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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    18

    एमा अ॑गुर्यो॒षितः॒ शुम्भ॑माना॒ उत्ति॑ष्ठ नारि त॒वसं॑ रभस्व। सु॒पत्नी॒ पत्या॑ प्र॒जया॑ प्र॒जाव॒त्या त्वा॑गन्य॒ज्ञः प्रति॑ कु॒म्भं गृ॑भाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒मा: । अ॒गु॒: । यो॒षित॑: । शुम्भ॑माना: । उत् । ति॒ष्ठ॒ । ना॒रि॒ । त॒वस॑म् । र॒भ॒स्व॒ । सु॒ऽपत्नी॑ । पत्या॑ । प्र॒ऽजया॑ । प्र॒जाऽव॑ती । आ । त्वा॒ । अ॒ग॒न् । य॒ज्ञ: । प्रति॑ । कु॒म्भम् । गृ॒भा॒य॒ ॥१.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमा अगुर्योषितः शुम्भमाना उत्तिष्ठ नारि तवसं रभस्व। सुपत्नी पत्या प्रजया प्रजावत्या त्वागन्यज्ञः प्रति कुम्भं गृभाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इमा: । अगु: । योषित: । शुम्भमाना: । उत् । तिष्ठ । नारि । तवसम् । रभस्व । सुऽपत्नी । पत्या । प्रऽजया । प्रजाऽवती । आ । त्वा । अगन् । यज्ञ: । प्रति । कुम्भम् । गृभाय ॥१.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (इमाः) ये सब (शुम्भमानाः) शुभगुणोंवाली (योषितः) सेवायोग्य स्त्रियाँ (आ अगुः) आई हैं, (नारि) हे शक्तिमती स्त्री। (उत् तिष्ठ) खड़ी हो, (तवसम्) बलयुक्त व्यवहार को (रभस्व) आरम्भ कर। (पत्या) [श्रेष्ठ] पति के साथ (सुपत्नी) श्रेष्ठ पत्नी, (प्रजया) [उत्तम] सन्तान के साथ (प्रजावती) उत्तम सन्तानवाली [तू है], (यज्ञः) श्रेष्ठ व्यवहार (त्वा) तुझको (आ अगन्) प्राप्त हुआ है, तू (कुम्भम्) भूमि को पूरण करनेवाले [शुभ व्यवहार] को (प्रति गृभाय) स्वीकार कर ॥१४॥

    भावार्थ

    जिस गुणवती स्त्री को गुणवती स्त्रियाँ प्रधाना बनावें, वह अपने गुणी पति और सन्तानों के साथ आनन्द करती हुई सबको सुखी रक्खे ॥१४॥

    टिप्पणी

    १४−(आ अगुः) आगमन् (इमाः) (योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः स्त्रियः (शुम्भमानाः) शोभनगुणवत्यः (उत्तिष्ठ) उत्थिता भव (नारि) म० १३। हे शक्तिमति स्त्रि (तवसम्) तवस्-अर्शआद्यच्। तवो बलनाम-निघ० २।९। बलयुक्तं व्यवहारम् (रभस्व) आरम्भितं कुरु (सुपत्नी) पत्नीनां श्रेष्ठतमा (पत्या) श्रेष्ठसन्तानेन सह (प्रजावती) उत्तमसन्तानयुक्ता (त्वा) त्वाम् (आ अगन्) प्रापत् (यज्ञः) श्रेष्ठव्यवहारः (कुम्भम्) अ० १।६।४। कु+उम्भ पूरणे-अच्, शकन्ध्वादिरूपम्। कुं भूमिमुम्भति पूरयति यस्तं श्रेष्ठव्यवहारम् (प्रतिगृभाय) प्रतिगृहाण। स्वीकुरु ॥

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    विषय

    सुपत्नी-प्रजावती

    पदार्थ

    १. (शुम्भमाना:) = शोभनालंकारों व उत्तम गुणों से युक्त (इमाः योषित:) = ये नारियाँ आ अगुः घरों में प्राप्त हुई हैं। हे (नारि) = गृहकार्य प्रणेत्रि! तू (उत्तिष्ठ) = उठ-आलस्य को परे फेंककर कार्यों में लग। (तवस रभस्व) = शक्तिशाली पति का आलिंगन करनेवाली बन। २. तु (पत्या सुपत्नी) = इस पति से उत्तम पतिवाली बन। (प्रजया प्रजावती) = प्रजा से प्रशस्त प्रजावाली हो। (त्वा) = तुझे (यजः आ अगन्) = यज्ञ समन्तात् प्राप्त हो-तू सदा यज्ञशील हो। (कुम्भम्) = [क+उम्भ् पूरणे] तु सुख का पूरण करनेवाले कार्य को ही (प्रतिगृभाय) = प्रतिदिन ग्रहण करनेवाली हो।

    भावार्थ

    शुभ गुणों से अलंकृत गृहिणी आलस्य को छोड़कर घर के कार्यों में व्याप्त रहे। उसका शक्तिशाली पति से सम्पर्क हो। यह उत्तम पति व प्रशस्त सन्तानोंवाली हो। यज्ञशील हो। सुख का पूरण करनेवाले कार्यों को ही स्वीकार करे।

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    भाषार्थ

    (इमाः) ये (शुम्भमानाः) शोभायमान (योषितः) स्त्रियां (आ अगुः) आ गई हैं, (नारि) हे राजपत्नि! (उत्तिष्ठ) उठ (तवसं रभस्व) शीघ्रता कर उन के स्वागत के लिये। (प्रजया) प्रजा के कारण (प्रजावती) श्रेष्ठ प्रजा वाली, (सुपत्नी) तथा उत्तमपति वाली तू (पत्या) पति के साथ मिल कर शीघ्रता कर, (त्वा) तॖझे (यज्ञः) अतिथि-यज्ञ (आ अगन्) प्राप्त हुआ है, (कुम्भम्) जलकुम्भ (प्रति गृभाय) पकड़।

