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यजुर्वेद अध्याय - 9

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  • यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 38
    ऋषिः - देवावत ऋषिः देवता - रक्षोघ्नो देवता छन्दः - भूरिक ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
    24

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। उ॒पा॒शोर्वी॒र्येण जुहोमि ह॒तꣳ रक्षः॒ स्वाहा॒ रक्ष॑सां त्वा व॒धायाव॑धिष्म॒ रक्षोऽव॑धिष्मा॒मुम॒सौ ह॒तः॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। उ॒पा॒शोरित्यु॑पऽअ॒ꣳशोः। वी॒र्येण। जु॒हो॒मि॒। ह॒तम्। रक्षः॑। स्वाहा॑। रक्ष॑साम्। त्वा॒। व॒धाय॑। अव॑धिष्म। रक्षः॑। अव॑धिष्म। अ॒मुम्। अ॒सौ। ह॒तः ॥३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । उपाँशोर्वीर्येण जुहोमि हतँ रक्षः स्वाहा रक्षसान्त्वा वधायावधिष्म रक्षोवधिष्मामुमसौ हतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। उपाशोरित्युपऽअꣳशोः। वीर्येण। जुहोमि। हतम्। रक्षः। स्वाहा। रक्षसाम्। त्वा। वधाय। अवधिष्म। रक्षः। अवधिष्म। अमुम्। असौ। हतः॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 9; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    प्रजाजना इह कीदृशं सभाधीशं राजानं स्वीकुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे राजन्नहं स्वाहा सवितुर्देवस्य प्रसव उपांशोर्वीर्य्येणाश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां रक्षसां वधाय त्वा जुहोमि, यथा त्वया रक्षो हतम्, तथा वयमप्यवधिष्म। यथासौ हतः स्यात्, तथा वयमेतमवधिष्म॥३८॥

    पदार्थः

    (देवस्य) प्रकाशितन्यायस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) ऐश्वर्य्योत्पादकस्य सेनेशस्य (प्रसवे) ऐश्वर्ये (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोरिव सभासेनापत्योः (बाहुभ्याम्) (पूष्णः) पुष्टिकर्तुर्वैद्यस्य (हस्ताभ्याम्) (उपांशोः) उप समीपेऽनिति तस्य, अत्रान धातोरुः शुगागमश्च (वीर्य्येण) सामर्थ्येन (जुहोमि) गृह्णामि (हतम्) विनष्टम् (रक्षः) राक्षसम्। रक्षो रक्षितव्यमस्माद् रहसि क्षणोतीति वा रात्रौ नक्षत इति वा। (निरु॰४।१८) (स्वाहा) सत्यया क्रियया (रक्षसाम्) दुष्टानाम् (त्वा) त्वाम् (वधाय) विनाशाय (अवधिष्म) हन्याम (रक्षः) दुष्टाचारम् (अवधिष्म) ताडये (अमुम्) परोक्षम् (असौ) दूरस्थः (हतः) विनष्टः। अयं मन्त्रः (शत॰५। २। ४। १७-२०) व्याख्यातः॥३८॥

    भावार्थः

    प्रजास्थजनाः स्वरक्षणाय दुष्टनिवारणाय विद्याधर्मप्रवृत्तये च सुशीलं राजानं स्वीकुर्युः॥३८॥

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    विषयः

    प्रजाजना इह कीदृशं सभाधीशं राजानं स्वीकुर्युरित्याह ॥

    सपदार्थान्वयः

    हे राजन् ! अह स्वाहा सत्यया क्रियया सवितुः ऐश्वर्य्योत्पादकस्य सेनेशस्य देवस्य प्रकाशितन्यायस्य प्रसवे ऐश्वर्ये उपांशोः उप=समीपेऽनीति, तस्य वीर्य्येण सामर्थ्येन अश्विनोः सूर्य्याचन्द्रमसोरिव सभासेनापत्योः बाहुभ्यां, पूष्णः पुष्टिकर्त्तुर्वैद्यस्य हस्ताभ्यां रक्षसां दुष्टानां वधाय विनाशाय त्वा त्वां जुहोमि गृह्णामि। यथा त्वया [अमुम्] परोक्षं रक्षः राक्षसं=हतं विनष्टंतथा वयमप्यवधिष्म हन्याम । यथासौ दूरस्थः हतः विनष्टः स्यात्, तथा वयमेतं [रक्षः] दुष्टाचारम् अवधिष्म ताडयेम ॥ ९ । ३८ ॥ [हे राजन् ! अहं.......रक्षसां वधाय त्वा जुहोमि]

    पदार्थः

    (देवस्य) प्रकाशितन्यायस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) ऐश्वर्य्योत्पादकस्य सेनेशस्य (प्रसवे) ऐश्वर्ये (अश्विनो:) सूर्याचन्द्रमसोरिव सभासेनापत्योः (बाहुभ्याम्) (पूष्णः) पुष्टिकर्तुर्वेद्यस्य (हस्ताभ्याम्) (उपांशोः) उप=समीपेऽनीति तस्य । अत्रानधातोरु: शुगागमश्च (वीर्य्येण) सामर्थ्येन (जुहोमि) गृह्णामि (हतम्) विनष्टम् (रक्षः) राक्षसम्।रक्षो रक्षितव्यमस्माद्रहसि क्षणोतीति वा रात्रौ नक्षत इति वा ।। निरु० ४ । १८ ॥ (स्वाहा ) सत्यया क्रियया (रक्षसाम्) दुष्टानाम् (त्वा) त्वाम् (बधाय) विनाशाय (अवधिष्म) हन्याम (रक्षः) दुष्टाचारम् (अवधिष्म) ताडयेम (अमुम्) परोक्षम् (असौ) दूरस्थ: (हतः) विनष्टः ॥ अयं मन्त्रः शत० ५ । २ । ४ । १७-२० व्याख्यातः ॥ ३८ ॥

    भावार्थः

    प्रजास्थजना: स्वरक्षणाय, दुष्टनिवारणाय, विद्याधर्मप्रवृत्तये च सुशीलं राजानं स्वीकुर्युः ॥ ९ । ३८ ॥

    विशेषः

    देववातः। रक्षोघ्नः=रक्षसां हन्ता राजा ॥ स्वराड्ब्राह्मी बृहतो। मध्यमः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रजाजन राज्य में कैसे सभाधीश को स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे राजन्! मैं (स्वाहा) सत्य क्रिया से (सवितुः) ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करने वाले (देवस्य) प्रकाशित न्याययुक्त (प्रसवे) ऐश्वर्य्य में (उपांशोः) समीपस्थ सेना के (वीर्य्येण) सामर्थ्य से (अश्विनोः) सूर्य्य-चन्द्रमा के समान सेनापति के (बाहुभ्याम्) भुजाओं से (पूष्णः) पुष्टिकारक वैद्य के (हस्ताभ्याम्) हाथों से (रक्षसाम्) राक्षसों के (वधाय) नाश के अर्थ (त्वा) आपको (जुहोमि) ग्रहण करता हूं, जैसे तूने (रक्षसाम्) दुष्ट को (हतम्) नष्ट किया, वैसे हम लोग भी दुष्टों को (अवधिष्म) मारें, जैसे (असौ) वह दुष्ट (हतः) नष्ट हो जाय, वैसे हम लोग इन सब को (अवधिष्म) नष्ट करें॥३८॥

    भावार्थ

    प्रजाजनों को चाहिये कि अपने बचाव और दुष्टों के निवारणार्थ विद्या और धर्म की प्रवृत्ति के लिये अच्छे स्वभाव, विद्या और धर्म के प्रचार करनेहारे, वीर, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सभा के स्वामी राजा को स्वीकार करें॥३८॥

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    विषय

    रक्षो-वध

    पदार्थ

    पुरोहित राज्याभिषेक के समय राजा से कहता है कि १. ( त्वा ) = तुझे ( सवितुः देवस्य ) =  उस सर्वप्रेरक प्रभु की ( प्रसवे ) = प्रेरणा में, अर्थात् प्रभु से वेद में उपदिष्ट राजकर्त्तव्यों को पूरा करने के लिए ( जुहोमि ) = यह सिंहासन देता हूँ। तूने इस गद्दी पर बैठकर वेदानुकूल ही शासन करना है। 

    २. ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) = प्राणापान के [ बाहृ प्रयत्ने ] प्रयत्न के हेतु से ( जुहोमि ) =  यह सिंहासन देता हूँ। तूने इस सिंहासन पर बैठकर अपनी प्राणशक्ति के अनुसार पूर्ण प्रयत्न से राष्ट्रोन्नति के कार्यों में लगना है। 

    ३. ( पूष्णः हस्ताभ्याम् ) = पूषा के हाथों के हेतु से ( जुहोमि ) = तुझे यह सिंहासन सौंपता हूँ। तूने इस गद्दी पर बैठकर अपने हाथों से इस प्रकार के ही कार्य करने हैं जिनसे राष्ट्र का अधिकाधिक पोषण हो। 

    ४. ( उपांशोः ) = [ उपांशुः silence ] मौन की ( वीर्येण ) = शक्ति के हेतु से ( जुहोमि ) = तुझे यह सिंहासन सौंपता हूँ। राजा व राष्ट्रपति को बहुत बोलनेवाला नहीं होना चाहिए। बोले कम, करे अधिक। 

    ५. तू राष्ट्र-व्यवस्था को इस प्रकार सुन्दरता से चलानेवाला बन कि ( रक्षः ) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले लोग ( हतम् ) = नष्ट कर दिये जाएँ। ( स्वाहा ) = तू इस कार्य के लिए अपनी आहुति देनेवाला हो। ( त्वा ) = तुझे ( रक्षसाम् ) = राक्षसी वृत्तिवाले लोगों के ( वधाय ) = वध के लिए ही इस गद्दी पर बिठाया है। 

    ६. तेरे मुख से तो हमें यही सुनने को मिले कि ( अवधिष्म रक्षः ) = राक्षस का वध कर दिया गया, ( अवधिष्म अमुम् ) = उसको मार डाला, ( असौ हतः ) = अमुक राक्षस मारा गया। आपस्तम्ब ऋषि के प्रजापालनदण्डयुद्धानि ये शब्द यही कह रहे हैं कि राजा प्रजा की रक्षा करे। प्रजा की रक्षा के लिए राज्य के अन्तर्गत राक्षसों को दण्ड दे और बाह्य राक्षसों से युद्ध करे।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा का मौलिक कर्त्तव्य ‘रक्षो-वध’ है। राक्षस वे हैं जो अपने रमण के लिए औरों का क्षय करें।

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    विषय

    दुष्ट पुरुषों का वध।

    भावार्थ

    हे वीर पुरुष ! ( सवितुः ) सबके उत्पादक, कर्त्ता एवं प्रेरक ( देवस्य ) देव, राजा के ( प्रसवे ) ऐश्वर्यमय राज्य में ( अश्विनो : बाहुभ्याम् ) अश्वियों के बाधक सामर्थ्यों से और ( पूष्ण: ) परिपोषक मित्र राजा के (हस्ताभ्याम्) सब हनन साधनों से और ( उपांशोः ) उपांशु, प्राणस्वरूप प्रजापति राजा के (वीर्येण ) बल, वीर्य और अधिकार से ( रक्षसां ) राक्षसों, विघ्नकारियों के ( बधाय ) विनाश करने के लिये ही ( त्वा जुहोमि ) तुझे युद्ध-यज्ञ में आहुति देता हूं, भेजता हूं । जाओ ( स्वाहा ) उत्तम युद्ध की शैली से उत्तम कीर्ति और नामवरी सहित ( रक्षः ) राक्षसों, राज्य के विघ्नकारी लोगों को ( हतम् ) मारडाला जाय। हे ( रक्षः ) राक्षस, दुष्ट पुरुष ( त्वा ) तुझको हमें युद्धस्थल में तुझे ( अबधिष्म ) नाश करते हैं। इस प्रकार हम ( रक्षः ) समस्त दुष्ट पुरुषों को ( अवधिष्म ) विनाश करें । और ( अमुम् अवधिष्म ) हम उस अमुक विशेष शत्रु का नाश करते हैं । इस प्रकार ( असौ हतः ) वह 
    छांट २ कर मारा जाय ॥ शत० ५ । २ । ४ । १७ ।। 
     

    टिप्पणी

    ३८ - ' ० वधिष्म रक्षोऽमुष्यत्वा वधायावधिष्म । जुषाणोऽध्वाज्यस्यवेतु स्वादा ' इति काण्व० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देववात ऋषिः । रक्षोघ्नो देवता । स्वराड् ब्राह्मी बृहती । मध्यमः ॥ 

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    विषय

    प्रजाजन राज्य में कैसे सभाधीश राजा को स्वीकार करें, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    भाषार्थ

    हे राजन् ! मैं (स्वाहा) सत्य कर्म से (सवितु:) ऐश्वर्य के उत्पादक सेनापति के (देवस्य) प्रकाशित न्याय के (प्रसवे) ऐश्वर्य में (उपांशो:) समीपस्थ सेना के (वीर्येण) सामर्थ्य से, (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के समान सभा और सेनापति की (बाहुभ्याम्) भुजाओं से, (पूष्ण:) पुष्टि-कर्त्ता वैद्य के (हस्ताभ्याम्) हाथों से, (रक्षसाम्) दुष्टों के (वधाय) विनाश के लिये (त्वा) आपको (जुहोमि) स्वीकार करता हूँ। जैसे आपने [अमुम्] उस (रक्षः) राक्षस को (हतम्) नष्ट किया है वैसे हम भी राक्षसों को (अवधिष्म) नष्ट करें। जैसे (असौ) वह दूरस्थ राक्षस (हतः) नष्ट हो वैसे हम लोग इस [रक्षः] दुष्टाचारी राक्षस का (अवधिष्म) ताड़न करें ॥ ९ । ३८ ॥

