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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1056
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    9

    र꣣यिं꣡ न꣢श्चि꣣त्र꣢म꣣श्वि꣢न꣣मि꣡न्दो꣢ वि꣣श्वा꣢यु꣣मा꣡ भ꣢र । अ꣡था꣢ नो꣣ व꣡स्य꣢सस्कृधि ॥१०५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    र꣣यि꣢म् । नः꣣ । चित्र꣢म् । अ꣣श्वि꣡न꣢म् । इ꣡न्दो꣢꣯ । वि꣣श्वा꣡यु꣢म् । वि꣣श्व꣢ । आ꣣युम् । आ꣢ । भ꣣र । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । व꣡स्य꣢꣯सः । कृ꣣धि ॥१०५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि ॥१०५६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    रयिम् । नः । चित्रम् । अश्विनम् । इन्दो । विश्वायुम् । विश्व । आयुम् । आ । भर । अथ । नः । वस्यसः । कृधि ॥१०५६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1056
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे पुनः परमात्मा और राजा का ही विषय कहा गया है।

    पदार्थ

    हे (इन्दो) चन्द्रमा के समान आह्लाददायक परमैश्वर्यशालिन् जगदीश्वर वा राजन् ! आप (नः) हमारे लिए (चित्रम्) अद्भुत, चित्र-विचित्र (अश्विनम्) शीघ्रगामी, (विश्वायुम्) पूर्ण आयु देनेवाला अथवा सब मनुष्यों का हित करनेवाला (रयिम्) धन (आ भर) प्राप्त कराओ। (अथ) इस प्रकार (नः) हमें (वस्यसः) अतिशय ऐश्वर्यवान् (कृधि) करो ॥१०॥

    भावार्थ

    वही धन वास्तव में धन होता है, जिससे पूर्ण आयु और सब मनुष्यों का हित सिद्ध हो। जो विलास में लिप्त करके आयु को क्षय करनेवाला तथा दीनजनों से द्वेष करनेवाला धन होता है वह धन नहीं, किन्तु मौत होती है ॥१०॥

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    पदार्थ

    (इन्दो) हे आनन्दरसपूर्ण परमात्मन्! तू (नः) हमारे लिए (चित्रम्) अद्भुत चायनीय अपूर्व सर्वोत्तम (अश्विनम्) अचल (विश्वायुं रयिम्)*30 पूर्णायुवाला पोष पुष्टि को (आभर) आभरित कर। शेष पूर्ववत्॥१०॥

    टिप्पणी

    [*30. “रयिं देहि पोषं देहि” [काठ॰ १.७]।]

    विशेष

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    विषय

    ‘चित्र, अश्विन्, विश्वायु' धन

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! आप (नः) = हममें (रयिं आभर) = धन का पोषण कीजिए। कौनसे धन का ? १. (चित्रम्) [चत्+र]=जो धन हममें ज्ञान का पोषण करनेवाला है। सामान्यत: धन को ज्ञान का विरोधी समझा जाता है। हमारा धन ज्ञान के अनुकूल हो, ज्ञान का वर्धन करनेवाला हो । हम धन को ज्ञान के साधन जुटाने में व्यय करनेवाले बनें । २. (अश्विनम्) = ['इन्द्रियाणि हयानाः इस वाक्य के अनुसार अश्व का अर्थ इन्द्रियाँ हैं तथा ‘इन् प्रत्यय' प्रशस्त अर्थ में आया है] जो धन प्रशस्त इन्द्रियोंवाला है, अर्थात् जिस धन को प्राप्त करके हम सात्त्विक भोजनादि साधनों को जुटाकर प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनते हैं। भोगासक्त होकर हम इन्द्रियशक्तियों को जीर्ण नहीं कर लेते । एवं, धन वही ठीक है जोकि हमें भोगासक्त नहीं करता और इस प्रकार अ=परमात्मा की ओर श्वि= गतिवाला करता है और (विश्वायुम्) = अन्त में धन वह चाहिए जो हमें पूर्ण आयु को प्राप्त करानेवाला हो अथवा ‘विश्वम् एति' उस सर्वव्यापक प्रभु को प्राप्त कराए ।

    इस प्रकार ज्ञान को बढ़ानेवाले [विश्वम्], इन्द्रियों को प्रशस्त करनेवाले [अश्विनम्] तथा पूर्ण आयु को प्राप्त करानेवाले अथवा सर्वव्यापक प्रभु तक पहुँचानेवाले [विश्वायुम्] धन को प्राप्त कराकर हे प्रभो ! आप (अथ नः वस्यसः कृधि) -हमारे जीवनों का उत्कृष्ट बना दीजिए ।

