साइडबार
यजुर्वेद अध्याय - 12
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
21
22
23
24
25
26
27
28
29
30
31
32
33
34
35
36
37
38
39
40
41
42
43
44
45
46
47
48
49
50
51
52
53
54
55
56
57
58
59
60
61
62
63
64
65
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
मन्त्र चुनें
यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 4
ऋषिः - श्यावाश्व ऋषिः
देवता - गरुत्मान् देवता
छन्दः - भुरिग्धृतिः
स्वरः - ऋषभः
26
सु॒प॒र्णोऽसि ग॒रुत्माँ॑स्त्रि॒वृत्ते॒ शिरो॑ गाय॒त्रं चक्षु॑र्बृहद्रथन्त॒रे प॒क्षौ। स्तोम॑ऽआ॒त्मा छन्दा॒स्यङ्गा॑नि॒ यजू॑षि॒ नाम॑। साम॑ ते त॒नूर्वा॑मदे॒व्यं य॑ज्ञाय॒ज्ञियं॒ पुच्छं॒ धिष्ण्याः॑ श॒फाः। सु॒प॒र्णोऽसि ग॒रुत्मा॒न् दिवं॑ गच्छ॒ स्वः पत॥४॥
स्वर सहित पद पाठसु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। अ॒सि॒। ग॒रुत्मा॑न्। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। ते॒। शिरः॑। गा॒य॒त्रम्। चक्षुः॑। बृ॒ह॒द्र॒थ॒न्त॒रे इति॑ बृहत्ऽरथन्त॒रे। प॒क्षौ। स्तोमः॑। आ॒त्मा। छन्दा॑सि। अङ्गा॑नि। यजू॑षि। नाम॑। साम॑। ते॒। त॒नूः। वा॒म॒दे॒व्यमिति॑ वामऽदे॒व्यम्। य॒ज्ञा॒य॒ज्ञिय॒मिति॑ यज्ञाऽय॒ज्ञिय॑म्। पुच्छ॑म्। धिष्ण्याः॑। श॒फाः। सु॒प॒र्ण इति॑ सुऽप॒र्णः। अ॒सि॒। ग॒रुत्मा॑न्। दिव॑म्। ग॒च्छ॒। स्व॑रिति॒ स्वः᳖। प॒त॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुपर्णासि गरुत्माँस्त्रिवृत्ते शिरो गायत्रञ्चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ । स्तोमऽआत्मा छन्दाँस्यङ्गानि यजूँषि नाम । साम ते तनूर्वामदेव्यँयज्ञायज्ञियम्पुच्छन्धिष्ण्याः शफाः । सुपर्णासि गरुत्मान्दिवङ्गच्छ स्वः पत ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुपर्ण इति सुऽपर्णः। असि। गरुत्मान्। त्रिवृदिति त्रिऽवृत्। ते। शिरः। गायत्रम्। चक्षुः। बृहद्रथन्तरे इति बृहत्ऽरथन्तरे। पक्षौ। स्तोमः। आत्मा। छन्दासि। अङ्गानि। यजूषि। नाम। साम। ते। तनूः। वामदेव्यमिति वामऽदेव्यम्। यज्ञायज्ञियमिति यज्ञाऽयज्ञियम्। पुच्छम्। धिष्ण्याः। शफाः। सुपर्ण इति सुऽपर्णः। असि। गरुत्मान्। दिवम्। गच्छ। स्वरिति स्वः। पत॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यतस्ते तव त्रिवृत् शिरो गायत्रं चक्षुर्बृहद्रथन्तरे पक्षौ स्तोम आत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूंषि नाम यज्ञायज्ञियं वामदेव्यं साम ते तनूश्चास्ति तस्मात् त्व गरुत्मान् सुपर्णोऽसि, यस्य धिषायाः शफा दीर्घं पुच्छमस्ति, तद्वद् यो गरुत्मान् सुपर्णोऽ(स्य)स्ति, स इव त्वं दिवं गच्छ स्वः पत॥४॥
