अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
12
तद्यस्यै॒वंवि॒द्वान्व्रात्य॑स्तृ॒तीयां॒ रात्रि॒मति॑थिर्गृ॒हे वस॑ति॥
स्वर सहित पद पाठतत् । यस्य॑ । ए॒वम् । वि॒द्वान् । व्रात्य॑: । तृ॒तीया॑म् । रात्रि॑म् । अति॑थि: । गृ॒हे । वस॑ति ॥१३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्यस्यैवंविद्वान्व्रात्यस्तृतीयां रात्रिमतिथिर्गृहे वसति॥
स्वर रहित पद पाठतत् । यस्य । एवम् । विद्वान् । व्रात्य: । तृतीयाम् । रात्रिम् । अतिथि: । गृहे । वसति ॥१३.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथि और अनतिथि के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(तत्) सो (एवम्)व्यापक परमात्मा को (विद्वान्) जानता हुआ (व्रात्यः) व्रात्य [सत्यव्रतधारी] (अतिथिः) अतिथि (तृतीयाम्) तीसरी (रात्रिम्) रात्रि (यस्य) जिस [गृहस्थ] के (गृहे) घर में (वसति) वसता है ॥५॥
भावार्थ
गृहस्थ महामान्य अतिथिसे तीसरी रात्रि ठहरा कर सूर्यमण्डल का ज्ञान अर्थात् उपकारी ज्योतिष विद्या कोप्राप्त करे ॥५, ६॥
टिप्पणी
५, ६−(दिवि)सूर्यमण्डले। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
आतिथ्य से पुण्यलोकों की प्राप्ति
पदार्थ
१. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान्) = सर्वत्र गतिवाले प्रभु को जानता हुआ (व्रात्य:) = व्रतीपुरुष (एकामरात्रिम) = एक रात (अतिथिः वसति) = अतिथि बनकर रहता है तो (तेन) = उस अतिथि से वह गृहस्थ (यः) = जो (पृथिव्याम्) = पृथिवी में (पुण्या: लोका:) = पुण्यलोक है (तान् एव) = उनको ही अवरुन्द्ध-अपने लिए सुरक्षित करता है। २. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = सर्वत्र गतिवाले प्रभु को जाननेवाला व्रतीपुरुष (द्वितीयां रात्रिं अतिथि: वसति) = दूसरे रात भी अतिथिरूपेण रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से ये अन्तरिक्षे (पुण्या: लोका:) = जो अन्तरिक्ष में पुण्यलोक हैं (तान् एव) = उनको निश्चय ही अवरुन्द्धे-अपने लिए सुरक्षित करता है। ३. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = उस गति के स्रोत [इ गतौ] प्रभु को जाननेवाला व्रतीपुरुष (ततीयां रात्रिम्) = तीसरी रात भी (अतिथि: वसति) = अतिथिरूप में रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से ये दिवि (पुण्या: लोका:) = जो द्युलोक में पुण्यलोक हैं (तान् एव) = अवरुन्द्धे-उनको अपने लिए निश्चय से सुरक्षित कर पाता है। ४, (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = गति के स्रोत प्रभु को जाननेवाला व्रतीपुरुष चतुर्थी रात्रिं (अतिथिः वसति) = चौथी रात भी अतिथिरूपेण रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से ये (पुण्यानां पुण्याः लोका:) = जो पुण्यों के भी पुण्यलोक हैं-अतिशयेन पुण्यलोक हैं, (तान् एव अवरुन्द्ध) = उन्हें अपने लिए सुरक्षित कर लेता है । ५. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = गति के स्रोत प्रभु को जाननेवाला व्रती (विद्वान् अपरमिता: रात्रीः अतिथि: वसति) = न सीमित-बहुत रात्रियों तक अतिथिरूपेण रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से यह गृहस्थ (ये एवं अपरिमिता: पुण्याः लोका:) = जो भी अपरिमित पुण्यलोक हैं (तान् अवरुन्द्धे) = उन सबको अपने लिए सुरक्षित कर लेता है।
भावार्थ
विद्वान् व्रात्य के आतिथ्य से गृहस्थ पुण्यलोकों को प्राप्त करता है। उन विद्वान् व्रात्यों की प्रेरणाएँ इन्हें पुण्य-मार्ग पर ले-चलती हुई पुण्यलोकों को प्राप्त कराती हैं।
भाषार्थ
(तद्) तो (एवम्) इस प्रकार का (विद्वान्, व्रात्यः) विद्वान् व्रती तथा प्रजाजन हितकारी (अतिथिः) अनिश्चित तिथि वाला अतिथि, (यस्य) जिस गृहस्थी के (गृहे) घर में (तृतीयाम्, रात्रिम्) तीसरी रात (वसति) निवास करता है।
विषय
अतिथि यज्ञ का फल।
भावार्थ
(तत् यस्य गृहे एवं विद्वान् व्रात्यः तृतीयां रात्रिम् अतिथिः वसति ये दिवि पुण्याः लोकाः तान् तेन अवरुन्धे) तो जिस घर में ऐसा विद्वान् व्रात्य तीसरी रात रह जाता है तो जो द्यौ लोक में पुण्य लोक हैं वह गृहपति उन पर भी वश करता है।
टिप्पणी
‘एकरात्रं चेदतिथिं वासयेत् पार्थिवान् लोकान् अभिनयति द्वितीय यान्तरिक्ष्यां स्तृतीयया दिव्यांश्चतुर्थ्यापरावतो लोकानपरिमिताभिरपरिमितांल्लोकानभिजयतीति विज्ञायते’ इति आपस्तम्बधर्मसूत्रे।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
२ प्र० साम्नी उष्णिक्, १ द्वि० ३ द्वि० प्राजापत्यानुष्टुप्, २-४ (प्र०) आसुरी गायत्री, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी बृहती, ५ प्र० त्रिपदा निचृद् गायत्री, ५ द्वि० द्विपदा विराड् गायत्री, ६ प्राजापत्या पंक्तिः, ७ आसुरी जगती, ८ सतः पंक्तिः, ९ अक्षरपंक्तिः। चतुर्दशर्चं त्रयोदशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
In whose house a learned Vratya guest thus stays for the third night ...
Translation
So he, at whose home such a knowledgeable vow-observing sage stays for the third night as a guest.
Translation
He in whose house the Vratya who Is the possessor of this knowledge passes the third night as a guest.
Translation
He, in whose house the Acharya who possesses this knowledge of God, stays as a guest for a third night.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५, ६−(दिवि)सूर्यमण्डले। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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