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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सूर्यः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मूत्र मोचन सूक्त
    85

    वि॒द्मा श॒रस्य॑ पि॒तरं॒ सूर्यं॑ श॒तवृ॑ष्ण्यम्। तेना॑ ते त॒न्वे॑३ शं क॑रं पृथि॒व्यां ते॑ नि॒षेच॑नं ब॒हिष्टे॑ अस्तु॒ बालिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒द्म । शरस्य॑ । पि॒तर॑म् । सूर्य॑म् । श॒तऽवृ॑ष्ण्यम् ।तेन॑ । ते॒ । त॒न्वे । शम् । क॒र॒म् । पृ॒थि॒व्याम् । ते॒ । नि॒ऽसेच॑नम् । ब॒हिः । ते॒ । अ॒स्तु॒ । बाल् । इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विद्मा शरस्य पितरं सूर्यं शतवृष्ण्यम्। तेना ते तन्वे३ शं करं पृथिव्यां ते निषेचनं बहिष्टे अस्तु बालिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विद्म । शरस्य । पितरम् । सूर्यम् । शतऽवृष्ण्यम् ।तेन । ते । तन्वे । शम् । करम् । पृथिव्याम् । ते । निऽसेचनम् । बहिः । ते । अस्तु । बाल् । इति ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शान्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (शरस्य) शत्रुनाशक [वा बाणधारी] शूर के (पितरम्) रक्षक, पिता (सूर्यम्) चलनेवाले वा चलानेवाले सूर्य समान [उपकारी] (शतवृष्ण्यम्) सैकड़ों सामर्थ्यवाले [परमेश्वर] को (विद्म) हम जानते हैं। (तेन) उस [ज्ञान] से (ते) तेरे (तन्वे) शरीर के लिये (शम्) नीरोगता (करम्) मैं करूँ और (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (ते) तेरा (निसेचनम्) बहुत सेचन [वृद्धि] होवे और (ते) तेरा (बाल्) वैरी (बहिः) बाहिर (अस्तु) होवे, (इति) बस यही ॥५॥

    भावार्थ

    (सूर्य) आकाश में वायु से चलता है और लोकों को चलाता और वृष्टि आदि उपकार करता और बड़ा तेजस्वी है। वह परब्रह्म उस सूर्य का भी सूर्य है। उसके उपकारों को जानकर तेजस्वी मनुष्य परस्पर उन्नति करते हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−सूर्यम्। राजसूयसूर्येत्यादिना। पा० ३।१।११४। इति सृ सरणे क्यप्। निपातनाद् ऋकारस्य ऊत्वम्। सरत्याकाशे स सूर्यः। यद्वा, षू प्रेरणे, तुदादिः−क्यप्, रुट् आगमः। सुवति प्रेरयति लोकान् कर्मणि स सूर्यः। यद्वा सु+ईर गतौ कर्मणि क्यपि निपात्यते। वायुना। सुष्ठु ईर्यते प्रेर्य्यते स सूर्यः। सूर्यः सर्त्तेर्वा सुवतेर्वा स्वीर्य्यतेर्वा। इति यास्कः−निरु० १२।१४। आदित्यम्, सूर्यवत् उपकारकम्। शेषम्−व्याख्यातम् मं० १ ॥

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    विषय

    सूर्य

    पदार्थ

    १. हम (शरस्य) = शर के (पितरम्) = पितृभूत (शतवृष्णयम्) = शतश: शक्तियों के उत्पादन में उत्तम (सूर्यम्) = इस सूर्य को (मुञ्ज) = जानते हैं। २. इस सूर्य के द्वारा उस शर में सब प्राण स्थापित किये जाते हैं, (तेन) = उस प्राणशक्ति-सम्पन्न शर से (ते तन्वे) = तेरे शरीर के लिए मैं (शंकरम्) = शान्ति करता हूँ। (ते पृथिव्याम्) = तेरे पृथिवीरूप शरीर में (निषेचनम्) = इस शर के रस का सेचन होता है और (बाल् इति) = क्योंकि यह प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाला है, अत: (ते बहिः अस्तु) = तेरे शरीर से सब दोष बाहर हो जाए।

     

    भावार्थ

    सूर्य से शक्ति-सम्पन्न होकर शर हमारे शरीरों को निर्दोष बनाता है।

    सूचना

    इस सूक्त के पाँच मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र में पर्जन्य को शर का पिता कहा गया है, चतुर्थ में चन्द्र को तथा पाँचवें में सूर्य को। द्वितीय और तृतीय मन्त्र में मित्र और वरुण इस शर के पिता हैं। ये मित्र और वरुण वस्तुत: ('प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ') इस शतपथवचन [१।८।३।१२] के अनुसार प्राण और उदान हैं। 'प्राण' अम्लजन है और 'उदान' उद्जन है। ये दोनों मिलकर ही प्रथम मन्त्र के पर्जन्य का निर्माण करते हैं। एवं, ये दोनों मन्त्र प्रथम मन्त्र के व्याख्याभूत हो जाते हैं। (अर्धमसो वै मित्रावरुणौ, य एवं आपूर्यते स वरुणः, यो उपक्षीयते स मित्र:) [शतपथ २।४।४।१८] के अनुसार मित्र और वरुण कृष्ण व शुक्लपक्ष हैं और इनका सम्बन्ध चतुर्थ मन्त्र के चन्द्र से है।('अहोरात्रौ वै मित्रावरुणौ') [तां० २५।१०।१०] के अनुसार मित्र और वरुण दिन और रात हैं जिनका निर्माण सूर्य के अधीन है। यह सूर्य ही पञ्चम मन्त्र में शर का पितर कहा गया है। इस सारे विवेचन से यह स्पष्ट है कि मित्र और वरुण का सम्बन्ध 'पर्जन्य, चन्द्र और सूर्य' तीनों से है। यहाँ मित्र-वरुण के एक ओर पर्जन्य है तो दूसरी ओर चन्द्र और सूर्य। इस क्रम द्वारा भी उपर्युक्त सम्बन्ध सङ्केतित हो रहा है। इस सूक्त के पाँच मन्त्रों में पर्जन्य आदि पाँच को शर का पिता कहा गया है। वे सब शर में शतश: शक्तियों का आधान करते हैं और उससे शर हमारे शरीरों को निर्दोष बनाता है। इस सूक्त के

    अगले चार मन्त्रों में मूत्र-दोष निवारण का उल्लेख है। इस दोष के दूरीकरण पर ही स्वास्थ्य का बहुत कुछ निर्भर होता है -

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    भाषार्थ

    सूर्यम् = सूर्य तो सौर-जगत् का राजा है । इसके नियन्त्रण में सब ग्रह, उपग्रह हैं। इन पर सूर्य निज ताप और प्रकाश की वर्षा द्वारा सुखों की वर्षा कर रहा है, प्रदान कर रहा है। सूर्य तो इतना प्रतापी है कि उसके प्रकाश में, असंख्य तारागणों वाले द्युलोक का प्रकाश भी विलुप्त हो जाता है। शेषार्थ पूर्ववत् ।

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    विषय

    शर और शलाका का वर्णन ( वस्तिचिकित्सा ) ।

    भावार्थ

    ( शतवृष्ण्यं सूर्यं शरस्य पितरं विद्म ) सैकड़ों सामर्थ्यों से युक्त सूर्य को शर का पालक जानते हैं (तेन०) उससे तेरे शरीर का कल्याण करता हूं, रोगकारी मूत्र बलपूर्वक शरीर से बाहर आवे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः पर्जन्यमित्रादयो बहवो देवताः। १-५ पथ्यापंक्ति, ६-९ अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Health of Body and Mind

    Meaning

    We know Shara’s father, the sun, of a hundredfold virility. Thereby I bring you health of mind and body with peace and tranquillity. Let there be infusion of vigour, protection of health and cleansing of the system here itself on earth without delay.

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    Translation

    We all know the reed’s father to be the Sun (or impeller or creator, Savitr) having: hundred-fold generative power. With this (reed) I shall bring weal and comfort to your body. May there be your out pouring on the earth. May it and all of it, come out of you with a splash (Surya or Savitr).

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    Translation

    We know the sun possessing hundreds of powers which is the protector of the Sharah. By using this I bring health of your body, let the urine stopped in your urine pipe pour out freely on the ground.

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    Translation

    We know God, the Master of hundred powers, serviceable like the Sun, as the Father of the warrior, who wields the shaft. With that knowledge, may I bring health unto thy body, May thou prosper on the Earth. May all ills in thy body be soon removed. (13)

