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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1615
ऋषिः - अत्रिर्भौमः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
13
वि꣣पश्चि꣢ते꣣ प꣡व꣢मानाय गायत म꣣ही꣡ न धारात्यन्धो꣢꣯ अर्षति । अ꣢हि꣣र्न꣢ जू꣣र्णा꣡मति꣢꣯ सर्पति꣣ त्व꣢च꣣म꣢त्यो꣣ न꣡ क्रीड꣢꣯न्नसर꣣द्वृ꣢षा꣣ ह꣡रिः꣢ ॥१६१५॥
स्वर सहित पद पाठवि꣣पश्चि꣡ते꣢ । वि꣣पः । चि꣡ते꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानाय । गा꣣यत । मही꣢ । न । धा꣡रा꣢꣯ । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣡न्धः꣢꣯ । अ꣣र्षति । अ꣡हिः꣢꣯ । न । जू꣣र्णा꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । स꣣र्पति । त्व꣡च꣢꣯म् । अ꣡त्यः꣢꣯ । न । क्री꣡ड꣢꣯न् । अ꣣सरत् । वृ꣡षा꣢꣯ । ह꣡रिः꣢꣯ ॥१६१५॥
स्वर रहित मन्त्र
विपश्चिते पवमानाय गायत मही न धारात्यन्धो अर्षति । अहिर्न जूर्णामति सर्पति त्वचमत्यो न क्रीडन्नसरद्वृषा हरिः ॥१६१५॥
स्वर रहित पद पाठ
विपश्चिते । विपः । चिते । पवमानाय । गायत । मही । न । धारा । अति । अन्धः । अर्षति । अहिः । न । जूर्णाम् । अति । सर्पति । त्वचम् । अत्यः । न । क्रीडन् । असरत् । वृषा । हरिः ॥१६१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1615
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जीवात्मा का वर्णन है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (विपश्चिते) मेधावान्, (पवमानाय) मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि को पवित्र करनेवाले जीवात्मा के लिए (गायत) गाओ, उसके महत्त्व को वर्णित करो। वह (अन्धः) अन्धेरे को, तमोगुण को (अत्यर्षति) लाँघ जाता है, (मही न धारा) जैसे बड़ी जलधारा मार्ग में आयी हुई शिला आदि की बाधा को लाँघ जाती है। वह जीवात्मा (जूर्णाम्) पुरानी, बूढ़ी (त्वचम्) त्वचा को, त्वचा-युक्त शरीर को (अतिसर्पति) छोड़कर चला जाता है, (अहिः न) जैसे साँप (जूर्णाम्) पुरानी (त्वचम्) केंचुली को (अति सर्पति) छोड़कर चला जाता है। साथ ही (वृषा) बलवान्, (हरिः) शरीर-रथ का वाहक वह जीवात्मा (अत्यः न) रथ में जुड़े घोड़े के समान (क्रीडन्) क्रीड़ा करता हुआ (असरत्) शरीर-रथ को धारण किये हुए चलता है ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
न जाने कब जीव शरीर को छोड़कर चला जाए। इसलिए शीघ्र ही धर्म- कर्मों में मन लगाना चाहिए, नहीं तो पीछे पछतावा होगा ॥२॥
पदार्थ
(विपश्चिते पवमानाय गायत) उपासकजनो! सर्वज्ञ आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा का स्तुतिगान करो (अन्धः-मही न धारा-अति-अर्षति) जो अध्यानीय९ ध्यान में आया हुआ वृष्टिधारा के समान अपनी आनन्दधारारूप में बरसता है (अहिः-न जुर्णां त्वचम्-अति-सर्पति) सर्प जैसे जीर्ण त्वचा को छोड़ देता है ऐसे उपासक की पुरातन वासना को अति सर्पित करता है—निकाल देता है (वृषा हरिः) सुखवर्षक दुःखहर्ता परमात्मा (अत्यः-न क्रीडन्-असरत्) घोड़ा जैसे१० क्रीड़ा करता हुआ अच्छी गति करता हुआ आगे बढ़ता है ऐसे परमात्मा स्वभावतः रमण करता हुआ उपासक के अन्दर प्राप्त होता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
केंचुली का उतार फेंकना
पदार्थ
मन्त्र का ऋषि ‘ अत्रि' कहता है कि १. (विपश्चिते) = ज्ञानी (पवमानाय) = पवित्र करनेवाले प्रभु के लिए गायत=गान करो । उस ज्ञानी प्रभु का गायन व स्मरण हमारे जीवनों में निम्न परिणामों को पैदा करता है—
[क] (मही न धारा) = महनीय धारणशक्ति के समान, अर्थात् धारक प्रवाह के रूप में (अन्धः) = सोम= वीर्य (अति अर्षति) = पूजित गतिवाला होता है [अति पूजायाम्] । ‘वीर्य का अपव्यय-विलास में विनाश' वीर्य की शास्त्रनिषिद्ध गति है, अतः यह उसकी तामस् गति है। सन्तानोत्पादन के लिए इसका प्रयोग राजस् गति है तथा ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाने के लिए इसकी ऊर्ध्वगति ही इसकी सात्त्विक व पूजित गति है । एवं, प्रभु का उपासक ऊर्ध्वरेता बनता है।
[ख] (अहिः न जूर्णां त्वं अतिसर्पति) = साँप जैसे जीर्ण त्वचा [कैंचुली] को उतार फेंकता है, इसी प्रकार यह प्रभुभक्त पिछले अशुभ जीवन को समाप्त कर नवजीवन से चमक उठता है । इसके जीवन में क्रोध का स्थान प्रेम ले-लेता है ।