पदार्थः
(सुपर्णः) शोभनानि पर्णानि लक्षणानि यस्य सः (असि) (गरुत्मान्) गुर्वात्मा (त्रिवृत्) त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि वर्त्तन्ते यस्मिन् तत् (ते) तव (शिरः) शृणाति हिनस्ति दुःखानि येन तत् (गायत्रम्) गायत्र्या विहितं विज्ञानम् (चक्षुः) नेत्रमिव (बृहद्रथन्तरे) बृहद्भी रथैस्तरन्ति दुःखानि याभ्यां सामभ्यां ते (पक्षौ) पार्श्वाविव (स्तोमः) स्तोतुमर्ह ऋग्वेदः (आत्मा) स्वरूपम् (छन्दांसि) उष्णिगादीनि (अङ्गानि) श्रोत्रादीनि (यजूंषि) यजुः श्रुतयः (नाम) आख्या (साम) तृतीयो वेदः (ते) तव (तनूः) शरीरम् (वामदेव्यम्) वामदेवेन दृष्टं विज्ञातं विज्ञापितं वा (यज्ञायज्ञियम्) यज्ञाः सङ्गन्तव्या व्यवहारा अयज्ञास्त्यक्तव्याश्च तान् यदर्हति तत् (पुच्छम्) पुच्छमिवान्त्योऽवयवः (धिष्ण्याः) दिधिषति शब्दयन्ति यैस्ते धिषणाः खुरोपरिभागास्तेषु साधवः (शफाः) खुराः (सुपर्णः) शोभनपतनशीलः (असि) अस्ति (गरुत्मान्) गरुतः प्रशस्ता शब्दा विद्यन्ते यस्य सः (दिवम्) दिव्यं विज्ञानम् (गच्छ) प्राप्नुहि (स्वः) सुखम् (पत) गृहाण। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.२.६ व्याख्यातः]॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सुन्दरशाखापत्रपुष्पफलमूला वृक्षाः शोभन्ते, तथा वेदादिशास्त्राऽध्येतारोऽध्यापकाः सुरोचन्ते। यथा पशवः पुच्छाद्यवयवैः स्वकार्याणि साध्नुवन्ति, यथा च पक्षी पक्षाभ्यामाकाशमार्गेण गत्वाऽऽगत्य च मोदते तथा मनुष्या विद्यासुशिक्षाः प्राप्य पुरुषार्थेन सुखान्याप्नुवन्तु॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानो के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जिससे (ते) आपका (त्रिवृत्) तीन कर्म्म, उपासना और ज्ञानों से युक्त (शिरः) दुःखों का जिससे नाश हो (गायत्रम्) गायत्री छन्द से कहे विज्ञानरूप अर्थ (चक्षुः) नेत्र (बृहद्रथन्तरे) बड़े-बड़े रथों के सहाय से दुःखों को छææुडाने वाले (पक्षौ) इधर-उधर के अवयव (स्तोमः) स्तुति के योग्य ऋग्वेद (आत्मा) अपना स्वरूप (छन्दांसि) उष्णिक् आदि छन्द (अङ्गानि) कान आदि (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र (नाम) नाम (यज्ञायज्ञियम्) ग्रहण करने और छोड़ने योग्य व्यवहारों के योग्य (वामदेव्यम्) वामदेव ऋषि ने जाने वा पढ़ाये (साम) तीसरे सामवेद (ते) आपका (तनूः) शरीर है, इससे आप (गरुत्मान्) महात्मा (सुपर्णः) सुन्दर सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त (असि) हैं, जिससे (धिष्ण्याः) शब्द करने के हेतुओं में साधु (शफाः) खुर तथा (पुच्छम्) बड़ी पूंछ के समान अन्त्य का अवयव है, उसके समान जो (गरुत्मान्) प्रशंसित शब्दोच्चारण से युक्त (सुपर्णः) सुन्दर उड़ने वाले (असि) हैं, उस पक्षी के समान आप (दिवम्) सुन्दर विज्ञान को (गच्छ) प्राप्त हूजिये और (स्वः) सुख को (पत) ग्रहण कीजिये॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सुन्दर, शाखा, पत्र, पुष्प, फल और मूलों से युक्त वृक्ष शोभित होते हैं, वैसे ही वेदादि शास्त्रों के पढ़ने और पढ़ाने हारे सुशोभित होते हैं। जैसे पशु पूंछ आदि अवयवों से अपने काम करते और जैसे पक्षी पंखों से आकाश मार्ग से जाते-आते आनन्दित होते हैं, वैसे मनुष्य विद्या और अच्छी शिक्षा को प्राप्त हो पुरुषार्थ के साथ सुखों को प्राप्त हों॥४॥
विषय
सुपर्ण - गरुत्मान्
पदार्थ
१. ( सुपर्णः असि ) = गत मन्त्र का व्यवस्थित क्रियाओंवाला श्यावाश्व [ गतिशील इन्द्रियोंवाला ] उत्तम प्रकार से पालनादि कर्मोंवाला होता है [ पॄ पालनपूरणयोः ] २. ( गरुत्मान् [ गुर्वात्मा ] ) = यह विशाल हृदयवाला होता है। ३. ( त्रिवृत् ) [ त्रीणि यत्र वर्तन्ते ] = ज्ञान, कर्म व उपासना तीनों के समन्वयवाला साम ही ( ते शिरः ) = तेरा मस्तिष्क है। तू ‘ज्ञान, कर्म व उपासना’ को अपने जीवन में प्रधान स्थान देता है। ४. ( गायत्रम् ) = प्राणों की रक्षा ही तेरा ( चक्षुः ) = दृष्टिकोण है, अर्थात् तू कोई ऐसा कर्म नहीं करता जो प्राण व शक्ति का ह्रास करे। ५. ( बृहद्रथन्तरे ) = बृहत् और रथन्तर ( पक्षौ ) = तेरे पक्ष होते हैं। ( बृहत् ) = वृद्धि तथा ( रथन्तर ) = शरीररूप रथ से भवसागर को तैर जाना ही तेरे पंख हैं। इन दो विचारों के परिग्रह से तू निरन्तर ऊपर उठता जाता है। ६. ( स्तोमः आत्मा ) = स्तुति ही तेरा आत्मा है, अर्थात् तेरा मन सदा प्रभु का स्तवन करता है। ७. ( छन्दांसि अङ्गानि ) = छन्द तेरे अङ्ग हैं, अर्थात् इन छन्दों से ही तेरा जीवन बना हुआ है। ये छन्द तुझे सदा पापों व रोगों के आक्रमण से बचाते हैं। ८. ( यजूंषि नाम ) = यज्ञ तेरी कीर्ति है। तू अपने श्रेष्ठतम कर्मों के कारण प्रसिद्ध है। ९. ( वामदेव्यम् ) = सुन्दर दिव्य गुणों को उत्पन्न करने में उत्तम ( साम ) = प्रभु-स्तवन ही ( ते तनूः ) = तेरा शरीर है। निरन्तर प्रभु-स्तवन करता हुआ तू ईश्वर के गुणों को धारण करता है और इस प्रकार तेरे जीवन की शक्तियों का विस्तार होता है। १०. ( यज्ञायज्ञियम् ) = [ यज्ञ, सङ्गतीकरण, अयज्ञ = पृथक्करण ] उत्तम गुणों से मेल, दुर्गुणों का पार्थक्य ही ( पुच्छम् ) = दुर्गुणरूप दंशों का निवारण करनेवाली पूँछ है। ११. ( धिष्ण्याः ) = यज्ञाङ्गिन के स्थान ही ( शफाः ) = शान्ति प्राप्त करानेवाले हैं [ शंफणायन्ति ], अर्थात् निरन्तर यज्ञादि करता हुआ अशान्ति के कारणभूत रोगों को अपने से दूर रखता है। १२. इस प्रकार तू सचमुच ( सुपर्णः असि ) = उत्तमता से अपना रक्षण करनेवाला है और ( गरुत्मान् ) = ऊँचे—महान् लक्ष्यवाला है [ गुरुं भारं उद्यम्य डयते ]। वस्तुतः यह महान् लक्ष्य भी तुझे वासनाओं के आक्रमण से बचाता है। १३. ( दिवम् गच्छ ) = तू प्रकाश को प्राप्त कर। द्युलोक में—ज्योतिर्मय मस्तिष्क में तेरा वास हो। ( स्वः पत ) = तू स्वर्गलोक को प्राप्त कर अथवा उस स्वयं देदीप्यमान ज्योति—प्रभु को प्राप्त कर।
भावार्थ
भावार्थ — ‘श्यावाश्व’ सदा पालनादि उत्तम कर्मों में लगा हुआ विशाल हृदयवाला बनकर ज्योति को प्राप्त करता है और प्रभु के दर्शन कर पाता है।
विषय
श्येन के शन्त से राजा और राष्ट्र के अंग प्रत्यंग का वर्णन ।
भावार्थ
तू ( सुपर्स: ) उत्तम ज्ञानवान्, उत्तम पालन करने के साधनों से सम्पन्न, 'सुपर्ण', और (गमान् ) महान् गम्भीर आत्मा- वाला है । ( त्रिवृत्) कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों से युक्त साधना ( ते शिरः ) शरीर में शिर जिस प्रकार मुख्य है उसी प्रकार तेरा मुख्य व्रत हैं जो ( शिर: ) स्वयं समस्त दुःखों को नाश करता है। अथवा ( त्रिवृत्) तीनों लोक में व्यापक वायु के समान बलशाली पराक्रम, के जलाने, अपने गुणों के अङ्गार अर्चि और धूम के समान शत्रुओं प्रकाशन और सबको भय से कंपाने इन तीन गुणों से युक्त तेज होना हे राजन् ! ( ते शिरः ) तेरा शिर के समान मुख्य स्वरूप है । ( गायत्रं चक्षुः ) गायत्री से प्राप्त वेद ज्ञानतेरी चक्षु है । अथवा गायत्र अर्थात् ब्राह्मण, विद्वान् वेदज्ञ पुरुष और स्वतः गान करनेवाले को विपत्तियों से ज्ञान द्वारा त्राण करने में समर्थ वेद का परमज्ञान ( चक्षुः ) तेरे लिये सब पदार्थों को दर्शाने में समर्थ चक्षु के समान है । ( बृहद् रथन्तरे पक्षौ ) बृहत् और रथन्तर ये दोनों साम जिस प्रकार यज्ञ के पक्ष या बाजू के समान हैं उसी प्रकार यज्ञमय प्रजापति राजा के बृहत् अर्थात् सर्वश्रेष्ठता, सर्वज्येष्ठता अथवा उसका अपना ज्येष्ठ पुत्र युवराज या विशाल क्षात्रबल और 'रथन्तर' अर्थात् यह समस्त पृथिवी निवासी प्रजाजन और या वेदवाणी का ज्ञाता विद्वान्, या