अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
20
अदि॑ते॒र्हस्तां॒ स्रुच॑मे॒तां द्वि॒तीयां॑ सप्तऋ॒षयो॑ भूत॒कृतो॒ यामकृ॑ण्वन्। सा गात्रा॑णि वि॒दुष्यो॑द॒नस्य॒ दर्वि॒र्वेद्या॒मध्ये॑नं चिनोतु ॥
स्वर सहित पद पाठअदि॑ते: । हस्ता॑म् । स्रुच॑म् । ए॒ताम् । द्वि॒तीया॑म् । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । भू॒त॒ऽकृत॑: । याम् । अकृ॑ण्वन् । सा । गात्रा॑णि । वि॒दुषी॑ । ओ॒द॒नस्य॑ । दर्वि॑: । वेद्या॑म् । अधि॑ । ए॒न॒म् । चि॒नो॒तु॒ ॥१.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
अदितेर्हस्तां स्रुचमेतां द्वितीयां सप्तऋषयो भूतकृतो यामकृण्वन्। सा गात्राणि विदुष्योदनस्य दर्विर्वेद्यामध्येनं चिनोतु ॥
स्वर रहित पद पाठअदिते: । हस्ताम् । स्रुचम् । एताम् । द्वितीयाम् । सप्तऽऋषय: । भूतऽकृत: । याम् । अकृण्वन् । सा । गात्राणि । विदुषी । ओदनस्य । दर्वि: । वेद्याम् । अधि । एनम् । चिनोतु ॥१.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(भूतकृतः) उचित कर्म करनेवाले (सप्तऋषयः) सात ऋषियों [व्यापनशील वा दर्शनशील, अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] ने (अदितेः) अदिति [अखण्ड व्रतवाली प्रजा] के (याम्) जिस (हस्ताम्) खिली हुई [एताम्] इस (द्वितीयाम्) दूसरी [शारीरिक से भिन्न मानसिक] (स्रुचम्) स्रुचा [डोई अर्थात् चित्तवृत्ति] को (अकृण्वन्) बनाया है, (ओदनस्य) ओदन [सुख की वर्षा करनेवाले अन्नरूप परमात्मा] के (गात्राणि) अङ्गों [गुणों के तत्त्वों] को (विदुषी) जानती हुई (सा) वह (दर्विः) करछी [चित्तवृत्ति] (वेद्याम्) वेदी पर [हृदय में] (एनम्) इस [अन्नरूप परमात्मा] को (अधि) अधिक-अधिक (चिनोतु) एकत्र करे ॥२४॥
भावार्थ
इन्द्रियों द्वारा विषयों के ज्ञान से बाहिरी और भीतरी दो वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। बाहिरी वृत्ति भीतरी वृत्ति के आधीन है। योगी को उचित है कि भीतरी वृत्तियों को परमात्मा के गुणों में लगाकर उस जगदीश्वर को अपने हृदय में बैठावे, जैसे वेदी पर चढ़ी बटलोही के घृत आदि को करछी से संभाल-संभाल कर उपकारी बनाते हैं ॥२४॥
टिप्पणी
२४−(अदितेः) म० १। अखण्डव्रतायाः प्रजायाः (हस्ताम्) इडभावः। हसिताम्। विकसिताम्। मनोहराम् (स्रुचम्) चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ- चिक्। यज्ञपात्रम्। चमसम्। चित्तवृत्तिमित्यर्थः (एताम्) (द्वितीयाम्) शारीरिकभिन्नां मानसीम् (सप्तऋषयः) म० १। त्वक्चक्षुःश्रवणादयः (भूतकृतः) म० १। उचितकर्मकर्तारः (याम्) स्रुचम्। (अकृण्वन्) अकुर्वन् (सा) (गात्राणि) अङ्गानि। गुणतत्त्वानि (विदुषी) जानती (ओदनस्य) सुखवर्षकस्यान्नरूपस्य परमात्मनः (दर्विः) उल्मुकदर्विर्होमनः। उ० ३।८४। दॄ विदारणे-विन्। व्यञ्जनादिहारकं पात्रम् (वेद्याम्) यज्ञभूमौ (अधि) उपरि (एनम्) ब्रह्मौदनम् (चिनोतु) राशीकरोतु ॥
विषय
'नर व नारी' ज्ञान संचेता बनें
पदार्थ
१. स्वाध्याय को ज्ञानयज्ञ कहा जाए तो वाणी उस यज्ञ का 'नुच' बनती है [a wooden ladle]| (अदिते:) = अदीना देवमाता इस वेदज्ञान का यह (द्वितीयाम्) = दूसरा (हस्ताम्) = [हस् to brighten up] चमकता हुआ (स्त्रुचम्) = चम्मच है [वाग् वै खुच:-श०६।३।१।८]। यह वाणीरूप चम्मच वह चम्मच है (यां एताम्) = जिस वाणीरूप चम्मच को (सप्त ऋषयः) = प्रभु का पूजन करनेवाले व वासनाओं का संहार करनेवाले [सर्प to worship, ऋtokill] (भूतकृत:) = यथार्थ कर्मों को करनेवाले लोग (अकृण्वन्) = अपने अन्दर सम्पादित कराते हैं। इस वाणीरूप चम्मच द्वारा ही वे ज्ञानरूप घृत की आहुति हृदयरूप वेदि में प्रास कराते है। २. गृहपत्नी से कहते हैं कि (सा) = वह (दर्विः) = [दृ विदारणे] वासनाओं को विदीर्ण करनेवाली तू (ओदनस्य) = इस ब्रह्मौदन के (गात्राणि विदुषी) = अङ्गों को जानती हुई (वेद्याम्) = हृदयबेदि में (एनम्) = इस ब्रह्मौदन को (अधिचिनोतु) = आधिक्येन संचित करनेवाली हो। तू भी खुब ही ज्ञान को प्राप्त करनेवाली बन।
