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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भूमिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भूमि सूक्त
    35

    अ॒हम॑स्मि॒ सह॑मान॒ उत्त॑रो॒ नाम॒ भूम्या॑म्। अ॑भी॒षाड॑स्मि विश्वा॒षाडाशा॑माशां विषास॒हिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । अ॒स्मि॒ । सह॑मान: । उत्त॑र: । नाम॑ । भूम्या॑म् । अ॒भी॒षाट् । अ॒स्मि॒ । वि॒श्वा॒षाट् । आशा॑म्ऽआशाम् । वि॒ऽस॒स॒हि: ॥१.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमस्मि सहमान उत्तरो नाम भूम्याम्। अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । अस्मि । सहमान: । उत्तर: । नाम । भूम्याम् । अभीषाट् । अस्मि । विश्वाषाट् । आशाम्ऽआशाम् । विऽससहि: ॥१.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 1; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    राज्य की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं [मनुष्य] (सहमानः) जीतनेवाला और (भूम्याम्) भूमि पर (नाम) नाम के साथ (उत्तरः) अधिक ऊँचा (अस्मि) हूँ। मैं (अभीषाट्) विजयी, (विश्वाषाट्) सर्वविजयी और (आशामाशाम्) प्रत्येक दिशा में (विषासहिः) हरा देनेवाला (अस्मि) हूँ ॥५४॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य योग्यता प्राप्त करके आगे बढ़ता जाता है, तब संसार में कीर्ति बढ़ाकर सब में उच्च पद पाता है ॥५४॥

    टिप्पणी

    ५४−(अहम्) मनुष्यः (अस्मि) (सहमानः) अभिभवनशीलः (उत्तरः) उच्चतरः (नाम) नाम्ना। कीर्त्या (भूम्याम्) (अभीषाट्) छन्दसि सहः। पा० ३।२।६३। षह मर्षणे−ण्वि। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। पूर्वपदस्य दीर्घः। सहेः साडः सः। पा० ८।३।५६। इति षत्वम्। सर्वतो जेता (अस्मि) (विश्वाषाट्) पूर्ववत् सिद्धिः। सर्वजेता (आशामाशाम्) प्रतिदिशम् (विषासहिः) अ० १।२९।६। विविधजयशीलः ॥

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    विषय

    अभीषाद-विश्वषाद

    पदार्थ

    १.(अहम्) = मैं (सहमान:) = 'सर्दी, गर्मी' आदि द्वन्द्वों को सहनेवाला और (भूम्याम्) = इस पृथिवी पर (उत्तरः नाम अस्मि) = उत्कृष्टतर यश-[नाम]-वाला हूँ। (अभीषाट् अस्मि) = मैं चारों ओर से आक्रमण करनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं का मषर्ण करनेवाला हूँ। (विश्वाषा) = [विशन्ति] न चाहते हुए भी मेरे अन्दर घुस आनेवाले इन शत्रुओं का मैं पराभव करनेवाला हूँ। आशां आशां (विषासहिः) = मैं प्रत्येक दिशा में शत्रुओं को पराजित करनेवाला हूँ। अथवा [आशा-इच्छा] सब इच्छाओं को कुचल देनेवाला हूँ।

    भावार्थ

    इस भूपृष्ठ पर मैं हुन्ढों का सहन करनेवाला बनूँ और इसप्रकार उत्कृष्ट जीवनवाला होऊँ। चारों ओर से आक्रमण करते हुए व मेरे न चाहते हुए भी मुझमें प्रवेश करते हुए काम क्रोध आदि को मैं जीतूं। सब भौतिक इच्छाओं से ऊपर उहूँ।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं (सहमानः अस्मि) पराभव करने वाला हूं, (भूम्याम्) पृथिवी में (उत्तरः) उत्कृष्ट शक्ति वाला (नाम) प्रसिद्ध हूं। (अभीषाट् अस्मि) संमुख आए का मैं पराभव करता हूं, (विश्वाषाट्) सब का मैं पराभव करता हूं, (आशाम् आशाम् विषासहिः) प्रत्येक दिशा में पराजित करता हूँ।

    टिप्पणी

    [शरद् ऋतु में विजिगीषु राजा, विजय-यात्रा के निमित्त, निजशक्ति का अभिमान करता है]।

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    विषय

    सहनशीलता और वीरता

    शब्दार्थ

    (अहम्) मैं (सहमानः) सहनशील (अस्मि) हूँ । अतः (भूम्याम्) पृथिवी पर (उत्तरः) उत्कृष्टरूप से (नाम) प्रसिद्ध हूँ । (अभीशाट्) शत्रु सेना के सम्मुख आने पर भी मैं सहनशील बना रहता हूँ (विश्वाषाट्) मैं सबसे अधिक सहनशील (अस्मि) हूँ (आशाम्-आशाम्) प्रत्येक दिशा में (विषासहि:) मैं विशेष रूप से सहनशील प्रसिद्ध हूँ ।

    भावार्थ

    सहनशील मनुष्य संसार में प्रसिद्ध हो जाता है। अपनी आलोचना सुनकर भी सहनशील ही रहना चाहिये । शत्रु के सम्मुख आ जाने पर भी सहनशीलता को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए । हाँ, डटकर मुकाबला कर उसे परास्त कर देना चाहिए परन्तु हमारी सहनशीलता में न्यूनता नहीं आनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को सबसे अधिक सहनशील बनने का प्रयत्न करना चाहिए । पाठकों के मनोरञ्जन एवं ज्ञानवृद्धि-अर्थ इसी मन्त्र का एक अन्य अर्थ भी प्रस्तुत है । (अहम्) मैं (भूम्याम्) पृथिवी पर (उत्तरः नाम अस्मि) सर्वोत्कृष्ट प्रसिद्ध हूँ क्योंकि मैं (सहमानः) अत्यन्त साहसी हूँ (अभीषट् अस्मि) मैं शत्रुओं को पराजित करनेवाला हूँ (विश्वषाट्) सर्वत्र विजयी हूँ । (आशाम्-आशाम्) प्रत्येक दिशा में (विषासहिः) अच्छी प्रकार विजयी हूँ। प्रत्येक मनुष्य को साहसी और वीर बनना चाहिए । शत्रु जहाँ भी हों वहाँ से खदेड़कर विजय सम्पादन करनी चाहिए ।