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−सूर्यम्। राजसूयसूर्येत्यादिना। पा० ३।१।११४। इति सृ सरणे क्यप्। निपातनाद् ऋकारस्य ऊत्वम्। सरत्याकाशे स सूर्यः। यद्वा, षू प्रेरणे, तुदादिः−क्यप्, रुट् आगमः। सुवति प्रेरयति लोकान् कर्मणि स सूर्यः। यद्वा सु+ईर गतौ कर्मणि क्यपि निपात्यते। वायुना। सुष्ठु ईर्यते प्रेर्य्यते स सूर्यः। सूर्यः सर्त्तेर्वा सुवतेर्वा स्वीर्य्यतेर्वा। इति यास्कः−निरु० १२।१४। आदित्यम्, सूर्यवत् उपकारकम्। शेषम्−व्याख्यातम् मं० १ ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (শরস্য) শত্রুনাশক বীরের (পিতরং) রক্ষক (সূর্য্যং) প্রেরণাদাতা সূর্য তুল্য (শত বৃষ্ণ্যাং) বহু সামর্থযুক্ত পরমেশ্বরকে (বিদ্ম) আমরা জানি। (তেন) তাহা দ্বারা (তে) তোমার (তন্বে) শরীরের জন্য (শং) আরোগ্য (করং) করি। (পৃথিব্যাং) পৃথিবীতে (তে) তোমার (নি সেচনং) বহু সিঞ্চন হউক। (তে) তোমার (বাল্) শত্রু (বহিঃ) বহির্গত (অস্ত্র) হউক । (ইতি) এই পর্যন্ত।।
    ‘সূৰ্য্যাং’ সৃ সরণে ক্যপ্। গতিদাতারং গতিশীলং বা। সরত্যাকাশে স সূর্য্যঃ। সু-ঈর গতৌ কর্মণি ক্যপি নিপাত্যতে। বায়ূনা সুষ্ঠু ঈয়তে প্রের্য়তে স সূর্য্যঃ। সূর্য্যঃ সর্ত্তেবা সুবতের্রা স্বীয়তের্রা। নিরুক্ত ১২.১৪।।

    भावार्थ

    শত্রুনাশক বীরের রক্ষক, গতিশীল ও গতিদাতা সূর্যতুল্য উপকারী এবং বহু সামর্থযুক্ত পরমেশ্বরকে আমরা জানি । সেই জ্ঞান দ্বারা তোমার শরীরকে নীরোগ করি। পৃথিবীতে তোমার বহুবিধ উন্নতি হউক । তোমার শত্রু দূরীভূত হউক।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিদ্ম শরস্য পিতরং সূৰ্য্যং শত বৃষ্ণ্যম্ । তেনা তে তন্বে ৩ শং। করং পৃথিব্যাং তে নিষেচনং বহিষ্টে অস্ত্র বালিতি।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    অর্থবা। পর্জন্যাদয়ো মন্ত্রোক্তাঃ। পথ্যা পঙ্ক্তি

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    मन्त्र विषय

    (শান্তিকরণম্) শান্তির জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (শরস্য) শত্রুনাশক [বা বাণধারী] শৌর্যশালীর (পিতরম্) রক্ষক, পিতা (সূর্যম্) চালনাকারী সূর্যের সমান [উপকারী] (শতবৃষ্ণ্যম্) শতাধিক সামর্থ্যবান [পরমেশ্বর]কে (বিদ্ম) আমরা জানি। (তেন্) সেই [জ্ঞান] দ্বারাই/থেকেই (তে) তোমার (তন্বে) শরীরের জন্য (শম্) আরোগ্য (করম্) আমি/আমরা প্রদান করি এবং (পৃথিব্যাম্) পৃথিবীতে (তে) তোমার (নিসেচনম্) অনেক সেচন [বৃদ্ধি] হোক এবং (তে) তোমার (বাল্) শত্রু (বহিঃ) বাইরে (অস্তু) হোক, (ইতি) এটাই আকাঙ্ক্ষা॥৫॥

    भावार्थ

    (সূর্য) আকাশে বায়ুর মাধ্যমে চলে এবং লোক লোকান্তর চালনা করে এবং বৃষ্টি আদি উপকার করে এবং প্রচুর তেজের অধিকারী। পরব্রহ্ম সেই সূর্যেরও সূর্য। পরমাত্মার উপকারিতা জেনেই তেজস্বী মনুষ্য পরস্পর উন্নতি করে/করুক ॥৫॥

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    भाषार्थ

    সূর্যম্ = সূর্য তো সৌর-জগতের রাজা। এর নিয়ন্ত্রণে সকল গ্রহ, উপগ্রহ আছে। এগুলোর ওপর সূর্য নিজ তাপ ও আলোর বর্ষা দ্বারা সুখের বর্ষণ করছে, প্রদান করছে। সূর্য তো এত প্রতাপী যে তার আলোতে, অসংখ্য তারা-বিশিষ্ট দ্যুলোকেরও আলো বিলুপ্ত হয়ে যায়। শেষার্থ পূর্ববৎ ।

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