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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - प्राजापत्या अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    16

    ये दि॒वि पुण्या॑लो॒कास्ताने॒व तेनाव॑ रुन्द्धे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । दि॒वि । पुण्या॑: । लो॒का: । तान् । ए॒व । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥१३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये दिवि पुण्यालोकास्तानेव तेनाव रुन्द्धे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । दिवि । पुण्या: । लोका: । तान् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥१३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथि और अनतिथि के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (दिवि) सूर्यलोक में (ये) जो (पुण्याः) पवित्र (लोकाः) लोक [दर्शनीय समाज] हैं, (तान्) उनको (एव)निश्चय करके (तेन) उस [अतिथिसत्कार] से वह [गृहस्थ] (अव रुन्द्धे) सुरक्षितकरता है ॥६॥

    भावार्थ

    गृहस्थ महामान्य अतिथिसे तीसरी रात्रि ठहरा कर सूर्यमण्डल का ज्ञान अर्थात् उपकारी ज्योतिष विद्या कोप्राप्त करे ॥५, ६॥

    टिप्पणी

    ५, ६−(दिवि)सूर्यमण्डले। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥

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    विषय

    आतिथ्य से पुण्यलोकों की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान्) = सर्वत्र गतिवाले प्रभु को जानता हुआ (व्रात्य:) = व्रतीपुरुष (एकामरात्रिम) = एक रात (अतिथिः वसति) = अतिथि बनकर रहता है तो (तेन) = उस अतिथि से वह गृहस्थ (यः) = जो (पृथिव्याम्) = पृथिवी में (पुण्या: लोका:) = पुण्यलोक है (तान् एव) = उनको ही अवरुन्द्ध-अपने लिए सुरक्षित करता है। २. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = सर्वत्र गतिवाले प्रभु को जाननेवाला व्रतीपुरुष (द्वितीयां रात्रिं अतिथि: वसति) = दूसरे रात भी अतिथिरूपेण रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से ये अन्तरिक्षे (पुण्या: लोका:) = जो अन्तरिक्ष में पुण्यलोक हैं (तान् एव) = उनको निश्चय ही अवरुन्द्धे-अपने लिए सुरक्षित करता है। ३. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = उस गति के स्रोत [इ गतौ] प्रभु को जाननेवाला व्रतीपुरुष (ततीयां रात्रिम्) = तीसरी रात भी (अतिथि: वसति) = अतिथिरूप में रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से ये दिवि (पुण्या: लोका:) = जो द्युलोक में पुण्यलोक हैं (तान् एव) = अवरुन्द्धे-उनको अपने लिए निश्चय से सुरक्षित कर पाता है। ४, (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = गति के स्रोत प्रभु को जाननेवाला व्रतीपुरुष चतुर्थी रात्रिं (अतिथिः वसति) = चौथी रात भी अतिथिरूपेण रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से ये (पुण्यानां पुण्याः लोका:) = जो पुण्यों के भी पुण्यलोक हैं-अतिशयेन पुण्यलोक हैं, (तान् एव अवरुन्द्ध) = उन्हें अपने लिए सुरक्षित कर लेता है । ५. (तत्) = इसलिए (यस्य गृहे) = जिसके घर में (एवं विद्वान् व्रात्यः) = गति के स्रोत प्रभु को जाननेवाला व्रती (विद्वान् अपरमिता: रात्रीः अतिथि: वसति) = न सीमित-बहुत रात्रियों तक अतिथिरूपेण रहता है तो (तेन) = उस आतिथ्य कर्म से यह गृहस्थ (ये एवं अपरिमिता: पुण्याः लोका:) = जो भी अपरिमित पुण्यलोक हैं (तान् अवरुन्द्धे) = उन सबको अपने लिए सुरक्षित कर लेता है।

    भावार्थ

    विद्वान् व्रात्य के आतिथ्य से गृहस्थ पुण्यलोकों को प्राप्त करता है। उन विद्वान् व्रात्यों की प्रेरणाएँ इन्हें पुण्य-मार्ग पर ले-चलती हुई पुण्यलोकों को प्राप्त कराती हैं।

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    भाषार्थ

    (तेन) अतिथि के उस तीसरी रात के निवास के कारण, (दिवि) द्युलोक में (ये) जो (पुण्याः लोकाः) पुण्यलोक हैं (तान्, एव) उन्हें ही, गृहस्थी (अव रुन्द्धे) अपनाता है; प्राप्त करता है।

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    विषय

    अतिथि यज्ञ का फल।

    भावार्थ

    (तत् यस्य गृहे एवं विद्वान् व्रात्यः तृतीयां रात्रिम् अतिथिः वसति ये दिवि पुण्याः लोकाः तान् तेन अवरुन्धे) तो जिस घर में ऐसा विद्वान् व्रात्य तीसरी रात रह जाता है तो जो द्यौ लोक में पुण्य लोक हैं वह गृहपति उन पर भी वश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २ प्र० साम्नी उष्णिक्, १ द्वि० ३ द्वि० प्राजापत्यानुष्टुप्, २-४ (प्र०) आसुरी गायत्री, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी बृहती, ५ प्र० त्रिपदा निचृद् गायत्री, ५ द्वि० द्विपदा विराड् गायत्री, ६ प्राजापत्या पंक्तिः, ७ आसुरी जगती, ८ सतः पंक्तिः, ९ अक्षरपंक्तिः। चतुर्दशर्चं त्रयोदशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    Thereby he secures for himself all those beautiful holy worlds which are in the heaven of light.

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    Translation

    Secures thereby all the auspicious places that are in the sky.

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    Translation

    Thereby makes safe for himself ‘those holy worlds which are in heavenly region.

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    Translation

    Secures for himself thereby the company of holy persons who know the Astrology.

    Footnote

    Astrology: The science of heavens. The Acharya instructs the householder in Astrology, when he stays for the third night.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५, ६−(दिवि)सूर्यमण्डले। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥

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