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    विषय

    पृथिवी सूक्त।

    भावार्थ

    (अहम्) मैं ही (भूम्याम्) भूमि पर (सहमानः) सब पदार्थों को वश करने वाला (उत्तरः नाम) इन सब तिर्यग् पशुओं से ऊंचा, सबको नमाने में समर्थ (अस्मि) हूं। (अभीषाट् अस्मि) मैं चारों ओर विजय करने वाला हूं। और मैं (विश्वाषाड्) सर्व विजयी (आशाम्-आशाम्) प्रत्येक अपने मनोरथ और या प्रत्येक दिशा को (वि-ससहिः) विशेष रूप से विजय कर उसको अपने वश करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। भूमिर्देवता। १ त्रिष्टुप्, २ भुरिक्, ४-६, १० त्र्यवसाना षट्पदा जगत्यः, ७ प्रस्तार पंक्तिः, ८, ११ व्यवसाने षट्पदे विराडष्टी, ९, परानुष्टुप्, १२ त्र्यवसने शक्वर्यौ। ६, १५ पञ्चपदा शक्वरी, १४ महाबृहती, १६, २१ एकावसाने साम्नीत्रिष्टुभौ, १८ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुबनुष्टुब्गर्मातिशक्वरी, १९ पुरोबृहती, २२ त्र्यवसाना षट्पदा विराड् अतिजगती, २३ पञ्चपदा विराड् जगती, २४ पञ्चपदानुष्टुब्गर्भा जगती, २५ सप्तपदा उष्णिग् अनुष्टुब्गर्भा शक्वरी, २६-२८ अनुष्टुभः, ३० विराड् गायत्री ३२ पुरस्ताज्ज्योतिः, ३३, ३५, ३९, ४०, ५०, ५३, ५४,५६, ५९, ६३, अनुष्टुभः, ३४ त्र्यवसासना षट्पदा त्रिष्टुप् बृहतीगर्भातिजगती, ३६ विपरीतपादलक्ष्मा पंक्तिः, ३७ पंचपदा व्यवसाना शक्वरी ३८ त्र्यवसाना षट्पदा जगती, ४१ सप्तपदा ककुम्मती शक्वरी, ४२ स्वराडनुष्टुप्, ४३ विराड् आस्तार पंक्तिः ४४, ४५, ४९ जगत्यः, षट्पदाऽनुष्टुबगर्भा परा शक्वरी ४७ षट्पदा विराड् अनुष्टुब् गर्भापरातिशक्वरी ४८ पुरोऽनुष्टुप्, ५० अनुष्टुप्, ५१ व्यवसाना षट्पदा अनुष्टुब्गर्भा ककुम्मती शक्वरी, ५२ पञ्चपदाऽनुष्टुब्गर्भापरातिजगती, ५३ पुरोबृहती अनुष्टुप् ५७, ५८ पुरस्ताद्बृहत्यौ, ६१ पुरोवार्हता, ६२ पराविराट, १, ३, १३, १७, २०, २९, ३१, ४६, ५५, ६०, त्रिष्टुभः। त्रिषष्टयृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (भूम्याम्-अहम्-उत्तरः-नाम सहमान:-अस्मि) पृथिवी पर मैं अन्यों की अपेक्षा उत्कृष्ट या ऊपर अवश्य सहन करने वाला हूँ अन्यों से दबने वाला नहीं हूँ (अभीषाट् अस्मि) अपितु अन्यों पर अभिभव करने वाला-अन्यों को दबाने वाला हूँ (विश्वाषाट्) सब पर छा जाने वाला होता हुआ (आशाम्-आशां विषासहिः) दिशा दिशा पर विजय पाने चाला या चढाई करने वाला हूँ ॥५४॥

    विशेष

    ऋषिः- अथर्वा (स्थिर ज्ञान वाला ) देवता - भूमिः ( पृथिवी )

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Song of Mother Earth

    Meaning

    I am the man, a patient, forbearing challenger, forward fighter, for sure, the winner on the field. I beat who faces me, I win all over the land, I am the conqueror all round in all directions (overall the problems and all the crises that face me, threaten to defeat me, and deprive me of my identity).

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    Translation

    I am overpowering, superior by name on the earth; I am subduing, all-overpowering, vanquishing in every region.

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    Translation

    I am victorious and am called on earth the supreme, 1 am triumphant all overpowering and conqueror in everp direction.

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    Translation

    I am prepared to suffer for my country. I am called the lord superior on earth, triumphant, all-conquering, the conqueror on every side.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५४−(अहम्) मनुष्यः (अस्मि) (सहमानः) अभिभवनशीलः (उत्तरः) उच्चतरः (नाम) नाम्ना। कीर्त्या (भूम्याम्) (अभीषाट्) छन्दसि सहः। पा० ३।२।६३। षह मर्षणे−ण्वि। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। पूर्वपदस्य दीर्घः। सहेः साडः सः। पा० ८।३।५६। इति षत्वम्। सर्वतो जेता (अस्मि) (विश्वाषाट्) पूर्ववत् सिद्धिः। सर्वजेता (आशामाशाम्) प्रतिदिशम् (विषासहिः) अ० १।२९।६। विविधजयशीलः ॥

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