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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1027
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
    8

    वि꣣भ्रा꣢ज꣣न् ज्यो꣡ति꣢षा꣣ स्व꣢३꣱र꣡ग꣢च्छो रोच꣣नं꣢ दि꣣वः꣢ । दे꣣वा꣡स्त꣢ इन्द्र स꣣ख्या꣡य꣢ येमिरे ॥१०२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विभ्रा꣡ज꣢न् । वि꣣ । भ्रा꣡ज꣢꣯न् । ज्यो꣡ति꣢꣯षा । स्वः꣢ । अ꣡ग꣢꣯च्छः । रो꣣चन꣢म् । दि꣣वः꣢ । दे꣣वाः꣢ । ते꣣ । इन्द्र । सख्या꣡य꣢ । स । ख्या꣡य꣢꣯ । ये꣣मिरे ॥१०२७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभ्राजन् ज्योतिषा स्व३रगच्छो रोचनं दिवः । देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे ॥१०२७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विभ्राजन् । वि । भ्राजन् । ज्योतिषा । स्वः । अगच्छः । रोचनम् । दिवः । देवाः । ते । इन्द्र । सख्याय । स । ख्याय । येमिरे ॥१०२७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1027
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    आगे फिर वही विषय कहा गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) महान् महिमावाले जगत्पति ! (ज्योतिषा) तेज से (विभ्राजन्) देदीप्यमान, आप (दिवः) द्युलोक के (रोचनम्) दीप्तिमान् (स्वः) सूर्य में (अगच्छः) पहुँचे हुए हो। (देवाः) विद्वान् लोग (ते) आपकी (सख्याय) मैत्री के लिए (येमिरे) स्वयं को केन्द्रित करते हैं, लालायित रहते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    ज्योतिष्मान् परमेश्वर से ही ज्योति पाकर आग, बिजली, सूर्य, तारे, चाँदी, सोना, हीरे आदि सब चमकते हैं। इसलिए मनुष्यों को भी ज्योति पाने के लिए उसकी मित्रता का आश्रय लेना चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (ज्योतिषा विभ्राजन्) अपने प्रकाश से प्रकाशित हुआ (दिवः-रोचनम्) द्युलोक का रोचन*111 प्रकाशक हुआ (स्वः-आगच्छः) मोक्षधाम को प्राप्त है, वहाँ तेरा ही प्रकाश है*112 (देवाः) मुमुक्षुजन (ते सख्याय येमिरे) तेरी मित्रता के लिए अपने को संयम में ढालते हैं॥३॥

    टिप्पणी

    [*111. ‘रोचनः’ विभक्तिव्यत्ययेन अम्।] [*112. “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति” [मुण्डको॰ २.१०]।]

    विशेष

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    विषय

    प्रभु की मित्रता के लिए

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! आप १. (ज्योतिषा) = ज्ञान-ज्योति से (विभ्राजन्) = दीप्ति करते हुए, २. (स्वः) = मोक्ष-सुख को तथा ३. (दिवः रोचनम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक की दीप्ति को (अगच्छः) = [अगमयः]=प्राप्त कराते हो । प्रभु वेद-ज्ञान की ज्योति को भक्त के पवित्र हृदय में फैलाते हैं। परिणामतः जहाँ उसका मस्तिष्क अज्ञानान्धकार से रहित होकर ज्ञान के प्रकाश से चमक उठता है वहाँ यह ज्ञानी मोक्ष-सुख का लाभ करता है ।

    सर्वैश्वर्यसम्पन्न प्रभो! (देवाः) = देव लोग– दिव्य वृत्तिवाले मनुष्य (ते सख्याय) = तेरी मित्रता के लिए (येमिरे) = अपने जीवनों को संयत बनाते हैं। वे अपने इन्द्रियरूप अश्वों का नियमन करके अपने इस शरीररूप रथ के द्वारा आपके समीप पहुँचने के लिए सदा यत्नशील होते हैं । 

    भावार्थ

    देव प्रभु की मित्रता के लिए संयत जीवनवाले बनते हैं ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हे इन्द्र ! ( ज्योतिषा विभ्राजन् ) = आप अपने ही प्रकाश से सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करते हुए  ( दिवः रोचनम् ) = ऊपर के द्युलोक को भी प्रकाशित कर रहे हैं  ( स्वः अगच्छः ) = और अपने आनन्द स्वरूप को प्राप्त हो रहे हैं  ( देवा: ते सख्याय ) = विद्वान् लोग आपकी मित्रता वा अनुकूलता के लिए  ( येमिरे ) = प्रयत्न करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे इन्द्र परमेश्वर ! आप अपने ही प्रकाश से ऊपर के द्युलोक आदि तथा नीचे के पृथिवी आदि लोकों को प्रकाशित कर रहे हैं। आप आनन्द स्वरूप हैं, आपके परम प्यारे और आपके ही अनन्यभक्त विद्वान् देव, आपके साथ गाढ़ी मित्रता के लिए सदा प्रयत्न करते हैं, आपके मित्र बनकर मृत्यु से भी न डरते हुए, आपके स्वरूपभूत आनन्द को प्राप्त होते हैं । 

