यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 33
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - आयुरादयो देवता
छन्दः - आद्यस्य भुरिक्कृतिः
स्वरः - निषादः
33
आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ऽपा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ व्या॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहो॑दा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ समा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ऽऽत्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ स्वर्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठआयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। अ॒पा॒न इत्य॑पऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। व्या॒न इति॑ विऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। उ॒दा॒न इत्यु॑त्ऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। स॒मा॒न इति॑ सम्ऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। वाग्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। मनः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। आ॒त्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। ब्र॒ह्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। ज्योतिः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑ ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा प्राणो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहापानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा व्यानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहोदानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा समानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा चक्षुर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा श्रोत्रँ यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा वाग्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा मनो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहात्मा यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा ज्योतिर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा स्वर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा पृष्ठँ यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा यज्ञो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
आयुः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। प्राणः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। अपान इत्यपऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। व्यान इति विऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। उदान इत्युत्ऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। समान इति सम्ऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। चक्षुः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। श्रोत्रम्। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। वाग्। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। मनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। आत्मा। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। ब्रह्मा। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। ज्योतिः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। स्वरिति स्वः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। पृष्ठम्। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। यज्ञः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा॥३३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः स्वकीयं सर्वस्वं कस्यानुष्ठानाय समर्प्पणीयमित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! युष्माभिरेवमेषितव्यमस्माकमायुः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां प्राणः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतामपानः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां व्यानः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतामुदानः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां समानः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां चक्षुः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां श्रोत्रं स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां वाक्स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां मनः स्वाहा यज्ञेन साकं कल्पतामात्मा स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां ब्रह्मा स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां ज्योतिः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां स्वः स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां पृष्ठं स्वाहा यज्ञेन सह कल्पतां यज्ञः स्वाहा सह कल्पतामिति॥३३॥
पदार्थः
(आयुः) एति जीवनं येन तत् (यज्ञेन) परमेश्वरस्य विदुषां च सत्करणेन संगतेन कर्मणा विद्यादिदानेन सह (कल्पताम्) समर्प्पयतु (स्वाहा) सत्क्रियया (प्राणः) जीवनमूलो वायुः (यज्ञेन) योगाभ्यासादिना (कल्पताम्) (स्वाहा) (अपानः) अपानयति दुःखं येन सः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (व्यानः) सर्वसंधिषु व्याप्तश्चेष्टानिमित्तः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (उदानः) उदानिति बलयति येन सः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (समानः) समानयति रसं येन सः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (चक्षुः) नेत्रम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (श्रोत्रम्) ज्ञानेन्द्रियाणामुपलक्षणम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (वाक्) कर्मेन्द्रियाणामुपलक्षणम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (मनः) अन्तःकरणम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (आत्मा) जीवः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (ज्योतिः) ज्ञानप्रकाशः (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (स्वः) सुखम् (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (पृष्ठम्) प्रश्नं शिष्टं च (यज्ञेन) (कल्पताम्) (स्वाहा) (यज्ञः) व्यापकः परमेश्वरः। ‘यज्ञो वै विष्णुः’ इति शतपथे (यज्ञेन) परमात्मना (कल्पताम्) (स्वाहा)॥३३॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यावज्जीवनं शरीरं प्राण अन्तःकरणमिन्द्रियाणि सर्वोत्तमा सामग्री च यज्ञाय विधेया येन निष्पापाः कृतकृत्वा भूत्वा परमात्मानं प्राप्येहाऽमुत्र सुखं प्राप्नुयुः॥३३॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को अपना सर्वस्व अर्थात् सब पदार्थसमूह किसके अनुष्ठान के लिये भलीभांति अर्पण करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुम को ऐसी इच्छा करनी चाहिये कि हमारी (आयुः) आयु कि जिससे हम जीते हैं, वह (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) परमेश्वर और विद्वानों के सत्कार से मिले हुए कर्म, विद्या देने आदि के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (प्राणः) जीवाने का मूल मुख्य कारण पवन (स्वाहा) अच्छी क्रिया और (यज्ञेन) योगाभ्यास आदि के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (अपानः) जिससे दुःख को दूर करता है, वह पवन (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) श्रेष्ठ काम के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (व्यानः) सब सन्धियों में व्याप्त अर्थात् शरीर को चलाने कर्म कराने आदि का जो निमित्त है, वह पवन (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) उत्तम काम के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (उदानः) जिससे बली होता है, वह पवन (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) उत्तम कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (समानः) जिससे अङ्ग-अङ्ग में अन्न पहुंचाया जाता है, वह पवन (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (चक्षुः) नेत्र (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (श्रोत्रम्) कान आदि इन्द्रियाँ, जो कि पदार्थों का ज्ञान कराती हैं (स्वाहा) अच्छी क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हों (वाक्) वाणी आदि कर्मेन्द्रियाँ (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) अच्छे काम के साथ (कल्पताम्) समर्पित हों (मनः) मन अर्थात् अन्तःकरण (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (आत्मा) जीव (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (ब्रह्मा) चार वेदों का जानने वाला (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञादि सत्कर्म के साथ (कल्पताम्) समर्थ हो (ज्योतिः) ज्ञान का प्रकाश (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (स्वः) सुख (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (पृष्ठम्) पूछना वा जो बचा हुआ पदार्थ हो वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) यज्ञ के साथ (कल्पताम्) समर्पित हो (यज्ञः) यज्ञ अर्थात् व्यापक परमात्मा (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (यज्ञेन) अपने साथ (कल्पताम्) समर्पित हो॥३३॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जितना अपना जीवन शरीर, प्राण, अन्तःकरण, दशों इन्द्रियाँ और सब से उत्तम सामग्री हो, उसको यज्ञ के लिये समर्पित करें, जिससे पापरहित कृतकृत्य होके परमात्मा को प्राप्त होकर इस जन्म और द्वितीय जन्म में सुख को प्राप्त होवें॥३३॥
विषय
आयु के लिए कामना
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
तो यह दोनो प्रकार के जो प्राणी हैं, मानो देखो, जो निम्न कोटि हैं, उनका जो लोक हैं, वह कृष्ण पक्ष है, और जो ऊर्ध्वा में कोटि के प्राणी हैं, कर्मकाण्डी हैं, जो ऊर्ध्वा में गमन करने वाले उनका शुक्ल पक्ष माना गया है। तो विचारक पुरूष कहते हैं, यह दोनो का मिलान होता है तो मिलान हो करके वह भी मुनिवरों! देखो, एक माह बन करके मनका बन जाता है, और वह मनका ही मुनिवरों! देखो, एक वर्ष की कोटि में क्या यह मनका ब्रह्मण देखो, एक माह में छह माह तो ऐसे होते हैं, जो मुनिवरों! देखो, शुक्ल पक्ष के कहलाते हैं और छह माह ऐसे होते हैं जो कृष्ण पक्ष कहलाते हैं परन्तु जब उन दोनों का मिलान होता है, उनका एक वर्ष बन जाता है। वह वर्ष भी मुनिवरों! देखो, मनका कहलाता है। वह सप्तमं ब्रह्मे लोकां वह मेरे प्यारे! देखो, वह मनका बन करके एक वर्ष का मनका बन करके वह शरद शतं बन जाता है। वह मानो देखो, सौ वर्षों का मुनिवरों! देखो, एक माला बन करके मानो देखो, धारण करता है, वह साधारण कोटि का प्राणी कहलाता है।
मेरे प्यारे! देखो, साधारण कोटि का जो प्राणी है, वह यह प्रार्थना करता है कि मैं शरदं बन जाऊं। शरद शतं मेरे प्यारे! जो ऊर्ध्वा में कोटि के प्राणी होते हैं, वह कहते हैं कि क्या प्रभु! मेरी तो कोई आयु ही नही है, मानो देखो, मैं कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष मानो देखो, एक एक माह को एक एक वर्ष को एक एक शरदं में परणित करता हुआ वह अपने जीवन में मानो देखो, कल्प के आगे मैं भी रहूँ, और कल्प समाप्त हो जाएं उसके पश्चात भी मेरी स्मरण शक्ति बनी रहे, और मैं मानो देखो, शरीरों को पंच महा शरीरों को धारण करता रहूँ। परन्तु मेरे सुविचार बने रहें सु धारणा बनी रहें, तो इस प्रकार मुनिवरों! देखो, अपने में प्रार्थी बना रहता है।
विषय
यज्ञ से भव, ज्ञान, बल आदि की उत्पत्ति ।
भावार्थ
(३३) की व्याख्या देखो क्रम से,अ० १८ मन्त्र २९॥ ( प्राणः, अपानः, व्यान, उदानः, समानः, यज्ञेन कल्पताम्, स्वाहा ) प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान समान पांचों शरीस्थ वायुएं शक्तियै हमारे यज्ञ, परस्पर संगति, योगाभ्यास और साधना से अधिक बलशाली हों ।
टिप्पणी
आन्त्यायाय स्वाहा आन्त्यायनाय स्वाहा भौ०' इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आयुरादयो स्वाहा देवताः । प्रकृतिः । धैवतः ॥
विषय
उत्तम जीवन
पदार्थ