सेनापति या सम्राट् ये दोनों तुम राजशक्ति के दो पक्ष अर्थात् बाजू हैं । ( स्तोमः आत्मा ) स्तोम अर्थात् ऋग्वेद तेरी आत्मा अर्थात् अपना स्वरूप या देह के मध्य भाग के समान है । अथवा ( स्तोमः आत्मा ) परम वीर्य ही तुझ प्रजापालक प्रजापति, राजा का आत्मा, स्वरूप है । ( अंगानि छन्दांसि ) नाना छन्द जिस प्रकार यज्ञ के अग्ङ हैं उसी प्रकार प्रजापति रूप राष्ट्र के अन्तर्ग राष्ट्र को विपत्तियों से बचाने वाले एवं प्रजा के आश्रय स्थान होने से वे उसके अङ्ग हैं। (यजूंषि नाम ) यजुर्वेद की श्रुतियां ही उसके स्वरूप के समान हैं । अर्थात् यजुर्वेद में प्रतिपादित राष्ट्र के पालकों के विभाग ही राजा के कीर्त्तिजनक हैं । ( वामदेव्यम् साम ते तनूः ) हे यज्ञ ! तेरा शरीर वामदेव्य नामक साम है । जिस साम को वाम, वननीय एकमात्र उपास्य देव परमेश्वर ने ही सबको दर्शाया है वह साम यज्ञ का स्वरूप है। और राष्ट्रसय प्रजापति का भी ( वामदेव्यं) समस्त प्रजा के पालन करने का सामर्थ्य, सबके सम्भजन या शरण करने योग्य राजा का अपना ( साम ) शान्तिदायक सुखकारी उपाय ही ( ते तनूः ) तेरा विस्तारी राज्य है । ( यज्ञायज्ञियं पुच्छम् ) यज्ञ का यज्ञायज्ञिय नामक साम पुच्छ के समान है । प्रजापति का भी ( यज्ञायज्ञियम् ) पशु और अन्न आदि योग्य समृद्धि और जन समृद्धि राष्ट्र या प्रजापालक राज्य के ( पुच्छम् ) पूच्छ अर्थात् आश्रय- स्थान के समान है । ( धिष्ण्याः शफाः ) यज्ञ में जिस प्रकार धिष्य नामक अनि यज्ञ का आश्रय होने से वे शरीर में शफों या खुरों के समान है । उसी प्रकार राष्ट्रमय प्रजापति रूप यज्ञ के ( धिष्ण्याः ) धारण करने, और मार्गोपदेश करने में कुशल विद्यावान्, वाग्मी या अन्तपाल अधिकारी लोग ( शफाः ) शफ खुर या चरणों के समान आश्रय ह । इस प्रकार हे यज्ञ और राष्ट्रमय प्रजापति तू ( गरुत्मान् ) पक्षवाले ( सुपर्ण: ) विशाल पक्षी के समान ( गरुत्मान् ) महान् शक्तिमान् और ( सुपर्णः) उत्तम पालनकारी साधनों से युक्र ( असि ) है तू ( दिवं ) सुन्दर विज्ञान, प्रकाशमय लोक या राजसभाभवन को ( गच्छ ) प्राप्त हो । ( स्वः पत ) और सुख को प्राप्त कर ॥ शत० ६।७।२ । ६ ॥ १. 'त्रिवृत्' - वायुर्वा आशुः त्रिवृत् । स एष त्रिषु लोकेषु वर्तते । श० ८ । ४ । १ । ९ । त्रिवृद् अग्निः । श० ६ । ३ । १ । २५ ॥ ब्रह्मवै त्रिवृत् । तां० २।१६ । ४ ॥ तेजो वै त्रिवृत् तां० २ । १७ । २ ॥ वज्रो वै त्रिवृत् ष० ३ | ३॥४॥ २. ' गायत्रं ' -- यद् गायन्नत्रायत तद् गायत्रस्य गायनत्वं । जै० उ० । ३ । ३८ । ४ || गायत्री वा इयं पृथिवी । श० ४ । ३ । ४ ।