भावार्थ
घर में पुरुष भी 'सप्त ऋषि व भूतकृत्' बनकर वाणी द्वारा ज्ञान को प्राप्त करे तथा गृहपनी भी वासनाओं को विदीर्ण करनेवाली बनकर ज्ञान का संचय करे।
भाषार्थ
(भूतकृतः) सत्यानुष्ठानी (सप्त ऋषयः) सात ऋषियों ने (याम् एताम् स्रुचम) जिस इस स्रुच् अर्थात् जुहू को, जो कि हस्ताकृति की है, (अदितेः) भूमिमाता रूपी राजपत्नी का (द्वितीयाम् हस्ताम्) दूसरा हाथ (अकृण्वन) निश्चित किया है, (सा) वह स्रुच अर्थात् जुहू (दर्विः) कड़छी रूप हो कर, (ओदनस्य) ब्रह्मौदन के (गात्राणि) अवयवों को (विदुषी) जानती हुई सी, (एनम्) इस ब्रह्मौदन को (वेद्याम्, अधि) वेदि में (चिनोतु) संचित करे।
टिप्पणी
[भूतकृत=सत्यानुष्ठानी, भूत= True, सत्य (आप्टे)। सप्त ऋषयः=राजा या सम्राट् के सचिव (मन्त्र १,३)। स्रुचम्, हस्ताम्=हस्त की आकृति वाली "जुहू", जिस द्वारा कि आहुतियां दी जाती हैं। जुहूः=जुहोति यथा सा। दर्विः=दृ विदारणे अर्थात् कड़छी, जिस द्वारा कि पके ओदन के अवयवों को विदारित किया जाता है, अलग-अलग किया जाता है। अदितेः=अदितिः पृथिवीनाम (निघं० १।१) मन्त्र १)। अभिप्राय यह कि ब्रह्मौदन को तय्यार करना है राजपत्नी ने। ब्रह्मौदन जब तय्यार हुआ, पक गया, तब यह अत्युष्ण है। इस पके ओदन के प्रत्येक ओदन को पृथक्-पृथक् करने में कोई साधन चाहिये। राजपत्नी का हाथ इस अत्युष्ण ओदन को पृथक्-पृथक् नहीं कर सकता। इसलिये स्रुच अर्थात् जुहू को ही दर्वि रूप मानकर ओदन के अवयवों को पृथक्-पृथक् करने का विधान सात ऋषियों ने किया। परिपक्व ओदन अभ्यागत अतिथियों को खिलाना है (मन्त्र २५), अतः गृहस्थी के लिये निश्चित पञ्चमहायज्ञों के अनुसार, पक्वान्न द्वारा बलिवैश्वयज्ञ भी करना है। तदर्थ स्रुच अर्थात् जुहू को राजपत्नी का हस्तरूप कहा है। जुहू द्वारा अग्नि में दी गई ओदनाहुतियां मानो राजपत्नी के हाथ द्वारा दी गई हैं। गृहपत्नी हाथ द्वारा हो वैश्वदेवाहुतियां अग्नि में देती और हाथ द्वारा ही प्राणियों के निमित्त पक्वान्न का विभाग करती है। ब्रह्मौदन को वेदि में संचित इसलिये किया गया है। ताकि इस की आहुतियां, वेदि की अग्नि में दी जा सकें। हस्ताम् में स्त्रीलिङ्ग स्रुचम् और जुहू की अपेक्षा से है]।
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
(भूतकृतः) प्राणियों की रचना या व्यवस्था करने वाले प्रजापति रूप (सप्तऋषयः) सातों ऋषियों ने (अदितेः) अदिति, अदीना देवमाता स्वरूप स्त्री के (हस्ताम्) हस्त स्वरूप (एताम्) इसको (याम्) जिसको (द्वितीयां स्त्रुचम्) यज्ञ ‘स्त्रुक्’ के अतिरिक्त दूसरी स्रुक् आहुति देने की चमसा (अकृण्वन्) बनाया है। (सा) वह (दर्विः) दर्वि—कड़छी रूप स्त्री (ओदनस्य) भात के (गात्राणि विदुषी) समस्त अंगों को जानने हारी होकर (एनम्) इसको (वेद्याम् अधि चिनोतु) वेदी में उत्तम रीति से स्थापित करे। राजपक्ष में—(भूतकृतः सप्तऋषयः) प्राणियों के उत्पादक या व्यवस्थापक सात ऋषियों ने (अदितेः हस्ताम्) अदिति पृथ्वी के हस्त रूप, हनन साधन, सेना रूप (याम्) जिस (एताम्) इसको (द्वितीयां स्रुचम् अकृण्वन्) दूसरी आहुति का ‘स्रुचा’ ही बनाया है। (सा दर्विः) वह शत्रुओं को विदारण करने में समर्थ (ओदनस्य गात्राणि विदुषी) क्षात्रबल या राजा के समस्त अंगों को जानने वाली (एनम्) इस राजा को (वेद्याम् अधि) इस पृथ्वी पर (अधि चिनोतु) स्थापित कर दे। योषा हि स्रुक्। शत० १। ४। ४। ४॥ बाहुर्वै स्त्रुचौ। श० ७। ४। १। ३६॥ विश्वाची वेदिः। घृताची स्त्रुक्। श० १। २। ३। १७॥ अर्थात्—गृहपत्नी का हाथ भी यज्ञ के स्रुचा के समान पवित्र है। वह स्वयं दर्वी रूप होकर ओदन को जिस प्रकार वेदी में रखती है उसी प्रकार सेना पृथ्वी के हस्तरूप युद्धयज्ञ की स्रुचा है। वह भी राजा के क्षात्र-बल के सब अंगों को जानती हुई पृथ्वी पर क्षात्र-बल को प्रतिष्ठित करती है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘हस्तं’, ‘द्वितीयं’ इति साणयाभिमतः पाठः। (द्वि०) ‘सप्तर्षयः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
This ladle, which seven Rshis, dynamic formative forces of nature, makers of material forms of the world, constituted and formed as the second service hand of inviolable mother Prakrti, and which is familiar with all parts and particles of Odana, yajnic food, may this ladel collect, concentrate and offer the fragrant oblation into the vedi (through the First Lady of the Order).
Translation
Aditi’s hand, this second ladle (sruc), which the seven-seers being makers, made -- let that spoon, knowing the members of the rice-dish, collect it upon the sacrificial hearth.
Translation
This is that motivated motive (Hastamsrucham) which the world producing seven elements make second of this material cause. This enveloping all the parts of the luminous whole of cosmos arranges all in their proper place and position.
Translation
Seven Rishis, the performers of worthy acts, have fashioned this beautiful second mental faculty of the people. This mental faculty knowing the attributes of God, the Bestower of joy, should fix Him in the heart.
Footnote
Darvi: Mental faculty. Vedi: Heart. Gatrani: The attributes. Second: Besides the external physical faculties. A yogi should concentrate his mental faculties on the attributes of God, and seat Him in his heart, just as a good cook puts the cauldron on the fire, and cautiously shakes its contents with the spoon, to cook it.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−(अदितेः) म० १। अखण्डव्रतायाः प्रजायाः (हस्ताम्) इडभावः। हसिताम्। विकसिताम्। मनोहराम् (स्रुचम्) चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ- चिक्। यज्ञपात्रम्। चमसम्। चित्तवृत्तिमित्यर्थः (एताम्) (द्वितीयाम्) शारीरिकभिन्नां मानसीम् (सप्तऋषयः) म० १। त्वक्चक्षुःश्रवणादयः (भूतकृतः) म० १। उचितकर्मकर्तारः (याम्) स्रुचम्। (अकृण्वन्) अकुर्वन् (सा) (गात्राणि) अङ्गानि। गुणतत्त्वानि (विदुषी) जानती (ओदनस्य) सुखवर्षकस्यान्नरूपस्य परमात्मनः (दर्विः) उल्मुकदर्विर्होमनः। उ० ३।८४। दॄ विदारणे-विन्। व्यञ्जनादिहारकं पात्रम् (वेद्याम्) यज्ञभूमौ (अधि) उपरि (एनम्) ब्रह्मौदनम् (चिनोतु) राशीकरोतु ॥
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