    टिप्पणी

    [तवसम्= तव, सम् रभस्व (सायण)। तवस् बलनाम (निघं० २।९) तवसः महन्नाम (निघं० ३।३)। परन्तु मन्त्र में "शीघ्रता" अर्थ प्रतीत होता है। प्रजया प्रजावती= प्रजापद द्वारा राष्ट्रिय प्रजा अभिप्रेत है। पति, सम्राट् या राजा है, अतः राजपत्नी राज्ञी होने के कारण प्रजा वाली है। शोभायमान स्त्रियां राजपत्नी द्वारा आमन्त्रित हैं। अतः उन के स्वागत के लिये राजपत्नी के सम्बन्ध में उत्तिष्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है। राजपत्नी के साथ राजा भी स्वागत करता है। यह यज्ञ अतिथियज्ञ है जिस में कि अतिथियों को भोजनार्थ आमन्त्रित किया है। "कुम्भं गृभाय" द्वारा यह निर्देश किया है कि जल ले कर भात बनवाने की तैयारी करो; जैसे कि अगले मन्त्रों में निर्देश हुआ है। तवसम् = तु गतौ, शीघ्रगति]।

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    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    पत्नी और अन्य स्त्रियों के प्रति दृष्टान्त से राजसभा के कर्तव्यों का उपदेश करते हैं। (इमाः योषितः) ये स्त्रियां (शुम्भमानाः, आ अगुः) शोभित होकर वस्त्र अलंकारादि से सज कर आती हैं। (हे नारि उत्तिष्ठ तवसं रभस्व) हे नारि ! पत्नी ! तू बलवान् पुरुष को अपना पतिस्वरूप प्राप्त कर। (पत्या सुपत्नी) उत्तम पति के द्वारा ही स्त्री सुपत्नी अर्थात् उत्तम पत्नी कहती है। और (प्रजया प्रजावती) उत्तम प्रजा-सन्तान से स्त्री प्रजावती कहाती है। (यज्ञः त्वा अगन्) यज्ञ अर्थात् सत् पुरुष का लाभ तुझे प्राप्त हुआ है (कुम्भं प्रति गृभाय) जल से भरे कुम्भ को ग्रहण कर और उसकी पूजा सत्कार कर। राजसभा पक्ष में—(इमाः योषितः) ये प्रजाएं (शुम्भमानाः) सुशोभित होकर (आ अगुः) प्राप्त होती हैं। है (नारि) नेतृजनों की सभे ! (तवसम्) बलवान् राजा को अपना पति स्वामी रूप (रभस्व) प्राप्त कर। तू (पत्या) अपने पति रूप राजा से (सुपत्नी) उत्तम पत्नी के समान उसके राष्ट्र को उत्तम रूप से पालन करने हारी है और राष्ट्र की (प्रजया) प्रजा से ही (प्रजावती) पजावती है। (यज्ञः त्वा आ अगन्) यज्ञरूप प्रजापति तुझे प्राप्त हुआ है। (कुम्भं प्रति गृभाय) कुम्भ रूप राष्ट्र को स्वयं स्वीकार कर। राष्ट्र द्रोणकलशः। तां० ६। ६। १॥

    टिप्पणी

    तव। संरभस्वेति सायणाभिमतः पदच्छेदः। ‘तवसं। रभस्व’ इति पदपाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    O First Lady of the Order, these bright and gracious women have come. Rise and welcome them all enthusiastically. Noble wife of a noble husband, blessed mother of noble progeny, along with your husband and your children, a sacred yajnic occasion for good fellowship has come to you. Take up the jar of water and offer them the hospitality of welcome.

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    Translation

    These maidens (yosit) have come, adorning themselves; stand up, woman take hold of the mighty one; well-spoused with husband, progeny possessing with progeny (prajavatya), to thee hath come the sacrifice; recieve thou the vessel.

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    Translation

    O Woman! these ladies adorned in lustures are engaged in attaining their goals of life. You arise and seize upon your strength. May you be good wife with your husband, have good progeny and the good and virtuous dealing be with your side. You accept (Kumbha) the pitcher always for performing Yajna.

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    Translation

    These subjects are attained in their radiant beauty. O House of Lords, be active, elect a strong man as thy head! As a good wife, thou art the nice administrator of the State of thy Lord, the King. Thou art fortunate with good people as thy subjects. Nice administration of justice is thy rule of conduct. Accept the administration of this big State.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(आ अगुः) आगमन् (इमाः) (योषितः) अ० १।१७।१। सेव्याः स्त्रियः (शुम्भमानाः) शोभनगुणवत्यः (उत्तिष्ठ) उत्थिता भव (नारि) म० १३। हे शक्तिमति स्त्रि (तवसम्) तवस्-अर्शआद्यच्। तवो बलनाम-निघ० २।९। बलयुक्तं व्यवहारम् (रभस्व) आरम्भितं कुरु (सुपत्नी) पत्नीनां श्रेष्ठतमा (पत्या) श्रेष्ठसन्तानेन सह (प्रजावती) उत्तमसन्तानयुक्ता (त्वा) त्वाम् (आ अगन्) प्रापत् (यज्ञः) श्रेष्ठव्यवहारः (कुम्भम्) अ० १।६।४। कु+उम्भ पूरणे-अच्, शकन्ध्वादिरूपम्। कुं भूमिमुम्भति पूरयति यस्तं श्रेष्ठव्यवहारम् (प्रतिगृभाय) प्रतिगृहाण। स्वीकुरु ॥

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