३ ॥ गायत्रो ब्राह्मणः । ऐ० १ । २८ ॥ ब्रह्म वै गायत्री । ऐ० ४ । १ । ३. 'वृहत् '--श्रैष्ठयं वै बृहत् । तां० ८ ।९। ११ । ज्यैष्ठ्यं वै बृहत् । ऐ० ८ १ २ ॥ यथा वै पुत्रो ज्येष्ठः एवं वै बृहत् प्रजापतेः ॥ तां० ७ । ६ । ६ ॥ द्यौर्बृहत् । ता० १६ । १०।८ ॥ क्षत्रं बृहत् । ऐ० ८ । १२ ॥ ४. ' रथन्तरं ' साम-अयं वै लोको रथन्तरम् । ऐ० ८। २ ॥ वाग् वै रथन्तरम् | ऐ० ४ । २८ ॥ रथन्तरं वै सम्राट् । तै० १।४ । ४ ।॥ अग्निर्वै रथन्तरम् । ए० ५। ३० ॥ ५. स्तोमः- वीर्य वै स्तोमाः । ता० २ । ५ । ४ ॥ ६. ( छन्दांसि ) इन्द्रियं वीर्य छन्दांसि । श० ७ । ३ । १ । ३७ ॥ प्राणाः वै छन्दांसि । कौ० ७।९ ॥ छन्दांसि वै देवाः साध्याः । ते अग्ने अग्निमयजन्त । ऐ० १ । १६ ॥ प्रजापतेर्वा एतान्यंगानि यच्छन्दांसि । ऐ० २ । १८ ॥ ७. ' वामदेव्यं साम ' -- पिता वै वामदेव्यं पुत्राः पृष्ठानि ता० ७ । ९ । १ ॥ प्रजापतिर्वै वामदेव्यं । तां० ४ । ८ । १५ ॥श ० १३ । ३ । ३ । ४ ॥ पशवो वै वामदैव्यम् । तां० ४। ८ । १५ ॥ ८. 'यज्ञायज्ञियम्' अतिशयं वै द्विपदां यज्ञायज्ञियम् । तां० ५।१ ।१९॥ वाग् यज्ञायज्ञीयम् । तां० ५ । ३ । ७ ॥ पशवोऽनाथं यज्ञा- यज्ञीयम् । तां० १५ । ६ । १२ ॥ ९. ' धिष्ण्याः 'वाग् वै धिषणा। श० ६ । ५। ४ । ५ || विद्या वै धिषणा । तै० ३ । २ । २ । १ ॥ अन्तो वै धिषणा । ऐ० ५ ॥ २ ॥ [-स्वानः भ्राजः अंधारिः बम्भारिः हस्तः सुहस्तः कृशानुः ] एतानि वै विष्ण्यानां नामानि श ० ३ । ३। ३ । ११ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गरुत्मान् देवता । धृतिः कृतिर्वा । ऋषभः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वृक्ष ज्याप्रमाणे सुंदर फांद्या, पाने, फुले, फळे व मूळ यांनी सुशोभित होतात त्याप्रमाणे वेदादिशास्राचे अध्ययन, अध्यापन करणारे सुशोभित होतात. जसे पशू शेपटी इत्यादी अवयवांनी काम करतात व पक्षी पंखांच्या साह्याने आकाशात आनंदाने विहार करतात तसे माणसांनी विद्या व चांगले शिक्षण प्राप्त करून पुरुषार्थपूर्वक सुख प्राप्त करावे.
विषय
469 पान आलेले नाही
शब्दार्थ
शब्द उत्पन्न करणारे (कठोर व चालतांना खटखट आवाज करणारे) सुंदर खुर आहेत आणि (पुच्छम्) मोठे शेपटीसारखे छोटे-छोटे अवयव (बोटे आदी) त्याप्रमाणे तुम्हांद्वारे (गरुत्यान्) उद्यारित गंभीर शब्द आणि (संपूर्ण:) मोहक गतीने उडणाऱ्या पक्षीप्रमाणे आपण (उंच उंच उडत वा प्रगती करीत) (दिवम्) सुशोभन ज्ञान (गच्छ) प्राप्त करा आणि (स्व:) सुखाचे (पत) ग्रहण करा.
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. (तसेच रुपक वा सांगरुपक अलंकारही आहे) ज्याप्रमाणे वृक्ष सुंदर शाखा, पत्र, पुष्प, फळ आणि मुळ्या या सर्व अवयवांनी सुशोभित होतो, तसेच वेदादीशास्त्रांचे अध्ययन-अध्यापन करणारे विद्वानही सुशोभित वा कीर्तिमंत होतात. जसे पशू शेपुट आदी अवयवांनी आपले आवश्यक कर्म वा व्यवहार पूर्ण करतात आणि जसे पक्षी आपल्या पंखांद्वारे आकाशमार्गाने जातात-येतात व आनंदित होतात, तसेच मनुष्यांनी विद्या आणि चांगले शिक्षण घेऊन पुरुषार्थ करीत सर्व सुख प्राप्त करावेत.॥4॥
टिप्पणी
(टीप : या मंत्रातील आरंभीच्या सुपर्णोऽसि गरुत्यान’ या तीन शब्दांचा हिंदी भाष्यात अर्थ द्यायचा राहून गेला आहे. संस्कृत पदार्थामधे त्याचा अर्थ दिला आहे. त्या आधारे या तीन शब्दांचा संबंध वृक्षाशी आहे. अर्थ असा - हे विद्वान, जसा वृक्ष व (सुवर्णा) सुंदर पत्र, पुष्पादींनी अलंकृत असल्यामुळे (गरुत्मान्) विशेष प्रशंसनीय व मोहक असतो, तसे आपण कर्म, उपासनादीमुळे विशेष मान्य आहात) ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person thou hast action, contemplation and learning for thy head. Gayatri is thy eye. Brihat and Rathantra are thy wings. Rig Veda is thy soul. Metres are thy limbs. The hymns of the yajur Veda are thy name. The vamdevya saman is thy body. The deeds worth doing and shunning are thy tail. The yajnas are thy hooves. Thou art high souled, and master of noble qualities. Acquire knowledge and attain to happiness.
Meaning
Man of knowledge and of the power of knowledge, you are like a celestial bird with beautiful wings and a high-flying soul: threefold virtue of knowledge, action and divine worship is your head and brain by which you ward off the miseries of others. The knowledge of gayatri verses is your eye and vision. Brihad-rathantara sama verses are like your wings, something like a chariot by which you can cross the rivers of misery. Rigveda is your soul. The chhanda verses of the Veda are like the limbs of your body. The verses of Yajurveda are like your name and identity. Samaveda is like your body. The do’s and donts of the Vamadevya Samans are like your back bone. The roll of your voice is like your claws. You are like the divine eagle, Garuda, majestic and magnanimous. You are the sun, master of grandeur. Rise to the heavens. Find the bliss of heaven.
Translation
You are a fine-winged eagle. The trivrt hymn is your head. The gayatri ѕaman is your eye. The brhat and the rathantara sámans are your wings. The stoma (praise hymn) is your self. The Vedic metres are your limbs. The prose of yajuh is your name. The vamadevya sámans are your body. The yajnaáyajniyam ѕаmап is your tail and sacrificial fire-places are your claws. O eagle, you are fine-winged; fly up in the sky and soar up to the world of light. (1)
Notes
According to the ritualists, suparnah garutmün, goodly- winged eagle relates to the fire-altar, which is constructed in the Shape of an outspread eagle. But in other mantras the sun has been described as an eagle. Gayatra, Brhat, Rathantara, Vamadevya, Yajnayajniya are the names of various sdmans.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্বিদ্বদ্গুণা উপদিশ্যন্তে ॥
বিদ্বান্দিগের গুণের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! যদ্দ্বারা (তে) আপনার (ত্রিবৃৎ) তিন প্রকার কর্ম্ম, উপাসনাও জ্ঞানযুক্ত (শিরঃ) দুঃখ সকলের যাহার দ্বারা নাশ হয় (গায়ত্রম্) গায়ত্রী ছন্দ দ্বারা কথিত বিজ্ঞানরূপ অর্থ (চক্ষুঃ) নেত্র (বৃহদ্রথন্তরে) বৃহৎ বৃহৎ রথের সাহায্যে দুঃখ হইতে মুক্তিপ্রদাতা (পক্ষৌ) পার্শ্বাবয়ব (স্তোমঃ) স্তুতিযোগ্য ঋগ্বেদ (আত্মা) স্বীয় স্বরূপ (ছন্দাংসি) উষ্ণিকাদি ছন্দ (অঙ্গানি) কর্ণাদি অঙ্গাদি (য়জূংষি) যজুর্বেদের মন্ত্র (নাম) নাম (য়জ্ঞায়জ্ঞিয়ম্) গ্রহণ করার এবং ত্যাগ করার যোগ্য ব্যবহার্য্য (বামদেব্যম্) বামদেব ঋষি দ্বারা পাঠিত বা জানিত (সাম) তৃতীয় সামবেদ (তে) আপনার (তনূঃ) শরীর, ইহা দ্বারা আপনি (গরুত্মান্) মহাত্মা (সুপর্ণঃ) সুন্দর সম্পূর্ণ লক্ষণযুক্ত (অসি) আছেন । যাহা দ্বারা (ধিষ্ণাঃ) শব্দ করার হেতুতে সাধু (শফাঃ) খুর তথা (পুচ্ছম্) বৃহৎ পুচ্ছের সমান অন্ত্যের অবয়ব তাহার সমান যাহা (গরুত্মান্) প্রশংসিত শব্দোচ্চারণ যুক্ত (সুপর্ণঃ) সুন্দর উদ্ভয়নশীল (অসি) আছে সেই পক্ষীর ন্যায় আপনি (দিবম্) সুন্দর বিজ্ঞান (গচ্ছ) প্রাপ্ত হউন এবং (স্বঃ) সুখকে (পত) গ্রহণ করুন ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন সুন্দর শাখা পত্র, পুষ্প, ফল ও মূলযুক্ত বৃক্ষ শোভিত হয় সেইরূপই বেদাদি শাস্ত্রের পঠন পাঠনকারী সুশোভিত হয় । যেমন পশু পুচ্ছাদি অবয়ব দ্বারা নিজের কাজ করে এবং যেমন পক্ষী পক্ষ দ্বারা আকাশমার্গে বিচরণ করিয়া আনন্দিত হয় সেইরূপ মনুষ্য বিদ্যা ও সুশিক্ষা প্রাপ্ত হইয়া পুরুষার্থ সহ সুখ প্রাপ্ত হউক ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সু॒প॒র্ণো᳖ऽসি গ॒রুত্মাঁ॑স্ত্রি॒বৃত্তে॒ শিরো॑ গায়॒ত্রং চক্ষু॑বৃর্হদ্রথন্ত॒রে প॒ক্ষৌ ।
স্তোম॑ऽআ॒ত্মা ছন্দা॒ᳬंস্যঙ্গা॑নি॒ য়জূ॑ᳬंষি॒ নাম॑ ।
সাম॑ তে ত॒নূর্বা॑মদে॒ব্যং য়॑জ্ঞায়॒জ্ঞিয়ং॒ পুচ্ছং॒ ধিষ্ণ্যাঃ॑ শ॒ফাঃ ।
সু॒প॒র্ণো᳖ऽসি গ॒রুত্মা॒ন্ দিবং॑ গচ্ছ॒ স্বঃ᳖ পত ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সুপর্ণোऽসীত্যস্য শ্যাবাশ্ব ঋষিঃ । গরুত্মান্ দেবতা । ভুরিগ্ধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal