यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 41
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
30
उ॒रु वि॑ष्णो॒ विक्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि। घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर॒ स्वाहा॑॥४१॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। वि। क्र॒म॒स्व॒। उ॒रु। क्षया॑य। नः॒। कृ॒धि॒। घृ॒तम्। घृ॒त॒यो॒न॒ इति॑ घृतऽयोने। पि॒ब॒। प्रप्रेति॒ प्रऽप्र॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। ति॒र॒। स्वाहा॑ ॥४१॥
स्वर रहित मन्त्र
उरु विष्णो विक्रमस्वोरु क्षयाय नस्कृधि । घृतङ्घृतयोने पिब प्रप्र यज्ञपतिन्तिर स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
उरु। विष्णोऽइति विष्णो। वि। क्रमस्व। उरु। क्षयाय। नः। कृधि। घृतम्। घृतयोन इति घृतऽयोने। पिब। प्रप्रेति प्रऽप्र। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। तिर। स्वाहा॥४१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विष्णो! त्वं उरु क्षयाय विक्रमस्व नोऽस्मान् सुखिनः कृधि। हे घृतयोने! यथा विद्युत् तथा घृतं पिब, यथाऽहं यज्ञपतिं संतरामि तथा स्वाहानुतिष्ठन् प्रप्रतिर॥४१॥
पदार्थः
(उरु) बहु (विष्णो) यथा व्यापनशीलो वायुर्विक्रमते तथा तत्संबुद्धौ (विक्रमस्व) पादैः विद्याङ्गैः सम्पद्यस्व (उरु) विस्तीर्णे (क्षयाय) विज्ञानोन्नतये (नः) अस्मान् (कृधि) कुर्य्याः (घृतम्) उदकम् (घृतयोने) यथा जलनिमित्ता विद्युद्वर्त्तते तथा तत्सम्बुद्धौ (पिब) (प्रप्र) प्रकृष्टमिव (यज्ञपतिम्) यथाऽहं यज्ञपतिं तथा त्वम् (तिर) दुःखं प्लवस्व (स्वाहा) सुहुतं हविः। अयं मन्त्रः (शत॰३। ६। ४। २-३) व्याख्यातः॥४१॥
भावार्थः
अत्र वाचलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पवनः सर्वान् सुखयन् सर्वाधिष्ठानोऽस्ति, तथैव विदुषा सम्पत्तव्यम्॥४१॥
विषयः
पुनस्तौ कथं वर्त्तेयातामित्युपदिश्यते।।
सपदार्थान्वयः
हे विष्णो! यथा व्यापनशीलो वायुर्विक्रमते तथा तत्सम्बुद्धौ त्वं उरु बहु क्षयाय विज्ञानोन्नतये विक्रमस्व पादैः विद्याङ्गैः सम्पद्यस्व नः=अस्मान् सुखिनः [उरु]=विस्तीर्ण कृधि कुर्य्याः। हे घृतयोने! = यथा विद्युत् तथा, यथा जलनिमित्ता विद्युत् वर्तते तथा, तत्सम्बुद्धौ घृतम् उदकं पिब, यथाऽहं यज्ञपतिं सन्तरामि तथा स्वाहा सुहुतं हवि: अनुतिष्ठन् प्रप्रतिर दुःखं प्रकृष्टमिन प्लवस्व ।। ५ । ४१ ।। [हे विष्णो! त्वं उरु क्षयाय विक्रमस्व, नः=अस्मान् सुखिन: कृधि]
पदार्थः
(उरु) बहु (विष्णो) यथा व्यापनशीलो वायुर्विक्रमते तथा तत्सबुद्धौ (विक्रमस्व) पादैः विद्याङ्गैः संपद्यस्व (उरु) विस्तीर्णे (क्षयाय) विज्ञानोन्नतये (नः) अस्मान् (कृधि) कुर्य्या: (घृतम्) उदकम् (घृतयोने) यथाजलनिमित्ता विद्युद्वर्त्तते तथा तत्संबुद्धौ(पिब) (प्रप्र) प्रकृष्टमिव (यज्ञपतिम्) यथाऽहं यज्ञपतिं तथा त्वम् (तिर) दुःखं प्लवस्व (स्वाहा) सुहुतं हविः।।अयं मन्त्रः शत० ३ । ६।४ । २-३ व्याख्यातः ॥ ४१ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ यथा पवनः सर्वान् सुखयन् सर्वाधिष्ठानमस्ति तथैव विदुषा सम्पत्तव्यम् ।। ५ । ४१ ।।
विशेषः
अगस्त्यः। विष्णुः=विद्वान्॥भुरिगार्ष्यनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
जैसे सब पदार्थों में व्याप्त होने वाला पवन चलता है, वैसे हे विद्या गुणों में व्याप्त होने वाले विद्वन्! (उरु) अत्यन्त विस्तारयुक्त (क्षयाय) विद्योन्नति के लिये (विक्रमस्व) अपनी विद्या के अङ्गों से परिपूर्ण हो और (नः) हम लोगों को सुखी (कृधि) कर। जैसे जल का निमित्त बिजुली है, वैसे हे पदार्थ ग्रहण करने वाले विद्वन्! बिजुली के समान (घृतम्) जल (पिब) पी और जैसे मैं यज्ञपति को दुःख से पार करता हूं, वैसे तू भी (स्वाहा) अच्छे प्रकार हवन आदि कर्म्मों को सेवन करके (प्रप्रतिर) दुःखों से अच्छे प्रकार पार हो॥४१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन सब को सुख देता हुआ सब के रहने का स्थान हो रहा है, वैसे ही विद्वान् को होना चाहिये॥४१॥
विषय
‘त्रिविक्रम बनना’ = तीन मुख्य व्रतों का धारण करना
पदार्थ
गत मन्त्र में ‘मैं व्रतपा बन सकूँ’ इस प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि १. हे ( विष्णो ) = व्यापक उन्नति करनेवाले जीव! ( उरु विक्रमस्व ) = खूब पुरुषार्थ कर। ( नः क्षयाय ) = हमारे निवास के लिए ( उरु कृधि ) = अपने हृदयान्तरिक्ष को विशाल बना। तेरे विशाल हृदय में ही पवित्रता के कारण मेरा निवास होगा।
२. हे ( घृतयोने ) = क्षरण या दीप्तिरूप योनिवाले जीव! ( घृतं पिब ) = तू घृत का पान कर। तेरे शरीर का स्वास्थ्य मलों के ठीक क्षरण पर निर्भर करता है और तेरे मस्तिष्क के विकास के लिए ज्ञान की दीप्ति का महत्त्व है।
३. इस प्रकार [ क ] तू हृदय को विशाल बनाता है, [ ख ] शरीर को निर्मल व स्वस्थ और [ ग ] मस्तिष्क को ज्ञान से दीप्त। यह त्रिविध उन्नति करके तू तीन कदमों का रखनेवाला ‘त्रिविक्रम’ बनता है।
४. त्रिविक्रम बनकर तू ( यज्ञपतिम् ) = सब यज्ञों के रक्षक उस प्रभु को ( प्रप्रतिर ) = अपने में खूब बढ़ा। ( स्वाहा ) = इस यज्ञपति को अपने में बढ़ाने के लिए तुझे ‘स्व’ का हा = त्याग करना है। वस्तुतः स्वार्थ की आहुति दे डालना ही यज्ञपति का वर्धन करना है।
भावार्थ
भावार्थ — हम हृदयों को विशाल बनाएँ। शरीर को निर्मल, नीरोग तथा मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त। इस प्रकार विष्णु बनकर, व्यापक उन्नति करके उस विष्णु के सच्चे उपासक बनें। ये तीन ही हमारे मुख्य व्रत हैं।
विषय
गुरु शिष्य और राजा और प्रजा के परस्पर व्रत पालन की प्रतिज्ञा ।
भावार्थ
हे ( विष्णो ) विद्या आदि गुणों में व्यापक ! अथवा शत्रु के गढ़ों में और पूर्ण राष्ट्र में प्रवेश करने में चतुर ! सेनापते ! तू ( उरु विक्रमस्व ) खूब अधिक विक्रम पराक्रम कर। ( नः ) हमारे ( क्षयाय ) निवास के लिये ( उरु ) बहुत अधिक ऐश्वर्य एवं विशाल राष्ट्र का ( कृधि ) उत्पन्न कर । ( घृतयोने) घृत से जिस प्रकार अग्नि बढ़ता है उसी प्रकार घृत अर्थात् दीप्ति और तेज के आश्रय भूत राजन् ! तू भी खूब ( घृतं पिब ) अग्नि के समान घृत=तेज, पराक्रम का पान कर, उसको प्राप्त कर । और ( यज्ञपतिम् ) जिस प्रकार विद्वान् जन यज्ञपति, यजमान को पार कर देते हैं उसको तार देते हैं, उसी प्रकार तू भी ( यज्ञपतिम् ) यज्ञरूप सुव्यवस्थित, सुसंगत राष्ट्र के पालक राजा को ( स्वाहा ) अपनी उत्तम वीर्याहुति से ( प्र प्र तिर ) भली प्रकार विजय कार्य के पार कर दे ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिःऋषिः।विष्णुर्देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
फिर विद्वान् तथा अन्य मनुष्य कैसे वर्त्तें, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे (विष्णो) व्यापक वायु के समान विक्रमशाली विद्वान् ! आप (उरु) अत्यन्त (क्षयाय) विज्ञान की उन्नति के लिये (विक्रमस्व) अपनी विद्या के अङ्गों से सम्पन्न बनो और (नः) हमें [उरु] अत्यन्त सुखी (कृधि) करो। और-- हे (घृतयोने) घृत अर्थात् जल निमित्तक विद्युत् के समान जल का पान करने वाले विद्वान्! आप (घृतम्) जल का (पिब) पान करो, औरजैसे मैं (यज्ञपतिम्) यजमान को दुःख से पार करता हूँ वैसे (स्वाहा) अच्छे प्रकार होमकर्म का अनुष्ठान करके (प्रप्रतिर) अच्छे प्रकार से दुःख को पार करो ।। ५ । ४१ ।।
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। जैसे पवन सबको सुख देता हुआ सबका अधिष्ठान है वैसे विद्वान् लोग भी बनें ।। ५ । ४१ ।।
प्रमाणार्थ
इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३।६।४।२-३ ) में की गई है ।५ । ४१ ।।
भाष्यसार
१. विष्णु (विद्वान्) कैसा हो-- विष्णु अर्थात् व्यापनशील वायु जैसे सबको सुख देता है तथा सबका आधार है इसी प्रकार विद्वान् भी विज्ञान की उन्नति के लिये विद्या के अङ्गों में व्यापक होकर सबको सुख प्रदान करे। प्रजा का आधार बने । विद्युत् का निमित्त जल है। उस जल का विद्वान् पुरुष पान करें अर्थात् विद्युत् विद्या और जल-विद्या को सीखें । यज्ञपति अर्थात् यज्ञ आदि शुभ कर्मों का पालन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष जैसे दुःख से पार होते हैं वैसे विद्वान् पुरुष भी यज्ञानुष्ठान से दुःखों को तरें ।। ५ । ४१ ।। २. अलंकार - मन्त्र में उपमावाचक ‘इव’ आदि शब्द लुप्त हैं, इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलंकार है। उपमा यह है कि पवन के समान विद्वान् पुरुष सब को सुखी करें तथा सब के आधार बनें। विद्वान् के समान सब मनुष्य व्यवहार करें ।। ५ । ४१ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा वायू सर्वांना सुख देतो व सर्व ठिकाणी विद्यमान असतो तसे विद्वानांनी वागावे.
विषय
पुनश्च त्या दोघांनी (आचार्य व शिष्य) कसे वर्तन करावे, पुढील मंत्रात याविषयी वर्णन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - ज्याप्रमाणे सर्व पदार्थांत व्याप्त असलेला वायू गती करतो, प्रवाहित होतो, त्याप्रमाणे विद्या आदी गुणांमध्ये गुरांमधे व्याप्त (गती) असलेले हे विद्वान महोदय, आपण (उरु) अत्यंत विस्तारासाठी (क्षयाय) आपल्या विद्या व विज्ञानाला (विक्रमस्व) सर्व दृष्टीनीं विविध अंगांनी परिपूर्ण करा आणि (नः) आम्हाला सुखी (कृधि) करा. जसे जलाचे निमित्त विद्युत आहे, तसे पदार्थ-विद्येच्या विद्वान मनुष्या, तू विद्युतेप्रमाणे (घृतं) पाणी जलाचे (पिब) पान कर. (पाणी व विद्युतेचा भरपूर उपयोग कर) तसेच ज्याप्रमाणे मी यज्ञपती यजमानाला दुःख सागरातून पैलतीरास नेतो, त्याप्रमाणे तू देखील (स्वाहा) श्रेष्ठ हवन आदी कर्म करून (प्रपतिर) दुःखसागरातून तरून जा. ॥41॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे पवन सर्वांसाठी सुखकर होऊन सर्वत्र राहणारा आणि सर्वांचा जिवनाधार आहे, त्याप्रमाणेच विद्वान व्यक्तीने देखील व्हावयास हवे. (विद्यादींचे शिक्षण देऊन सर्वांना सुखी करावे वा वैज्ञानिक साधनांद्वारे सर्वांना सुख-सोयी द्याव्यात)
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, mayest thou be conversant with all branches of knowledge, for the vast development of learning. Give us happiness. Drink thou the water, the precursor of which is lightning. Just as I make the worshipper overcome all obstacles, so shouldst thou be totally free from all ills, by the regular performance of Havan.
Meaning
Vishnu, man of courage and knowledge wide expansive as the wind, equip yourself with the knowledge of science and technology and expand our comfort and happiness. Man sipping holy water just as fire consumes ghee and electricity in the sky consumes water in the clouds, drink deep at the fount of knowledge. Help the master of yajna to overcome the hurdles and swim across the seas with the chant of the Veda.
Translation
О sacrifice, spread, far and wide. Make ample space for our living. O fire, born of melted butter, consume melted butter to your heart's desire. Make the sacrificer prosper. Svaha. (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তৌ কথং বর্ত্তেয়াতামিত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় তাহারা কেমন ব্যবহার করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।
पदार्थ
পদার্থঃ–যেমন সকল পদার্থে ব্যাপ্তমান হইয়া পবন চলাচল করে সেইরূপ হে বিদ্যা গুণে ব্যাপক বিদ্বান্ (উরু) অত্যন্ত বিস্তারযুক্ত (ক্ষয়ায়) বিদ্যোন্নতি হেতু (বিক্রমস্ব) স্বীয় বিদ্যার অঙ্গ দ্বারা পরিপূর্ণ হও এবং (নঃ) আমাদিগকে সুখী (কৃধি) কর, যেমন জলের নিমিত্ত বিদ্যুৎ সেইরূপ পদার্থ গ্রহণকারী বিদ্বান্! বিদ্যুৎ সম (ঘৃতম) জল (পিব) পান কর এবং যেমন আমি যজ্ঞপতিকে দুঃখ হইতে পার করি সেই রূপ তুমিও (স্বাহা) সম্যক্ প্রকার হবনাদি কর্ম সেবন করিয়া (প্রপ্রতির) দুঃখ হইতে ভাল প্রকার উত্তীর্ণ হও ॥ ৪১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন পবন সকলকে সুখ প্রদান করিয়া সকলের থাকিবার স্থান করিযা দেয় সেইরূপ বিদ্বানেরও হওয়া উচিত ॥ ৪১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒রু বি॑ষ্ণো॒ বি ত্র॑ôমস্বো॒রু ক্ষয়া॑য় নস্কৃধি ।
ঘৃ॒তং ঘৃ॑তয়োনে পিব॒ প্রপ্র॑ য়॒জ্ঞপ॑তিং তির॒ স্বাহা॑ ॥ ৪১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উরু বিষ্ণবিত্যস্যাগস্ত্য ঋষিঃ । বিষ্ণুর্দেবতা । ভুরিগার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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