    भावार्थ

    हम ऐसा धन प्राप्त करें जो हमें भोगासक्त न करके प्रभु को प्राप्त करानेवाला हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (इन्दो) परमेश्वर ! तू (चित्रं) संग्रह करने योग्य नाना प्रकार के (अश्विनम्) इन्द्रियों को धारण करने हारे (विश्वायुं) समस्त आयु को देने वाले (रयिं) आत्मिक सामर्थ्य, वीर्य को (आ भर) दे। और (अथ नः०) हम श्रेष्ठ उत्तम बना।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ (१) आकृष्टामाषाः (२, ३) सिकतानिवावरी च। २, ११ कश्यपः। ३ मेधातिथिः। ४ हिरण्यस्तूपः। ५ अवत्सारः। ६ जमदग्निः। ७ कुत्सआंगिरसः। ८ वसिष्ठः। ९ त्रिशोकः काण्वः। १० श्यावाश्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ अमहीयुः। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १६ मान्धाता यौवनाश्वः। १५ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १७ असितः काश्यपो देवलो वा। १८ ऋणचयः शाक्तयः। १९ पर्वतनारदौ। २० मनुः सांवरणः। २१ कुत्सः। २२ बन्धुः सुबन्धुः श्रुतवन्धुविंप्रबन्धुश्च गौपायना लौपायना वा। २३ भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। २४ ऋषि रज्ञातः, प्रतीकत्रयं वा॥ देवता—१—६, ११–१३, १७–२१ पवमानः सोमः। ७, २२ अग्निः। १० इन्द्राग्नी। ९, १४, १६, इन्द्रः। १५ सोमः। ८ आदित्यः। २३ विश्वेदेवाः॥ छन्दः—१, ८ जगती। २-६, ८-११, १३, १४,१७ गायत्री। १२, १५, बृहती। १६ महापङ्क्तिः। १८ गायत्री सतोबृहती च। १९ उष्णिक्। २० अनुष्टुप्, २१, २३ त्रिष्टुप्। २२ भुरिग्बृहती। स्वरः—१, ७ निषादः। २-६, ८-११, १३, १४, १७ षड्जः। १-१५, २२ मध्यमः १६ पञ्चमः। १८ षड्जः मध्यमश्च। १९ ऋषभः। २० गान्धारः। २१, २३ धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्मनृपत्योरेव विषयं प्राह।

    पदार्थः

    हे (इन्दो) चन्द्रवदाह्लादक परमैश्वर्यशालिन् जगदीश्वर नृपते वा ! त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (चित्रम्) अद्भुतम्, चित्रविचित्रम्, (अश्विनम्) आशुगामिनम्, (विश्वायुम्) पूर्णायुष्करम् यद्वा विश्वजनहितकरम्। [आयुष् शब्दवदुकारान्तोऽप्यायुर्वाचक आयुशब्दोऽस्ति। ‘आयु’ इति मनुष्यनामसु च पठितम् निघं० २।३।] (रयिम्) धनम् (आ भर) आहर। (अथ) एवम् (नः) अस्मान् (वस्यसः) अतिशयेन वसुमतः (कृधि) कुरु ॥१०॥

    भावार्थः

    तदेव धनं वस्तुतो धनं भवति येन पूर्णमायुर्विश्वेषां मनुष्याणां हितं च साध्यते, यत्तु विलासे संलिप्यायुःक्षयकरं दीनजनविद्वेषकरं च तद्धनं धनं च किन्तु मृत्युरेव ॥१०॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४।१०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, grant us wondrous, sense-controlling, life-prolonging spiritual force. Make us better than we are !

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    Meaning

    Soma, spirit of divine peace and bliss, bring us wealth, honour and excellence of wonderful, progressive and universal character and thus make us eternally happy and prosperous more and ever more. (Rg. 9-4-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्दो) હે આનંદરસપૂર્ણ પરમાત્મન્ ! તું (नः) અમારે માટે (चित्रम्) અદ્ભુત સન્માનીય અપૂર્વ સર્વોત્તમ (अश्विनम्) અચલ (विश्वायुं रयिम्) પૂર્ણ આયુવાળા પોષ-પુષ્ટિને (आभर) આભરિત કરી દે-પૂર્ણ ભરી દે. (अथ) અનન્તર (नः वस्यसः कृधे) અમને શ્રેષ્ઠ કરો-બનાવો. (૧૦)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यामुळे पूर्ण आयुष्य मिळते व सर्व माणसांचे हित सिद्ध होते तेच धन वास्तविक धन असते. जे विलासात लिप्त करून आयु क्षय करणारे व दीनजनांचा द्वेष करणारे धन हे धन नाही तर मृत्यू होय. ॥१०॥

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