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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 34
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुब्बृगतीगर्भातिजगती सूक्तम् - भूमि सूक्त
    35

    यच्छया॑नः प॒र्याव॑र्ते॒ दक्षि॑णं स॒ख्यम॒भि भू॑मे पा॒र्श्वम्। उ॒त्ता॒नास्त्वा॑ प्र॒तीचीं॒ यत्पृ॒ष्टीभि॑रधि॒शेम॑हे। मा हिं॑सी॒स्तत्र॑ नो भूमे॒ सर्व॑स्य प्रतिशीवरि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । शया॑न: । प॒रि॒ऽआव॑र्ते । दक्षि॑णम् । स॒व्यम् । अ॒भि । भू॒मे॒ । पा॒र्श्वम् । उ॒त्ता॒ना: । त्वा॒ । प्र॒तीची॑म् । यत् । पृ॒ष्टीभि॑: । अ॒धि॒ऽशेम॑हे । मा । हिं॒सी॒: । तत्र॑ । न॒: । भू॒मे॒ । सर्व॑स्य । प्र॒ति॒ऽशी॒व॒रि॒ ॥१.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्छयानः पर्यावर्ते दक्षिणं सख्यमभि भूमे पार्श्वम्। उत्तानास्त्वा प्रतीचीं यत्पृष्टीभिरधिशेमहे। मा हिंसीस्तत्र नो भूमे सर्वस्य प्रतिशीवरि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । शयान: । परिऽआवर्ते । दक्षिणम् । सव्यम् । अभि । भूमे । पार्श्वम् । उत्ताना: । त्वा । प्रतीचीम् । यत् । पृष्टीभि: । अधिऽशेमहे । मा । हिंसी: । तत्र । न: । भूमे । सर्वस्य । प्रतिऽशीवरि ॥१.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 34
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (भूमे) हे भूमि ! (यत्) जब (शयानः) सोता हुआ मैं (दक्षिणम्) दाहिने [वा] (सव्यम्) बाएँ (पार्श्वम् अभि) करवट से (पर्य्यावर्ते) लेटता हूँ। (यत्) जब (उत्तानाः) चित होकर हम (प्रतीचीम्) प्रत्यक्ष मिलती हुई (त्वा) तुझ पर (पृष्टीभिः) [अपनी] पसलियों से (अधिशीमहे) सोते हैं। (सर्वस्य प्रतिशीवरि) हे सब को शयन देनेवाली (भूमे) भूमि ! (तत्र) उस [काल] में (नः) हमको (मा हिंसीः) मत कष्ट दे ॥३४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य पृथिवी को समचौरस बनाकर रहते हैं, वे सुख पाते हैं ॥३४॥

    टिप्पणी

    ३४−(यत्) यदा (शयानः) शयनं कुर्वन् (पर्यावर्ते) परिलुष्ठामि (दक्षिणम्) (सव्यम्) वामम् (भूमे) (पार्श्वम्) कक्षाधोभागम् (उत्तानाः) उत्+तनु विस्तारे−घञ्। ऊर्ध्वमुखशयानाः (त्वा) भूमिम् (प्रतीचीम्) प्रत्यक्षमञ्चन्ती प्राप्नुवतीम् (यत्) यदा (पृष्टीभिः) पार्श्वास्थिभिः (अधिशेमहे) शयनं कुर्मः (मा हिंसीः) मा वधीः (तत्र) तस्मिन् काले (नः) अस्मान् (भूमे) (सर्वस्य) (प्रतिशीवरि) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। शीङ् स्वप्ने−क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। प्राणिनः प्रत्यक्षं शेरतेऽस्यां सा प्रतिशीवरी तत्सम्बुद्धौ ॥

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    विषय

    सुखद-शयन

    पदार्थ

    १. हे (भूमे) = भूमिमात: ! (यत्) = जब (शयान:) = लेटा हुआ मैं (दक्षिणं सव्यं पाशवम् अभि) = दाहिने या बायें पासे की ओर (पर्यावर्ते) = करवट लूँ अथवा (यत्) = जब हम (उत्ताना:) = ऊर्ध्वमुख (प्रतीची त्वा) = जिसके पश्चिम की ओर हमारे पाँव हैं, ऐसी तुझपर (पृष्टीभिः) = पीठ के मोहरों के बल पर (अधिशेमहे) = शयन करते हैं, तब (तत्र) = वहाँ, हे (भूमे) = भूमिमातः! (न: मा हिंसी:) = हमें हिंसित मत कर । (सर्वस्व प्रतिशीवरि) = तू तो सबको अपनी गोद में सुलानेवाली जननी है। हे जननि! तू हमें हिंसित न होने देना।

    भावार्थ

    हम समय पर भूमि माता की गोद में सुखपूर्वक शयन करें।

    सूचना

    यहाँ यह स्पष्ट है कि [क] यथासम्भव नीचे सोना। [ख] पाँव पश्चिम में हो। [ग] सदा एक पासे नहीं लेटे रहना। [घ] कभी कभी उत्तान शयन भी आवश्यक है।

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    भाषार्थ

    (भूमे) हे भूमि ! (शयानः) सोता हुआ मैं (यत्) जो (दक्षिणं सव्यं पार्श्वम् अभि) दाएँ-बाएँ पासों को (पर्यावर्ते) बदलता हूं, तथा (उत्तानाः) ऊर्ध्वमुख हो कर (यत्) जो (प्रतीचीं त्वा) पीठ की ओर वर्तमान तुझ पर (पृष्टीभिः) पीठ की अस्थियों द्वारा (अधिशेमहे) हम सोते हैं, (तत्र) उस अवस्था में, (सर्वस्य प्रतिशीवरि भूमे) सब को सुलाने वाली हे भूमि ! (नः) हमारी (मा हिंसीः) तू हिंसा न कर।

    टिप्पणी

    [करवटों पर तथा ऊर्ध्वमुख की अवस्था में सोने पर व्यक्ति स्वस्थ रहता है। अधोमुख अवस्था में सोने पर नासिका द्वारा श्वास प्रश्वास की गति ठीक नहीं रहती, और छाती के दबे रहने से फेफड़ों का संकोच-विकास भी उचित अवस्था में नहीं रहता। इस से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है,– यह ही हिंसा है]।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    हे भूमे ! (यत्) जब मैं (शयानः) सोता हुआ (दक्षिणं सव्यम् अभि, सव्यं दक्षिणम् अभि) दायें से बायें और बायें से दायें (पार्श्वम्) पासे को (परि आवर्ते) करवट लूं और (यत्) जब हम (त्वा) तुझको अपने नीचे किये हुये (उत्तानाः) स्वयं उतान हुए (पृष्टीभिः) पीठ के मोहरों के बल पर, हे (सर्वस्य प्रतिशीवरि) सबको अपने ऊपर सुलाने वाली माता के समान जननी ! (नः) हमें तू (मा हिंसीः) कभी मत मार।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘सव्यमपि’ (च०) ‘पृष्द्वा यद् ऋद्वाशेमहे’ (द्वि०) ‘भौमे’ (पं०) ‘भौमे’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (भूमे यत्-शयानः-दक्षिणं सव्यं पार्श्वम्-अभि पर्यावर्ते) हे भूमि ! जब मैं सोता हुआ दक्षिण पार्श्व को वामपार्श्व की ओर या वाम पार्श्व को दक्षिण की ओर घूमाता हूँ- करवट बदलता हूँ (यत्-उत्तनाः त्वा प्रतीचीं पृष्ठीभिः-अधिशेमहे) जब उत्तान- चित्त होकर तुझे नीचे पीठ की हड्डियों से दबाये हुए हम सोते हैं-सोता हूँ 'अस्मदो द्वयोश्च बहुवचनम्' (तत्भूमे नः सर्वस्य प्रतिशीवरि) शयनकाल में हे सबको सुलाने वाली पृथिवी ! (मा हिंसी:) हमारी हिंसा न करना ॥३४॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    O Motherland, while I sleep and change sides right and left, and when we lie face upward and back on the ground, then O Motherland, gracious giver of restful support and sleep to all, pray do not hurt us.

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    Translation

    In that, lying, I turn myself about upon the right (or) the left side, O earth; in that we with our ribs lie stretched out upon thee that meetest us -- do not in that case injure us, O earth thou underlier of everything.

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    Translation

    When, as I lie down I turn upon my right or left side, or when stretched at full length, we sleep upon the earth touching our ribs, may not she, then who furnishes as a bed for all, hurt us.

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    Translation

    When, as I lie, O Earth, I turn upon my right side and my left, when stretched at all our length we lay our ribs on thee who liest beneath us, do us no injury there, O Earth who furnishest a bed for all.

    Footnote

    Let us enjoy undisturbed sleep in whatever posture we sleep.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३४−(यत्) यदा (शयानः) शयनं कुर्वन् (पर्यावर्ते) परिलुष्ठामि (दक्षिणम्) (सव्यम्) वामम् (भूमे) (पार्श्वम्) कक्षाधोभागम् (उत्तानाः) उत्+तनु विस्तारे−घञ्। ऊर्ध्वमुखशयानाः (त्वा) भूमिम् (प्रतीचीम्) प्रत्यक्षमञ्चन्ती प्राप्नुवतीम् (यत्) यदा (पृष्टीभिः) पार्श्वास्थिभिः (अधिशेमहे) शयनं कुर्मः (मा हिंसीः) मा वधीः (तत्र) तस्मिन् काले (नः) अस्मान् (भूमे) (सर्वस्य) (प्रतिशीवरि) शीङ्क्रुशिरुहि०। उ० ४।११४। शीङ् स्वप्ने−क्वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। ङीब्रेफौ। प्राणिनः प्रत्यक्षं शेरतेऽस्यां सा प्रतिशीवरी तत्सम्बुद्धौ ॥

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