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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 85/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वेनो भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    दि॒वो नाके॒ मधु॑जिह्वा अस॒श्चतो॑ वे॒ना दु॑हन्त्यु॒क्षणं॑ गिरि॒ष्ठाम् । अ॒प्सु द्र॒प्सं वा॑वृधा॒नं स॑मु॒द्र आ सिन्धो॑रू॒र्मा मधु॑मन्तं प॒वित्र॒ आ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । नाके॑ । मधु॑ऽजिह्वाः । अ॒स॒श्चतः॑ । वे॒नाः । दु॒ह॒न्ति॒ । उ॒क्षण॑म् । गि॒रि॒ऽस्थाम् । अ॒प्ऽसु । द्र॒प्सम् । व॒वृ॒धा॒नम् । स॒मु॒द्रे । आ । सिन्धोः॑ । ऊ॒र्मा । मधु॑ऽमन्तम् । प॒वित्रे॑ । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतो वेना दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् । अप्सु द्रप्सं वावृधानं समुद्र आ सिन्धोरूर्मा मधुमन्तं पवित्र आ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । नाके । मधुऽजिह्वाः । असश्चतः । वेनाः । दुहन्ति । उक्षणम् । गिरिऽस्थाम् । अप्ऽसु । द्रप्सम् । ववृधानम् । समुद्रे । आ । सिन्धोः । ऊर्मा । मधुऽमन्तम् । पवित्रे । आ ॥ ९.८५.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 85; मन्त्र » 10
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (गिरिष्ठां) वाण्यादीनां प्रकाशकं (उक्षणं) सर्वोपरि बलस्वरूपं परमेश्वरं (वेनाः) यज्ञीयजनाः (दुहन्ति) पूर्णतया साक्षात्कुर्वन्ति। यो हि याज्ञिको जनः (असश्चतः) कामनास्वसक्तोऽस्ति। (मधुजिह्वाः) मधुरभाषिणः (दिवः, नाके) आध्यात्मिकयज्ञेषु ये स्थिरा आसते (पवित्रे) पूतान्तःकरणे (आ) आप्नुवन्ति। यः परमेश्वरः (मधुमन्तं) आमोदस्वरूपोऽस्ति। अथ च (समुद्रे) अन्तरिक्षे (सिन्धोः, ऊर्मा) वाष्परूपपरमाणूनां (वावृधानं) वर्द्धकोऽस्ति। तथा यः (अप्सु) सर्वरसेषु (द्रप्सं) सर्वोत्कृष्टरसोऽस्ति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (गिरिष्ठां) वाण्यादिकों के प्रकाशक (उक्षणं) सर्वोपरि बलस्वरूप परमात्मा को (वेनाः) याज्ञिक लोग (दुहन्ति) परिपूर्णरूप से साक्षात्कार करते हैं। जो याज्ञिक (असश्चतः) कामनाओं में संसक्त नहीं। (मधुजिह्वा) मधुर बोलनेवाले (दिवो नाके) आध्यात्मिक यज्ञों में जो स्थिर हैं, वे (पवित्रे) पवित्र अन्तःकरण में (आ) सब ओर से प्राप्त होते हैं। जो परमात्मा (मधुमन्तं) आनन्दस्वरूप है और (समुद्रे) अन्तरिक्ष में (सिन्धोरुर्म्मा) वाष्परूप परमाणुओं को (वावृधानं) जो बढ़नेवाला है और (अप्सु द्रप्सं) जो सब रसों में सर्वोपरि रस है ॥१०॥

    भावार्थ

    याज्ञिक लोग जो नित्य मुक्तिसुख की इच्छा करते हैं, वे आनन्दमय परमात्मा का अपने पवित्र अन्तःकरण में ध्यान करते हैं। जिस प्रकार जलादि पदार्थों के सूक्ष्मरूप परमाणु इस विस्तृत नभोमण्डल में व्याप्त हो जाते हैं, इसी प्रकार परमात्मा के अपहतपाप्मादि धर्म्म उनके रोम-रोम में व्याप्त हो जाते हैं। अर्थात् वे सर्वाङ्ग से पवित्र होकर परमात्मा के भावों को ग्रहण करते हैं ॥१०॥

