यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 7
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - सविता गृहपतिर्देवता
छन्दः - विराट ब्राह्मी अनुष्टुप्,
स्वरः - गान्धारः
30
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि सावि॒त्रोऽसि चनो॒धाश्च॑नो॒धाऽअ॑सि॒ चनो॒ मयि॑ धेहि। जिन्व॑ य॒ज्ञं जिन्व॑ य॒ज्ञप॑तिं॒ भगा॑य दे॒वाय॑ त्वा सवि॒त्रे॥७॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृही॑त॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। सा॒वि॒त्रः। अ॒सि॒। च॒नो॒धा इति॑ चनः॒ऽधाः। च॒नो॒धा इति॑ चनः॒ऽधाः। अ॒सि॒। चनः॑। मयि॑। धे॒हि॒। जिन्व॑। य॒ज्ञम्। जिन्व॑। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। भगा॑य। दे॒वाय॑। त्वा॒। स॒वि॒त्रे ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतो सि सावित्रो सि चनोधाश्चनोधा असि चनो मयि धेहि । जिन्व यज्ञञ्जिन्व यज्ञपतिं भगाय देवाय त्वा सवित्रे ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। सावित्रः। असि। चनोधा इति चनःऽधाः। चनोधा इति चनःऽधाः। असि। चनः। मयि। धेहि। जिन्व। यज्ञम्। जिन्व। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। भगाय। देवाय। त्वा। सवित्रे॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनश्च गृहस्थधर्ममुपदिश्यते॥
अन्वयः
हे पुरुष! त्वया यथाहं नियमोपनियमैः सङ्गृहीतास्मि, तथा मया त्वमुपयामगृहीतोऽसि, त्वं [चनोधाः] चनोधा असि सावित्रश्चासि, तथाहमस्मि त्वं मयि चनो धेहि। अहमपि त्वयि दध्याम्। त्वं यज्ञं जिन्व अहमपि जिन्वेयम्। सवित्रे भगाय देवाय यज्ञपत्नीं मां जिन्व, एतस्मै यज्ञपतिं त्वामहमपि जिन्वेयम्॥७॥
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) उपयामेन विवाहनियमेन गृहीतः (असि) (सावित्रः) सविता सकलजगदुत्पादकः परमेश्वरो देवता यस्य सः (असि) (चनोधाः) चनांस्यन्नानि दधातीति। चन इत्यन्ननामसु पठितम्। (निरु॰६।१६) (चनोधाः) अभ्यासेनाधिकार्थो ग्राह्यः, सर्वेभ्योऽधिकान्नवान् गम्यते। अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यते। (निरु॰१०।४२) (असि) (चनः) (मयि) अन्नग्रहणनिमित्तायां विवाहितायां स्त्रियाम् (धेहि) धर (जिन्व) प्राप्नुहि जानीहि वा। जिन्वतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं॰२।१४) (यज्ञम्) धर्म्मदृढैः पुरुषैः सङ्गन्तव्यम् (जिन्व) प्रीणीहि (यज्ञपतिम्) गृहाश्रमस्य पालकं पुरुषपालिकां स्त्रियं वा (भगाय) धनाद्याय सेवनीयायैश्वर्य्याय। भग इति धननामसु पठितम्। (निघं॰२।१०) (देवाय) दिव्याय कमनीयाय (त्वा) त्वाम् (सवित्रे) सन्तानोत्पादकाय। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ४। १। ६) व्याख्यातः॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विवाहितस्त्रीपुरुषौ प्राप्त्यनुकूलव्यवहारेण परस्परमैश्वर्य्यं प्राप्नुयाताम्, प्रीत्या सन्तानोत्पत्तिं चाचरेताम्॥७॥
विषयः
पुनश्च गृहस्थधर्ममुपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
हे पुरुष ! त्वया यथाहं नियमोपनियमैः संगृहीतास्मि तथा मया त्वमुपयामगृहीतः उपयामेन=विवाहनियमेन गृहीतः असि। त्वं चनोधाः चनांस्यन्नानि दधातीति चनोधा: अभ्यासेनाधिकार्थो ग्राह्य:, सर्वेभ्योऽधिकान्नवान् गम्यते, असि, सावित्रः सविता=सकलजगदुत्पादक: परमेश्वरो देवता यस्य स चासि तथाहमस्मि, त्वं मयि अन्नग्रहणनिमित्तायां विवाहितायां स्त्रियां चनोधेहिधर अहमपि त्वयि दध्याम् । त्वं यज्ञं धर्मदृढैः पुरुषैः संगन्तव्यं जिन्व प्रीणीहि अहमपि जिन्वेयम् । सवित्रे सन्तानोत्पादकाय देवाय दिव्याय कमनीयाय भगाय धनाद्याय यज्ञपत्नीं मां जिन्व प्राप्नुहि जानीहि वा एतस्मै यज्ञपतिं गृहश्रामस्य पालकं पुरुषं पालिकां स्त्रियं वा [त्वा]=त्वामहमपि जिन्वेयम् ॥ ८ । ७॥ [हे पुरुष ! त्वया यथाहं.....संगृहीतास्मि तथा मया त्वयुपयामगृहीतीऽसि, त्वं चनोधा......असि, सवित्रश्चासि तथाहमस्मि, त्मं यज्ञं जिन्वाहमपि जिन्वेयम्]
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) उपयामेन विवाहनियमेन गृहीतः (असि)(सावित्रः) सविता=सकल- जगदुत्पादक: परमेश्वरो देवता यस्य सः (असि)(चनोधाः) चनांस्यन्नानि दधातीति। चन इत्यन्ननामसु पठितम् ॥ निघं० ६ । १६ ॥(चनोधाः) अभ्यासेनाधिकार्थो ग्राह्यः, सर्वेभ्योऽधिकान्नवान् गम्यते ॥ अभ्यासे भूयांसमर्थे मन्यते ॥ निरु० १० । ४२ ॥(असि)(चनः)(मयि) अन्नग्रहणनिमित्तायां विवाहितायां स्त्रियाम्(धेहि) घर (जिन्व) प्राप्नुहि जानीहि वा । जिन्वतीति गतिकर्मसु पठितम् ॥ निघं० २। १४ ॥(यज्ञम्) धर्म्मदृढैः पुरुषैः संगन्तव्यम्(जिन्व) प्रीणीहि (यज्ञपतिम्) गृहाश्रमस्य पालकं पुरुषं पालिकां स्त्रियं वा (भगाय) धनाद्याय सेवनीयायैश्वर्य्याय । भग इति धननामसु पठितम् ॥ निघं० २ । १० ॥(देवाय) दिव्याय कमनीयाय (त्वा) त्वाम् (सवित्रे) संतानोत्पादकाय ॥अयं मन्त्रः शत० ४ ।४ । १। ६ व्याख्यातः ॥ ७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः॥ विवाहितस्त्रीपुरुषौ प्राप्त्यनुकूलव्यवहारेण परस्परमैश्वर्यं प्राप्नुयातां प्रीत्या सन्तानोत्पत्तिं चाचरेताम् ॥ ८ । ७॥
विशेषः
भरद्वाजः । सविता गृहपति:=सन्तानेप्सुगृहस्थः। विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप् । गान्धारः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी गृहाश्रम का धर्म अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे पुरुष! तुझ से जैसे मैं नियम और उपनियमों से ग्रहण करी गई हूं, वैसे मैंने आप को (उपयामगृहीतः) विवाह नियम से ग्रहण किया (असि) है, जैसे आप (चनोधाः चनोधाः) अन्न-अन्न के धारण करने वाले (असि) हैं और (सावित्रः) सविता समस्त सन्तानादि सुख उत्पन्न करने वाले परमेश्वर को अपना इष्टदेव मानने वाले (असि) हैं, वैसे मैं भी हूँ। जैसे आप (मयि) मेरे निमित्त (चनः) अन्न को (धेहि) धरिये, वैसे मैं भी आपके निमित्त धारण करूं। जैसे आप (यज्ञम्) दृढ़ पुरुषों के सेवन योग्य धर्म व्यवहार को (जिन्व) प्राप्त हों, वैसे मैं भी प्राप्त होऊं और जैसे (सवित्रे) सन्तानों की उत्पति के हेतु (भगाय) धनादि सेवनीय (देवाय) दिव्य ऐश्वर्य के लिये (यज्ञपतिम्) गृहाश्रम को पालनेहारे आप को मैं प्रसन्न रक्खूं, वैसे आप भी (जिन्व) तृप्त कीजिये॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विवाहित स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि लाभ के अनुकूल व्यवहार से परस्पर ऐश्वर्य पावें और प्रीति के साथ सन्तानोत्पत्ति का आचरण करें॥७॥
विषय
भग - देव - सविता
पदार्थ
१. पत्नी पति से कहती है कि— आप ( उपयामगृहीतः असि ) = उपासना के द्वारा यम-नियमों के धारण करनेवाले हैं।
२. आप ( सावित्रः असि ) = सविता देव के उपासक हैं, अर्थात् आपका जीवन सूर्य की भाँति नियमित है और परिणामतः आप सूर्य की भाँति ही चमकनेवाले हैं। अथवा आप [ सू-प्रसव ] उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाले हैं।
३. ( चनोधाः ) = उत्तम अन्न को धारण करनेवाले और ( चनोधाः ) = निश्चय से उत्तम अन्न को धारण करनेवाले ( असि ) = हैं [ अभ्यासे भूयांसमर्थं मन्यन्ते—नि० १०।४२ ]।( चनो मयि धेहि ) = मुझमें अन्न धारण कीजिए। ‘अन्न प्राप्त कराना घर में सबके पालन-पोषण के लिए आवश्यक सामग्री जुटाना’ यह पाणिग्रहण के मन्त्रों में ‘ममेयमस्तु पोष्या’ इन शब्दों में तीसरा व्रत लिया जाता है। पति अन्न-प्रापण के द्वारा ही रक्षा करता है।
४. ( यज्ञं जिन्व ) = आप यज्ञ को भी प्राप्त हों। केवल खाने-पीने के लिए थोड़े ही कमाना है, यज्ञों के लिए भी तो कमाना है। ( यज्ञपतिं जिन्व ) = इन यज्ञों के द्वारा यज्ञों के पति प्रभु को आप प्रीणित करनेवाले बनें। वस्तुतः ‘यज्ञो वै विष्णुः’ वे प्रभु यज्ञरूप हैं। हम उस यज्ञरूप प्रभु की यज्ञों के द्वारा ही उपासना कर पाते हैं।
५. मैं ( त्वा ) = आपको ( भगाय ) = ऐवर्श्य के लिए प्राप्त होती हूँ। आप घर के ऐश्वर्य को बढ़ानेवाले होओ। ( देवाय त्वा ) = मैं आपको दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए स्वीकार करती हूँ। आपके कारण घर में देवत्व की वृद्धि होगी। मैं ( सवित्रे ) = उत्तम सन्तानों को जन्म देने के लिए आपका स्वीकार करती हूँ [ षू प्रसव ]। आपके द्वारा मैं उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाली बन सकूँगी।
भावार्थ
भावार्थ — पति इतना कमाये कि घर का व्यय भी चले और यज्ञ-यागादि के लिए भी खर्च निकलता रहे। घर में ऐश्वर्य की वृद्धि हो, देवत्व का विकास हो और उत्तम सन्तानें हों।
विषय
सावित्र पद पर नियुक्ति ।
भावार्थ
हे पुरुष ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्य के नियम व्यवस्था द्वारा बद्ध है । तू (सावित्रः ) सविता के पद पर स्थित (चनोधाः असि ) अन्न समृद्धि को देने और सूर्य के समान ही धारण पोषण करने हारा है, क्योंकि तू ( चनोधाः असि ) अन्न को धारण पोषण करता है । तू ( मयि ) मुझे भी ( चनः ) अन्न ( धेहि ) प्रदान कर । ( यज्ञं जिन्व ) तू अन्न से यज्ञ राष्ट्र को तृप्त कर ( यज्ञपतिम् ) राष्ट्रपति को भी ( जिन्व) तृप्त कर । ( भगाय ) समस्त ऐश्वर्यमय ( देवाय ) देव ( सवित्रे ) सविता के पद के लिये (त्वा) तुझको नियुक्त करता हूं ॥ शत० ४ । ४ । १ । ६ ॥
गृहस्थ पक्ष में- हे पुरुष ! तुझे मैं स्त्री उपयाम= विवाह द्वारा स्वीकार करती हूं । तू सावित्र अर्थात् प्रजा के उत्पादक या परमेश्वर के उपासक या स्वयं सविता सूर्य के समान तेजस्वी है। तू अन्न समृद्धि का धारक है तू गृहस्थ यज्ञ को पुष्ट कर । सविता रूप तुझे अर्थात् सन्तानोत्पादक पति पद के लिये करती हूं ।
टिप्पणी
७ - ० चनोधाश्चनो मयि० भगाय सवित्रे त्वा । इति काण्व ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाज ऋषिः । सविता देवता । विराड् ब्राह्मी अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