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप (दिवः) सूर्य आदि समस्त द्यौलोक के (रोचनं) प्रकाशक, आनन्दमय, सात्विक (ज्योतिषा) ज्योति से (विभ्राजन्) विशेष रूप से देदीप्यमान होकर (स्वः) आनन्दमय मोक्ष में (अगच्छः) व्याप्त हो। (देवाः) सब विद्वान्गण और तेजस्वी पृथिवी आदि लोक भी (ते) तेरी (सख्याय) मित्रता के लिये (येमिरे) प्रयत्न करते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) महामहिम जगत्पते ! (ज्योतिषा) तेजसा (विभ्राजन्) भ्राजमानः। [भ्राजृ दीप्तौ, परस्मैपदं छान्दसम्।] त्वम् (दिवः) द्युलोकस्य (रोचनम्) दीप्तिमत् (स्वः) सूर्यम्। [स्वः आदित्यो भवति। सु-अरणः, सु-ईरणः, स्वृतो रसान्, स्वृतो भासं ज्योतिषां, स्वृतो भासेति वा। निरु० २।१४।] (अगच्छः) प्राप्तोऽसि। [योऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑षः॒ सोऽसाव॒हम्। य० ४०।१७। इति श्रुतेः।] (देवाः) विद्वांसः (ते) तव (सख्याय) सखित्वाय (येमिरे) स्वात्मानं नियच्छन्ति। [यमु उपरमे भ्वादिः, लडर्थे लिट्, आत्मनेपदं छान्दसम्] ॥३॥

    भावार्थः

    ज्योतिष्मतः परमेश्वरादेव ज्योतिर्लब्ध्वा वह्निविद्युत्सूर्यनक्षत्ररजतसुवर्ण- हीरकादिकं सर्वं भासते। अतो मनुष्यैरपि ज्योतिर्लाभाय तस्य सख्यमाश्रयणीयम् ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९८।३, अथ० २०।६२।७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Illuminator of the world with Thy light, the Illuminator of Heaven, the Enjoyer of eternal happiness, the learned strive to win Thy friendly love!

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    Meaning

    Refulgent with your own light you pervade the regions of bliss and beatify the glory of heaven. Indra, the lights and divinities of the world vie and struggle for friendship with you. (Rg. 8-98-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું (ज्योतिषा विभ्राजन्) પોતાના પ્રકાશથી પ્રકાશિત થઈને (दिवः रोचनम्) દ્યુલોકનો રોચન-પ્રકાશક થઈને (स्वः आगच्छ) મોક્ષધામને પ્રાપ્ત છે, ત્યાં તારો જ પ્રકાશ છે (देवाः) મુમુક્ષુજન (ते सख्याय येमिरे) તારી મિત્રતાને માટે પોતાને સંયમમાં ઢાળે છે-જીવનને સંયત બનાવે છે. (૩)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    বিভ্রাজঞ্জ্যোতিষা স্ব৩রগচ্ছো রোচনং দিবঃ।

    দেবাস্তে ইন্দ্র সখ্যায় যেমিরে।।৪৫।।

    (সাম ১০২৭)

    পদার্থঃ (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! (জ্যোতিষা বিভ্রাজৎ) তুমি নিজের জ্যোতির দ্বারা সম্পূর্ণ জগৎকে প্রকাশিত করে (দিবঃ রোচনম্) দ্যুলোককেও প্রকাশ করে থাক  (স্বঃ অগচ্ছঃ) এবং তোমার নিজের আনন্দস্বরূপ প্রাপ্ত করে (দেবাঃ তে সখ্যায়) বিদ্বান ব্যক্তিগণ তোমার সখ্যতা বা অনুকূলতার জন্য  (যেমিরে) চেষ্টা করে থাকেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে ইন্দ্র পরমেশ্বর! তুমি তোমার জ্যোতির দ্বারা সম্পূর্ণ বিশ্বব্রহ্মাণ্ডের প্রকাশ করে থাক। তুমি আনন্দস্বরূপ, তোমার পরম প্রিয় এবং তোমারই অনন্যভক্ত বিদ্বান দেবগণ তোমার সাথে গভীর সখ্যতার জন্য সর্বদা চেষ্টা করে থাকেন। তোমার সখা হয়ে মৃত্যুকেও ভয় না পেয়ে তোমার স্বরূপ আনন্দকে তাঁরা প্রাপ্ত হন ।।৪৫।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्योतिष्मान परमेश्वराकडूनच ज्योती प्राप्त करून आग, विद्युत, सूर्य, तारे, चांदी, सोने, हिरे इत्यादी सर्व चमकतात. त्यासाठी माणसांनीही ज्योती प्राप्त करण्यासाठी त्याच्याशी मैत्री केली पाहिजे. ॥३॥

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