    भावार्थ

    प्रजाजन अपनी रक्षा के लिये,दुष्टों के निवारण के लिये तथा विद्या और धर्म के प्रसार के लिये सुशील राजा को स्वीकार करें । ९ । ३८॥

    प्रमाणार्थ

    (उपांशो:) 'अन' धातु से 'उ' प्रत्यय और 'शुक्' का आगम होने से 'उपांशु' शब्द सिद्ध होता है । (रक्षपू) इस शब्द की निरुक्ति निरु० (४ । ८) में इस प्रकार है--"राक्षस को राक्षस इसलिए कहते हैं कि इससे बचना चाहिए, एकान्त में यह हिंसा करता है, अथवा यह प्रायः रात में घूमता-फिरता है।" इस मन्त्र की व्याख्या शत० (५।२।४।१७-२०) में की गई है ॥९। ३८ ॥

    भाष्यसार

    प्रजाजन यहाँ कैसे सभाधीश राजा को स्वीकार करें--हे सभाधीश राजन् ! आप सत्याचरण से युक्त हो, ऐश्वर्य को उत्पन्न करने वाले सेनापति के तथा न्याय को प्रकाशित करने वाले न्यायाधीश के ऐश्वर्य से सम्पन्न हो, प्राण के सामर्थ्य से युक्त हो, आपके सभापति और सेनापति सूर्य और चन्द्रमा के समान दो भुजायें हैं, पोषक वैद्य आपके हाथ हैं। आपकी इस शक्ति से अपनी रक्षा के लिये, दुष्टों के विनाश (निवारण) के लिये, विद्या और धर्म के प्रसार के लिये हम प्रजाजन आपको राजा स्वीकार करते हैं। जैसे आप दुष्ट-जनों का ताड़न करते हैं वैसे हम लोग भी दुष्टाचारी लोगों का ताड़न करें ॥९।३८ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    प्रजेने आपल्या रक्षणासाठी, दुष्टांच्या निवारणासाठी विद्या आणि धर्माकडे (लोकांची) प्रवृत्ती निर्माण व्हावी त्यासाठी उत्तम स्वभावाच्या विद्या व धर्माचा प्रसार करणाऱ्या, वीर, जितेन्द्रिय, सत्यवादी अशा व्यक्तीला सभेचा राजा म्हणून स्वीकारावे.

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    विषय

    प्रजेने राज्यात कोणाला (कशा प्रकारच्या) व्यक्तीला सभाधीश म्हणून मान्यता घ्यावा? याविषयी:

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वान प्रजाजन राजाप्रति) हे राजन्, मी (स्वाहा) सत्य आचरणाद्वारा (तुम्हांस आवाहन करीत आहे) आपणांस (सवितु:) ऐश्वर्योत्पादक (देवस्य) प्रशंकित न्यायकारी अशा आपल्या (प्रसवे) ऐश्वर्यासह, आणि (उपांशो:) समीपस्थ आपल्या सैन्याच्या (वीटर्पेण) पराक्रमासह आपणांस ग्रहण करीत आहे. तसेच (अश्विनो:) सूर्य आणि चंद्र यांच्याप्रमाणे गुणवान पराक्रमी सेनापतीच्या (बाहुभ्याम्) बाहूंमह आणि (पूष्ण:) पुष्टिकारक वैद्याच्या (हस्ताभ्याम्) गुणकारक (हस्ताभ्याम्) हातांसह (रक्ष:) राक्षसांच्या (दुष्टांच्या) (वधाय) विनाशासाठी मी (त्वा) आपणास (जुहोमि) ग्रहण करीत आहे (आपण आपल्या पराक्रमी सैन्याद्वारे दुष्टांचा संहार आणि वैद्यांच्या पुष्टिकारक औषधीद्वारे प्रजेचे पोषण करावे, यांसाठी आपणास आवाहन करीत आहे.) हे राजन्, ज्याप्रमाणे आपण (रक्ष:) दुष्टांचा (हतम्) वध केला आहे, त्याप्रमाणे आम्ही प्रजाजनांनी देखील (अवधिष्म) दुष्टांचा संहार करावा. (असौ) तो दुष्ट (हत:) मारला जावा, यासाठी आम्ही सर्वजणांनी त्याला (अवधिष्म) पूर्णपणे नष्ट करावे. (ज्यात दुर्जनांचा समूळ नाश व्हावा, असे यत्न करावेत.) ॥38॥