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    विषय

    विद्वानों को प्रभु की प्राप्ति।

    भावार्थ

    (मधु-जिह्वाः) ज्ञानमय मधु को वाणी में धारण करनेवाले (असश्चतः) निःसंग, (वेनाः) मुमुक्षु, तेजस्वी, जन (गिरिष्ठां) वाणी में विद्यमान, (उक्षणं) समस्त संसार को वहन या धारण करने वाले (द्रप्सं) बलवान्, शुक्रमय, (अप्सु ववृधानं) अन्तरिक्षों, जलों, प्राणों, लिङ्गदेहों तक में व्यापक (मधुमन्तं) आनन्दमय, आत्मा प्रभु को (सिन्धोः ऊर्मा) नदी के तरंग के समान उठते हुए आत्मा के आवेश में (पवित्रे) परम पवित्र हृदय में (दिवः नाके) परम प्रकाशमय रूप के एक मात्र सुखमय रूप में और (समुद्रे) सब सुखों के उद्भव करने वाले अनन्त रूप में (आ आ) प्राप्त करते और (दुहन्ति) उससे अनेक सुख प्राप्त करते और अनेक फल पाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेनो भार्गव ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ५, ९, १० विराड् जगती। २, ७ निचृज्जगती। ३ जगती॥ ४, ६ पादनिचृज्जगती। ८ आर्ची स्वराड् जगती। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    मधुजिह्वा असश्वतो वेनाः

    पदार्थ

    [१] (मधुजिह्वाः) = अत्यन्त मधुर वाणीवाले, कभी कड़वा शब्द न बोलनेवाले, (असश्चतः) = स्वयं के विषयों में न फँसनेवाले (वेनाः) = मेधावी पुरुष (दिवः नाके) = प्रकाश के सुखमय लोक के निमित्त प्रकाशमय स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिये, (उक्षणम्) = हमारे अन्दर शक्तियाँ का सेचन करनेवाले, (गिरिष्ठाम्) = ज्ञान की वाणियों में स्थित इस सोम को (दुहन्ति) = अपने में पूरित करते हैं। शरीर में प्रपूरित हुआ हुआ सोम हमें शक्तिशाली बनाता है और ज्ञान की वाणियों में हमें प्रगतिवाला करता है । [२] (अप्सु द्रप्सम्) = कर्मों में आनन्द का अनुभव करनेवाले [दृपी हर्षणे] (वावृधानम्) = खूब वृद्धि के कारणभूत सोम को अपने में पूरित करते हैं । समुद्रे उस आनन्दमय प्रभु की प्राप्ति के निमित्त इस सोम को पूरित करते हैं । (सिन्धोः ऊर्मा आ) [ दुहन्ति ] = समन्तात् अपने में पूरित करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें मीठा बोलनेवाले, विषयों में अनासक्त, मेधावी बनकर सोम का रक्षण करें। यह हमें पूर्णमय ज्ञान प्राप्त करायेगा । हमें क्रियाशील बनाकर प्रभु की प्राप्ति का पात्र करेगा । हमारा जीवन ज्ञानमय व पवित्र बनेगा।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Dedicated celebrants of Soma, sweet of tongue, having risen above material attachments, distil the honey sweet nectar, ecstatic essence of fluent elixir exuberant in the clouds, resounding in the holy Word, abounding in the waves of the seas in the oceans of space. They distil it and enshrine it in their sacred heart, established in the light of heaven.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याज्ञिक लोक नित्य मुक्ती सुखाची इच्छा करतात. आपल्या पवित्र अंत:करणात आनंदमय परमेश्वराचे ध्यान करतात. ज्या प्रकारे जल इत्यादी पदार्थांचे सूक्ष्मरूप परमाणू या विस्तृत नभोमंडलात व्याप्त असतात त्याचप्रकारे परमेश्वराचे अपहत पाप इत्यादी धर्म त्यांच्या रोमारोमात व्याप्त होतात. अर्थात ते सर्वांगाने पवित्र होऊन परमेश्वराचे भाव ग्रहण करतात. ॥१०॥

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