थल में रहने वाली प्रजाएं (स्वसारः) अपने वेग से जाने वाली जलधाराओं के तुल्य ही (उत गाः अभि असरन्) भूमियों की ओर चली जावें, सम भूमि भागों में प्रजाएं रहे। वह राजा (अध्वरे वीते) शत्रुओं द्वारा नाश न होने वाले बलवान् पुरुष के वीर तेजस्वी हो जाने पर उसके अधीन ही, (ग्रावभिः) शस्त्रयुक्त दृढ़ सैन्यों द्वारा (सं नसते) सम्यक् प्रकार से सन्मार्ग में जाते हैं। (२) ज्ञानवान् महान् पुरुषवर्ग का भी पिता प्रभु पृथिवी, मेघों वा वाग्मी जनों के भीतर अपना ज्ञानैश्वर्य धारण कराता है, सब आत्मा के बल से सरण करने वाले (आपः) लिंगदेह, गम्य भूमियों के गर्भों में आते हैं। वे आहित गर्भ के पूर्ण होने पर उत्पन्न होकर विद्वानों द्वारा पुनः सम्यक् मार्ग में लाये जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती। २ निचृज्जगती। ३ जगती। ५ त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    वानस्पतिक भोजन व सोमरक्षण

    पदार्थ

    [१] इस (महिषस्य) = महान् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गो महिमावाले (पर्णिन:) = पालन व पूरण करनेवाले सोम का (पर्जन्यः) = यह बादल ही पिता पितृ स्थानीय है। बादलों से हुई वृष्टि इसे जन्म देनेवाली ओषधियों, वनस्पतियों को उगाती है। वस्तुतः इन ओषधियों वनस्पतियों के सेवन से उत्पन्न सोम ही शरीर में रक्षणीय है। यह सोम (पृथिव्याः नाभा) = पृथिवी की नाभि में तथा (गिरिषु) = पर्वतों पर (क्षयं दधे) = निवास को धारण करता है। इस पृथिवी के क्षेत्रों में तथा पर्वतों पर उत्पन्न वनस्पतियाँ ही इस सोम को जन्म देती हैं। इन शब्दों से भी उसी बात पर बल दिया गया है कि हम वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करें। इनसे उत्पन्न सोम ही हमारे लिये कल्याण कर होगा । [२] (स्वसार:) = [वनस्पतियों के सेवन से उत्पन्न सोम] हमें आत्मतत्त्व की ओर ले चलते हैं। (उत) = और (आपः) = रेतकण [ आपः रेतो भूत्वा० ] (गाः अभि असरन्) = ज्ञान की वाणियों की ओर गतिवाले होते हैं। यह सोम (वीते अध्वरे) = कान्त यज्ञों के होने पर जीवन में सुन्दर यज्ञात्मक कर्मों के चलने पर (ग्रावभिः संनसते) = स्रोता पुरुषों के साथ संगत होता है। अर्थात् सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि हम यज्ञात्मक कार्यों में लगे रहें, प्रभु स्तवन में प्रवृत्त हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के इच्छुक पुरुष को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिये कि वह वानस्पतिक पदार्थों का ही सेवन करे । सुरक्षित सोमरक्षण उसे ज्ञान प्राप्ति व आत्मतत्त्व की ओर ले चलेंगे। यज्ञों में लगे रहना व प्रभु स्तवन भी सोमरक्षण में साधक होते हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Father and sustainer of all great and small, birds and trees, serious realists and flying dreamers, centre hold of the earth and showers of rain, you abide in the mighty clouds and over the mountains. Your waves and vibrations flow and radiate, flow as sister streams and radiate to the stars and planets, and in holy yajna you vibrate with the music of soma stones and the chant of high priests.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा या चराचर ब्रह्मांडाचा उत्पादक आहे. पर्जन्याप्रमाणे सर्वांचा तृप्तिकारक आहे. त्याच परमात्म्याकडून सर्व प्रकारची शांती मिळते व रक्षण होते. ॥३॥

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