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रजाजनांनी स्वत:च्या संरक्षणासां आणि दुर्जनांच्या विनाशासाठी तसेच प्रजेत धर्माविषयी ओढ निर्माण होण्याकरिता सुखभावी, विद्या-धर्मप्रचारक, वीर, जितेंद्रिय, सत्यभाषी अशा मनुष्याला सभाध्यक्ष राजा म्हणून मान्य करावे. (याविरूद्ध असलेल्या मनुष्यास कदापि राजा वा सभापती करूं नये) ॥38॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O King rightly, I with the glory of the just and prosperity-bringing commander of the army, with the strength of the nearby army, with the generals arms stout like the sun and moon, and with the skilful hands of a physician, accept thee for slaying the demons. Just as thou hast slain the demon so may we slay the demon. Just as we have slain that so may we slay all others.

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    Meaning

    Ruler of the republic, in this sacred land of Lord Savita’s creation, in truth of word and action, I accept, consecrate and celebrate you, protected by the arms of the Ashwinis, the fiery brilliance of the sun and the soothing serenity of the moon, blest by the generous hands of Pusha, the powers of health and nourishment, and supported by the prowess of your close associates, the council and the army. I accept and consecrate you for the destruction of evil. The evil is destroyed. We must punish the wicked, destroy him. Yes, he is destroyed.

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    Translation

    O destroyer of evils, at the impulsion of the creator God, with the arms of the healers and with the hands of the nourisher, I offer oblations with the strength of the first ladle of oblation (the first expression of devotion). The pests have been killed, Ѕwahа. (1) You for the slaughter of pests. (2) We have killed the pests. We have killed so and so. So and so have been killed. (3)

    Notes

    Avadhisma amum, we have killed so and so (here name of the killed is to be mentioned). Similarly, in *asau hatah’, name of the person killed is to be mentioned.

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    बंगाली (1)

    विषय

    প্রজাজনা ইহ কীদৃশং সভাধীশং রাজানং স্বীকুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    প্রজাগণ রাজ্যে কীভাবে সভাধীশকে স্বীকার করিবে, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজন্ ! আমি (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া দ্বারা (সবিতুঃ) ঐশ্বর্য্য উৎপন্নকারী (দেবস্য) প্রকাশিত ন্যায়যুক্ত (প্রসবে) ঐশ্বর্য্যে (উপাংশোঃ) সমীপস্থ সেনা দ্বারা (বীর্য়্যেণ) সামর্থ্য দ্বারা (অশ্বিনোঃ) সূর্য্য চন্দ্র সমান সেনাপতির (বাহুভ্যাম্) বাহু দ্বারা (পূষ্ণঃ) পুষ্টিকারক বৈদ্যের (হস্তাভ্যাম্) হস্ত দ্বারা (রক্ষঃ) রাক্ষসদিগের (বধায়) নাশের জন্য (ত্বা) আপনাকে (জুহোমি) গ্রহণ করি । যেরূপ আপনি (রক্ষঃ) দুষ্টকে (হতম্) নষ্ট করিয়াছেন সেরূপ আমরাও (অবধিষ্ম) দুষ্টদিগকে মারি, যেরূপ (অসৌ) সেই দুষ্ট (হতঃ) নষ্ট হইয়া যায় সেইরূপ আমরা এই সবকে (অবধিষ্ম) নষ্ট করি ॥ ৩৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- প্রজাগণের উচিত যে, আত্মরক্ষা ও দুষ্টের নিবারণ বিদ্যা ও ধর্মের প্রবৃত্তি হেতু উত্তম স্বভাব, বিদ্যা ও ধর্মের প্রচারকারী বীর জিতেন্দ্রিয় সত্যবাদী সভার স্বামী রাজাকে স্বীকার করিবেন ॥ ৩৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑স॒বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ । উ॒পা॒ᳬंশোর্বী॒র্য়ে᳖ণ জুহোমি হ॒তꣳ রক্ষঃ॒ স্বাহা॒ রক্ষ॑সাং ত্বা ব॒ধায়াব॑ধিষ্ম॒ রক্ষোऽব॑ধিষ্মা॒মুম॒সৌ হ॒তঃ ॥ ৩৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবস্য ত্বেত্যস্য দেববাত ঋষিঃ । রক্ষোঘ্নো দেবতা । ভুরিগ্ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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