[ग] (अत्यः न) = निरन्तर गतिशील घोड़े के समान क्रीडन्- इन्द्रियों द्वारा इन्द्रिय विषयों में खेलता हुआ यह प्रभुभक्त असरत् = सदा गतिशील होता है और इसी का परिणाम है कि यह वृषाशक्तिशाली बना रहता है तथा हरिः-सबके दुःखों का हरण करनेवाला होता है। स्वार्थ व लोभ से यह सदा ऊपर उठा होता है ।
काम क्रोध व लोभ से ऊपर उठे होने के कारण यह सचमुच 'अत्रि' होता है।
भावार्थ
हम प्रभु का गायन करें, और अशुभों की बनी इस केंचुली को परे फेंक दें।
विषय
missing
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! (विपश्चिते) ज्ञानशील ब्रह्मज्ञानी, (पवमानाय) मुक्ति के मार्ग में गति करने हारे आत्मा के (गायत) गुण वर्णन करो। वह (अन्धः) देह को प्राण-धारण कराने हारा सोम आत्मा (मही) बड़ी (धारा न) जलधारा के समान (अति अर्षति) अपने तटों रूप देहबंधनों को भी तोड़कर पार चला जाता हैं। (जूर्णाम्) जीर्ण हुई (त्वचम्) त्वचा को (अहिं न) जिस प्रकार सांप छोड़कर चला जाता है उसी प्रकार जो अपने जीर्ण कलेवर को छोड़कर (अतिसर्पति) निकल भागता है और जो (हरिः) हरणशील, गतिशील, (वृषा) बलवान् आत्मा स्वयं (क्रीडन्) देहों में रमण करता हुआ भी (अत्यः न) अश्व के समान (असरद्) एक लोक से दूसरे लोक या दशा में भाग जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवात्मानं वर्णयति।
पदार्थः
हे मानवाः ! यूयम् (विपश्चिते) मेधाविने, (पवमानाय) मनोबुद्धीन्द्रियादीनां पावका जीवात्मने (गायत) तन्महत्त्वं वर्णयत। सः (अन्धः) अन्धकारं, तमोगुणम् (अत्यर्षति) अतिपारयति। कथमिव ? (मही न धारा) महती जलधारा यथा मार्गे समागतां पाषाणादिबाधाम् अत्यर्षति अतिपारयति। स जीवात्मा (जूर्णाम्) जीर्णाम् (त्वचम्) चर्ममयीं तनूम् (अतिसर्पति) परित्यज्य गच्छति। कथमिव ? (अहिः न) सर्पः यथा (जूर्णाम्) जीर्णाम् (त्वचम्) कञ्चुलिकाम् (अतिसर्पति) परित्यज्य गच्छति। किञ्च, (वृषा) बलवान् (हरिः) शरीररथस्य वाहकः स जीवात्मा (अत्यः न) रथे नियुक्तः अश्वः इव (क्रीडन्) क्रीडां कुर्वन् (असरत्) शरीररथं वहन् चलति ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
भावार्थः
न जाने कदा जीवो देहं त्यक्त्वा गच्छेद्, अतः सद्य एव धर्मकर्मसु मनः कार्यं, नोचेत् पश्चात्तापो भविष्यति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O learned persons, sing the praise of the soul that treads the path of salvation and knows God, the embodied soul, like a mighty stream of water cuts asunder the bonds of the body and goes out of it. Just as a serpent casts aside the decayed coil and goes away, so does the active soul playing in bodies, like a horse flies from one region to the other!
Meaning
O people, sing in honour of Soma, omniscient spirit of life, pure and purifier that brings us food, energy, honour and excellence in torrential streams. Knowing that, man, free from want, suffering and small mindedness, goes forward with life happy, youthful, playful as a colt and generous as showers of rain, and at the end of life goes on again, having left this body as a snake casts off its old skin and goes free and youthful again. (Rg. 9-86-44)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विपश्चिते पवमानाय गायत) ઉપાસકજનો ! સર્વજ્ઞ આનંદધારામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્માનું સ્તુતિ ગાન કરો. (अन्धः मही न धारा अति अर्षति) જે અધ્યાનીય-ધ્યાનમાં આવેલ વૃષ્ટિધારાની સમાન પોતાની આનંદધારારૂપમાં વરસે છે. (अहिः न जुर्णां त्वचम् अति सर्पति) જેમ સર્પ પોતાની જુની કાંચળી ઉતારી નાખે છે, તેમ ઉપાસક પણ જુની વાસનાઓને અતિ સર્પિત કરે છે-કાઢી નાખે છે. (वृषा हरिः) સુખવર્ષક અને દુઃખહર્તા પરમાત્મા (अत्यः न क्रीडन् असरत्) જેમ ઘોડો રમત કરતો સારી રીતે ગતિ કરતો આગળ વધે છે, તેમ પરમાત્મા સ્વભાવતઃ રમણ કરતો ઉપાસકની અંદર પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
शरीर सोडून जीव केव्हा जातो हे माहीत नाही त्यासाठी ताबडतोब धर्म-कर्मात मन लावले पाहिजे नाहीतर पश्चात्ताप होईल. ॥२॥
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