गृहस्थ धर्म का फिर उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
हे पुरुष ! आपने जैसे मुझे विवाह के नियम-उपनियमों के अनुसार ग्रहण किया है वैसे आप भी मुझ से (उपयामगृहीतः) विवाह नियमों के अनुसार स्वीकार किये गये (असि) हो । आप (चनोधाः) अन्नों को धारण करने वाले हो (चनोधाः) दो बार कहने का अर्थ यह है कि आप सब से अधिक अन्नको धारण करने वाले (असि) हो, और (सावित्रः) सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर को देवता मानने वाला (असि) हो, मैं भी वैसी ही हूँ। आप (मयि) अन्न ग्रहण की निमित्त मुझ विवाहित स्त्री में (चनः) अन्न (धेहि) रखो और मैं भी आप में अन्न रखूँ । आप (यज्ञम्) धर्म पर दृढ़ रहने वाले पुरुषों से प्राप्त करने योग्य यज्ञ को (जिन्व) पूर्ण करो और मैं भी पूरा करूँ । (सवित्रे) सन्तान-उत्पादक होने के लिये (देवाय) दिव्य कमनीय भोगों की तथा (भगाय) धन आदि की प्राप्ति के लिये ( यज्ञपत्नीम्) यज्ञ संगिनी मुझ पत्नी को (जिन्व) प्राप्त करो वा समझो और इसी उद्देश्य के लिये (यज्ञपतिम्) गृहाश्रम पालक [त्वा] आपको मैं भी प्राप्त होऊँ वा पति समझूँ ॥ ८ । ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। विवाहित स्त्री-पुरुष लाभ के अनुसार व्यवहार से परस्पर ऐश्वर्य को प्राप्त करें और प्रीतिपूर्वक सन्तानोत्पत्ति करें ॥ ८ । ७ ॥
प्रमाणार्थ
(चनोधाः) 'चन' शब्द निघं० (६ । १६) में अन्न-नामों में पढ़ा है। निरु० (१० । ४२) के अनुसार "अभ्यास (द्वित्व) में अधिक अर्थ माना जाता है।" (जिन्व) 'जिन्वति' पद निघं० ( २ । १४) में गत्यर्थक क्रियाओं में पढ़ा है। (भगाय) 'भग' शब्द निघं० (२ । १०) में अन्न-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ४ । १ । ६) में की गई है ।। ८ । ७ ।।
भाष्यसार
१. गृहाश्रम-धर्म-- स्त्री-पुरुष विवाह के नियम-उपनियमों के अनुसार एक-दूसरे को स्वीकार करें। अन्न आदि पदार्थों को पुष्कल मात्रा में धारण करें। अन्न आदि पदार्थों की कोई कमी न हो । स्त्री और पुरुष दोनों सकल जगत् के उत्पादक परमेश्वर को अपना उपास्य देवता मानें । धार्मिक पुरुष जिन यज्ञ आदि शुभकर्मों का अनुष्ठान करते हैं उनका विवाहित स्त्री-पुरुष आचरण किया करें । सन्तान को उत्पन्न करने वाला, दिव्यगुणों से युक्त, कामना करने के योग्य, पतिदेव धन आदि ऐश्वर्य के उपभोग के लिये यज्ञपत्नी को प्राप्त करे और उसे यज्ञसंगिनी पत्नी समझे। पत्नी भी उक्त पतिदेव को धन आदि के उपभोग के लिये प्राप्त करे और उसे अपना पति समझे। इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुष लाभकारी व्यवहार से परस्पर ऐश्वर्य को प्राप्त करके प्रीति से सन्तानोत्पत्ति करें ॥ २. अलङ्कार–मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त है अतः वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि पति के समान पत्नी भी उसे पति स्वीकार करे, अन्न आदि पदार्थों को धारण करे, एक ईश्वर को देवता माने, यज्ञ आदि शुभ कर्मों का अनुष्ठान करे ॥ ८ । ७॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विवाहित स्त्री-पुरुषांनी परस्परांचे हित होईल, असा व्यवहार करून ऐश्वर्य प्राप्त करावे व प्रेमाने संतानांची उत्पत्ती करावी.
विषय
पुढील मंत्रात देखील गृहाश्रमधर्माविषयीच सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे परिजात, ज्याप्रमाणे आपण मला (विवाहसंस्काराच्या वा गृहाश्रमाच्या) नियम-उपनियमांनी बांधून घेतले आहे, त्या प्रमाणे मी देखील आपणांस (उपयामगृहीत:) त्याच नियम-उपनियमांनी बद्ध केले आहे. ज्याप्रमाणे आपण (चनोधा:) (चनोधा:) प्रभूत अन्न-धान्याचे स्वामी (असि) आहात, आणि (सावित्र:) सविता म्हणजे सन्तानोत्पत्तीसाठी माझे इष्टदेव (असि) आहात, त्याचप्रमाणे आपणही माझ्याविषयी तसेच आहात. ज्याप्रमाणे आपण (यज्ञम्) दृढनिश्चयी पुरुषासारखे धार्मिक व्यवहार (जिन्व) करता वा प्राप्त होता, त्याप्रमाणे मीही व्हावे. तसेच ज्याप्रमाणे (सवित्रे) सन्तानोत्पत्ती-करिता आणि (भगाय) सेवनीय धन आदी (देवाय) दिव्य ऐश्वर्याकरिता (यज्ञयतिम्) गृहाश्रमरुप यज्ञाचे स्वामी अशा आपल्याला मी प्रसन्न ठेवते किंवा ठेवावे, तसेच आपणही मला (जिन्व) तृप्त करा, प्रसन्न ठेवा ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. विवाहित स्त्री-पुरुषांसाठी उचित आहे की, ज्या व्यवहारामुळे लाभ होईल, असे कर्म करीत एकमेकाच्या सहकार्याने ऐश्वर्यवृद्धी करावी आणि परस्परात प्रेमभाव ठेवून संतानोत्पत्तीसाठी योग्य आचरण करावे ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O’ husband, thou hast been united with me through the tics of marriage. Thou art the worshipper of God. Thou art the master of foodstuffs ; grant them to me. Safeguard your married life. I accept thee as the preserver of the yajna of our domestic life, the lord of riches, the pattern of beauty, and the progenitor of offspring.
Meaning
Accepted you are (as me) and consecrated in the ethics and discipline of matrimony (grihastha dharma). A devotee you are of Savita, creator of the universe, and so gracious a giver of food and the wealth of life. Give me the food for life and joy. Promote yajna, promote the master devotee of yajna, for wealth, for honour and generosity, for the grace of Savita, lord of generation — for health, wealth and procreation — for you and me.
Translation
O devotional bliss, you have been duly accepted. You are possessor of the delight of the creator God. You are possessor of delight; give delight to me. Encourage the sacrifice; encourage the sacrificer for gaining wealth. You to the creator God. (1)
Notes
Canah, चन इति अन्ननाम्, food, (Nigh. VI. 16); also, delight. Yajfiapatim jinva, encourage the sacrificer.
बंगाली (1)
विषय
পুনশ্চ গৃহস্থধর্মমুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় গৃহস্থাশ্রমের ধর্ম পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে পুরুষ ! আপনার দ্বারা যেমন আমি নিয়ম ও উপনিয়ম দ্বারা গ্রহণ করানো হইয়াছি সেইরূপ আমি আপনাকে (উপয়ামগৃহীতঃ) বিবাহ-নিয়ম পূর্বক গ্রহণ করিয়াছি, যেমন আপনি (চনোধাঃ) (চনোধাঃ) অন্ন-অন্ন ধারণকারী এবং (সাবিত্রঃ) সবিতা সমস্ত সন্তানাদি সুখ উৎপন্নকারী আপনাকে নিজের ইষ্টদেব মানিয়া থাকেন সেইরূপ আমিও । যেমন আপনি (ময়ি) আমার নিমিত্ত (চনঃ) অন্নকে (ধেহি) ধারণ করেন, সেইরূপ আমিও আপনার নিমিত্ত ধারণ করি, যেমন আপনি (য়জ্ঞম্) দৃঢ় পুরুষদিগের সেবনীয় ধর্মব্যবহারকে (জিন্ব) প্রাপ্ত হন সেইরূপ আমিও প্রাপ্ত হই এবং যেমন (সবিত্রে) সন্তানদের উৎপত্তি হেতু (ভগায়) ধনাদি সেবনীয় (দেবায়) দিব্য ঐশ্বর্য্য হেতু (য়জ্ঞপতিম্) গৃহাশ্রম পালনকারী আপনাকে আমি প্রসন্ন রাখিব, সেইরূপ আপনিও (জিন্ব) তৃপ্ত করুন ॥ ৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । বিবাহিত স্ত্রী পুরুষদিগের উচিত যে, লাভের অনুকূল ব্যবহার দ্বারা পরস্পর ঐশ্বর্য্য লাভ করুক এবং প্রীতি পূর্বক সন্তানোৎপত্তির আচরণ করুক ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽসি সাবি॒ত্রো᳖ऽসি চনো॒ধাশ্চ॑নো॒ধাऽঅ॑সি॒ চনো॒ ময়ি॑ ধেহি । জিন্ব॑ য়॒জ্ঞং জিন্ব॑ য়॒জ্ঞপ॑তিং॒ ভগা॑য় দে॒বায়॑ ত্বা সবি॒ত্রে ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উপয়ামগৃহীতোऽসীত্যস্য ভরদ্বাজ ঋষিঃ । সবিতা গৃহপতির্দেবতা ।
বিরাড্ ব্রাহ্ম্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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