१. (आयुः) = सारा जीवन (यज्ञेन) = यज्ञ से (कल्पताम्) = अलंकृत हो और शक्तिसम्पन्न बने । इसके लिए (स्वाहा) = मैं स्वार्थ की भावना का त्याग करूँ। २. (प्राणो यज्ञेन कल्पताम्) = मेरी प्राणशक्ति यज्ञरूप उत्तम कर्मों से सशक्त बने, (स्वाहा) = इसके लिए मैं स्व का त्याग करूँ। ३. (अपानो यज्ञेन कल्पताम्) = यज्ञ से मेरी अपानशक्ति समर्थ बने। (स्वाहा) = इसके लिए मैं स्वार्थ से ऊपर उठूं । ४. (व्यानो यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरी व्यानवायु यज्ञ के द्वारा सशक्त बने, इसके लिए मैं स्वार्थ को छोड़नेवाला होऊँ। ५. (उदानो यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = कण्ठदेशस्थ अतः उदानवायु यज्ञ से सशक्त बने, अतः मैं स्वार्थ को छोडूं । ६. (समानो यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = शरीर में समता को स्थापित करनेवाली मेरी समानवायु यज्ञ से सशक्त बनें, मैं स्वार्थ का त्याग करूँ। ७. (चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मैं इसलिए स्व का त्याग करूँ कि मेरी आँख यज्ञ से शक्तिशाली बने। ८. (श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरा श्रोत्र यज्ञ के द्वारा शक्तिशाली बने, अतः मैं स्वार्थ को छोड़नेवाला बनूँ। ९. (वाग्यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरी वाणी भी यज्ञ के द्वारा शक्तिशाली बने, इसके लिए मैं स्वार्थ का त्याग करूँ। १०. (मनो यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरा मन यज्ञ से सुभूषित हो व सशक्त बने, अतः मैं स्वार्थ का त्याग करूँ। ११. (आत्मा यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मैं यज्ञ से सुभूषित व सशक्त बनूँ, अतः मैं स्व का त्याग करता हूँ। १२. (ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = चतुर्वेदवेत्ता पुरुष भी यज्ञ से सुभूषित हो, अतः वह स्वार्थ से ऊपर उठे । १३. (ज्योतिः) = आत्मप्रकाश (यज्ञेन) = यज्ञ के द्वारा (कल्पताम्) = सिद्ध हो, (स्वाहा) = इसके लिए हम स्वार्थत्याग करें। १४. (स्वः यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = सुख यज्ञ के द्वारा सिद्ध हो, अतः हम स्वार्थ को छोड़ें। १५. (पृष्ठ यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = 'तेजो ब्रह्मवर्चसं श्रीर्वै पृष्ठानि ' - ए० ६।५ हमारा तेज, ब्रह्मवर्चस व श्री यज्ञ के द्वारा सुभूषित व सशक्त हो, अतः हम स्वार्थ से ऊपर उठें। १६. (यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = 'यज्ञो वै विष्णु: 'वह यज्ञरूप प्रभु यज्ञ से सिद्ध हो, हमें प्राप्त हो, अतः हम स्वार्थ को छोड़कर जीवन को यज्ञिय बनाते हैं। ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:') = देवता यज्ञ परमात्मा की उपासना यज्ञ से ही करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञ के द्वारा हमारा सारा जीवन, सब इन्द्रियशक्तियाँ, मन व बुद्धि सशक्त होते हैं। इसी से हम प्रभु की पूजा भी कर पाते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी आपले जीवन, शरीर, प्राण, अंतःकरण दहा इंद्रिये व सर्वात उत्तम साधने इत्यादींसह सत्कर्माचा यज्ञ करून स्वतःला समर्पित करावे. ज्यामुळे पापरहित बनून व कृतकृत्य होऊन परमेश्वर प्राप्ती होईल आणि या जन्मात व पुढील जन्मात सुख भोग प्राप्त होतील.
विषय
मनुष्यांनी आपले सर्वस्व अर्थात सर्व पदार्थ कोणते अनुष्ठान करून कोणाला समर्पित केले पाहिजे, या विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (हा मंत्र, परमेश्वराचा मनुष्यांना आदेश, वा उपदेशकाचे वचन या रूपात घेतो येतो) हे मनुष्यांनो, तुम्ही अशी इच्छा करा की आमचे (आयुः) आयुष्य, ज्याद्वारे आम्ही जिवंत आहोत, ते आयुष्य (स्वाहा) चांगल्याप्रकारे (यज्ञेन) परमेश्वराच्या आणि विद्वानांच्या सत्संगामुळे मिळालेल्या कर्म, विद्या आदीसाठी (कल्पताम्) समर्पित व्हावे. आमचे (प्राणः) जीवनाचे जे मुख्य कारण वायू, तो (स्वाहा) चांगल्या पद्धतीने आणि (यज्ञेन) योगाभ्यासादीसाठी (कल्पताम्) समर्पित होतो. (अपानः) ज्या वायूमुळे दुःख वा कष्ट दूर होतात, तो अपान वायू (स्वाहा) उत्तम पद्धतीद्वारे (यज्ञेन) श्रेष्ठ कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित होतो. (व्यानः) सर्व संधीस्थानामधे व्याप्त असून सर्व शरीराचे संचालन, कर्म करणे व्यवहारादीचे जे मूळ कारण, तो व्यान वायू (स्वाहा) चांगल्या पद्धतीने (यज्ञेन) उत्तम कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (उदानः) ज्यामुळे शरीर बळ प्राप्त करते, ते उदान पवन (स्वाहा) चांगल्या रीतीने (यज्ञेन) उत्तम कर्मासह (कल्पताम्) समर्पित होवो. (समानः) ज्या वायूमुळे अन्न शरीराच्या प्रत्येक अंगापर्यंत पोहचविले जाते, तो समान नामक वायू (स्वाहा) उत्तम क्रियेने (यज्ञेन) उत्तम कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (चक्षुः) आमचे नेत्र (स्वाहा) उत्तम क्रियेसह (यज्ञेन) सत्कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. आमचे (श्रोत्रः) कान आदी इंद्रिये की ज्या पदार्थांचे ज्ञान करवितात, त्या सर्व इंद्रिये (स्वाहा) चांगल्या पद्धतीने (कल्पताम्) समर्पित व्हावीत. आमची (वाक्) वाणी आदी कर्मेन्द्रियें (स्वाहा) उत्तम क्रियेद्वारे (यज्ञेन) सत्कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित व्हावीत. (मनः) आमचे मन म्हणजे अंतःकरण (स्वाहा) उत्तम क्रियेद्वारे (यज्ञेन) सत्कर्म (वा सद्विधारासाठी) (कल्पताम्) समर्पित व्हावे. (असे आम्ही इच्छितो) आमचा (आत्मा) जीवात्मा (स्वाहा) उत्तम कर्मासह (यज्ञेन) सत्कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (ब्रह्मा) चारही वेदांचा ज्ञाता विद्वान (स्वाहा) उत्तम क्रियेद्वारे (यज्ञेन) सत्कर्मासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (ज्योतिः) ज्ञानाचा प्रकाश (स्वाहा) उत्तम क्रियेद्वारे (यज्ञेन) यज्ञासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (स्वः) सुख (स्वाहा) उत्तम क्रियेद्वारे (यज्ञेन) यज्ञासाठी (कल्पताम्) समर्पित व्हावे. (पृष्ठम्) विचारणे (वा शंकानिरसनादी कार्य) अथवा यज्ञानंतर उरलेला जो पदार्थ तो (स्वाहा) उत्तम क्रियेसह (यज्ञेन) यज्ञासाठी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (यज्ञः) यज्ञ म्हणजे सर्वव्यापी परमात्मा (स्वाहा) उत्तम क्रियेद्वारे (यज्ञेन) स्वतःशी (कल्पताम्) समर्पित होवो. (परमेश्वर सर्वशक्तिमान असून तो कुणासाठी नव्हे, तर स्वतःसाठी समर्पित होऊन जीवांचे व सृष्टीचे धारण, पालनादी कर्में करो) ॥33॥
भावार्थ
missing
इंग्लिश (3)
Meaning
May life be devoted to the service of God, the learned and the spread of knowledge in a noble manner. May breath improve through yoga and physical practices. May downward breath, diffusive breath, upward breath, digestive breath, improve through necessary precautions. May vision, hearing, speech, mi ad, soul, the master of the four Vedas, light of knowledge and happiness, and questionings advance through sacrifice performed in a right way. May God be pleased with us through sacrifice performed in a spirit of devotion.
Meaning
May life grow by yajna and be dedicated, may prana energy grow by yajna and be dedicated, may apana energy grow by yajna and be dedicated, may vyana energy grow by yajna and be dedicated, may udana energy grow by yajna and be dedicated, may the ear and hearing grow by yajna and be dedicated, may the speech and all other senses of volition grow by yajna and be dedicated, may the mind grow by yajna and yoga and be dedicated, may the soul grow by yajna and yoga and be dedicated to the lord of life and existence, may the knowledge of Veda and the man of knowledge grow by yajna and meditation and be dedicated, may the light of knowledge and the spirit grow by yajna and be dedicated to divine service, may the heavenly joy of the soul grow by yajna and be dedicated to the Divine, may the ultimate question and desire of the soul be answered and fulfilled by yajna and divine grace and be surrendered to the Divine. May the yajna of life and age grow to completion by constant yajna and meditation and terminate in the interminable and infinite divine super-existence, which is the last oblation of existential yajna.
Translation
May the longevity be secured through sacrifice. Svaha. (1) May the vital breath be secured through sacrifice. Svaha, (2) May the downward breath be secured through sacrifice. Svaha. (3) May the diffused breath be secured through sacrifice. Svaha. (4) May the upbreath be secured through sacrifice. Svaha. (5) May the digestive breath be secured through sacrifice. Svaha. (6) May the vision be secured through sacrifice. Svaha. (7) May the hearing power be secured through sacrifice. Svaha. (8) May the speech be secured through sacrifice. Svaha. (9) May the mind be secured through sacrifice. Svaha. (10) May the self be secured through sacrifice. Svaha. (11) May the knowledge of the Supreme be secured through sacrifice. Svaha. (12) May the light be secured through sacrifice. Svaha. (13) May the bliss be secured through sacrifice. Svaha. (14) May whatever is left be secured through sacrifice. Svaha. (15) May the sacrifice itself be secured through sacrifice. Svaha. (16)
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈঃ স্বকীয়ং সর্বস্বং কস্যানুষ্ঠানায় সমর্প্পণীয়মিত্যাহ ॥
মনুষ্যকে নিজের সর্বস্ব অর্থাৎ সব পদার্থ সমূহ কাহার অনুষ্ঠানের জন্য ভালমত অর্পণ করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদেরকে এমন ইচ্ছা করা উচিত যে, আমাদের (আয়ুঃ) আয়ু যদ্দ্বারা আমরা বাঁচিয়া আছি সেই (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) পরমেশ্বর ও বিদ্বান্দিগের সৎকার দ্বারা পাওয়া কর্ম বিদ্যাদি দেওয়া সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (প্রাণঃ) জীবনের মূল মুখ্য কারণ পবন (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া এবং (য়জ্ঞেন) যোগাভ্যাসাদি সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (অপানঃ) যদ্দ্বারা দুঃখকে দূর করে সেই পবন (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) শ্রেষ্ঠ কর্ম্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (ব্যানঃ) সকল সন্ধিগুলিতে ব্যাপ্ত অর্থাৎ শরীরকে চালাইবার, কর্ম্ম করাইবার ইত্যাদির যে নিমিত্ত সেই পবন (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) উত্তম কর্ম্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (উদানঃ) যদ্দ্বারা বলবান হয় সেই পবন (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) উত্তম কর্ম্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (সমানঃ) যদ্দ্বারা প্রতি অঙ্গে অন্ন পৌঁছান হইয়া থাকে সেই পবন (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) যজ্ঞ সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (চক্ষুঃ) নেত্র (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) সৎকর্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (শ্রোত্রম্) কর্ণাদি ইন্দ্রিয়গুলি যাহারা পদার্থের জ্ঞান করায় (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) সৎকর্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (বাক্) বাণী আদি কর্ম্মেন্দ্রিয় সকল (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) উত্তম কর্ম্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (মনঃ) মন অর্থাৎ অন্তঃকরণ (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) সৎকর্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক । (আত্মা) জীব (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) সৎকর্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (ব্রহ্মা) চারি বেদের জ্ঞাতা (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) যজ্ঞাদি সৎকর্ম সহ (কল্পতাম্) সমর্থ হউক (জ্যোতিঃ) জ্ঞানের প্রকাশ (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) যজ্ঞ সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (স্বঃ) সুখ (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) যজ্ঞ সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (পৃষ্ঠম্) জিজ্ঞাসা করা অথবা যাহা অবশিষ্ট পদার্থ হয়, সেই (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) যজ্ঞ সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক (য়জ্ঞঃ) যজ্ঞ অর্থাৎ ব্যাপক পরমাত্মা (স্বাহা) উত্তম ক্রিয়া দ্বারা (য়জ্ঞেন) নিজের সহ (কল্পতাম্) সমর্পিত হউক ॥ ৩৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যত নিজের জীবন, শরীর, প্রাণ, অন্তঃকরণ, দশ ইন্দ্রিয় এবং সর্বাপেক্ষা উত্তম সামগ্রী হয় তাহাকে যজ্ঞের জন্য সমর্পিত করিবে যাহাতে পাপরহিত কৃতকৃত্য হইয়া পরমাত্মাকে প্রাপ্ত হইয়া এই জন্ম এবং পরবর্ত্তী জন্মে সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৩৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
আয়ু॑র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ প্রা॒ণো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ऽপা॒নো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ ব্যা॒নো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহো॑দা॒নো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ সমা॒নো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ চক্ষু॑র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ শ্রোত্রং॑ য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ বাগ্য॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ মনো॑ য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ऽऽত্মা য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ ব্র॒হ্মা য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ জ্যোতি॑র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॒ স্ব᳖র্য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ পৃ॒ষ্ঠং য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ য়॒জ্ঞো য়॒জ্ঞেন॑ কল্পতা॒ᳬं স্বাহা॑ ॥ ৩৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
আয়ুর্য়জ্ঞেনেত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । আয়ুরাদয়ো দেবতাঃ । আদ্যস্য ভুরিক্কৃতিশ্ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । বাগ্যজ্ঞেনেত্যুত্তরস্য ভুরিগতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
[यज्ञो वौ विष्णुः ?, यज्ञो वै ब्रह्म ? इत्याद्यैतरेय-शतपथ ब्राह्मणश्रुतेः] यज्ञ-यजनीय जुन सबै मानिस हरु को पूज्य ईष्टदेव परमेश्वर हो, तेसको लागी अति श्रद्धाले यथावत् सर्वस्व समर्पण गरून् । यही यस मंत्र मा उपदेश र प्रार्थना छ। आर्युयज्ञेन कल्पनां.... . रथन्तरञ्च= हे सर्वशक्तिमन् ईश्वर !तपाईंको जुन यो आज्ञा छ कि सबैजना ले मेरा लागी सबै पदार्थ अर्पण गरुन् एस कारण हामीहरु आयु वा उमेर, प्राण,चक्षु, अर्थात्-आँखा, कान, वाणी, मन, आत्मा अर्थात् जीव, ब्रह्म = वेदविद्या, ज्योति [ सूर्यादि लोक तथा अग्न्यादि पदार्थ] तथा स्वर्ग=सुख साधन, पृष्ठ = पृथिव्यादि सबै लोक आधार तथा पुरुषार्थ, यज्ञ = हामीहरु जुन-जुन राम्रो काम गर्द छौं स्तोम = स्तुति, यजुर्वेद, ऋग्वेद, सामदेव च कारबाट अथर्ववेद, बृहद्रथन्तर, महारथन्तर साम इत्यादि सबै पदार्थ तपाईं लाई समर्पण गर्दछौं । हामीहरु त केवल तपाई कै शरण मा छौं । हाम्रा लागि तपाईंको जस्तो इच्छा हुन्छ त्यस्तै गर्नु होस् । परन्तु हामी तपाईं कै सन्तान हौं । तपाईं का कृपा ले स्वरगन्म= उत्तम सुखमा प्राप्त हौं । बाचुन्जेल सदा चक्रवर्ती राज्यादि भोग बाट सुखी रहौं र मरणान्तर पनि हाँमी सुखी नै रहौं । हे महादेवामृत ! हामी देव [परम विद्वान् ] होऔं र अमृत= मोक्ष जुन । तपाईं को प्राप्ति हो । तेस लाई प्राप्त गरेर सदैव जन्ममरण रहित अमृतस्वरूप मा रहौं । वेट् स्वाहा हजुर का आज्ञा को पालन र जसबाट तपाईंको प्राप्ति हुन्छ, तेसक्रिया मा सदा तत्पर रहौं । तथा अर्न्तयामी तपाईंले हृदय मा जो आज्ञा गर्नु हुन्छ तेसतै हाम्रो हृदय मा ज्ञान होस्, तेस्तै भाषण गरौं, एसका विपरीत कहिल्यै नगरौं । हे कृपा निधे ! हाम्रो योगक्षेम् [सम्पूर्ण निर्वाह ] सदा तपाईं नै गर्नु होला । हजुर को सहयोग ले हामीलाई सर्वत्र विजय र सुख मिलोस् ॥१३॥
टिप्पणी
१. शतः १॥१॥२॥१३॥
२. ब्रह्म वै यज्ञः । ऐ. ब्रा० ८॥२२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal