अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 10
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आसुरी जगती
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
16
तृ॒तीये॑भ्यः श॒ङ्खेभ्यः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒ती॒येभ्यः॑। श॒ङ्खेभ्यः॑। स्वाहा॑ ॥२२.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
तृतीयेभ्यः शङ्खेभ्यः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठतृतीयेभ्यः। शङ्खेभ्यः। स्वाहा ॥२२.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
महाशान्ति के लिये उपदेश।
पदार्थ
(तृतीयेभ्यः) तीसरे [आदि और अन्त की अपेक्षा मध्य में वर्तमान] (शङ्खेभ्यः) शान्तिदायक गुणों के लिये (स्वाहा) स्वाहा [सुन्दर वाणी] हो ॥१०॥
भावार्थ
स्पष्ट है ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(तृतीयेभ्यः) आद्यन्तापेक्षया मध्ये वर्तमानेभ्यः (शङ्खेभ्यः) म०८। शान्तिप्रदगुणेभ्यः ॥
विषय
शं-ख-शान्तेन्द्रिय पुरुष
पदार्थ
१. योगांगों के अभ्यास से इन्द्रियों की विषयों के प्रति रुचि कम और कम होती जाती है। इन्द्रियों के प्रति अरुचि ही 'संवेग' है। यह संवेग 'मृदु-मध्य-व तीव्र' इन तीन श्रेणियों में विभक्त है। इनमें मृदु संवेगवाले यहाँ 'प्रथम शंख' कहे गये हैं-वे व्यक्ति जो इन्द्रियों को शान्त करनेवालों की प्रथम श्रेणी में हैं। मध्य संवेगवाले द्वितीय श्रेणी में तथा तीन संवेगवाले तृतीय श्रेणी में। २. इन (प्रथमेभ्यः शंखेभ्यः) = प्रथम श्रेणीवाले शान्तेन्द्रिय पुरुषों के लिए हम (स्वाहा) = प्रशंसात्मक शब्द कहते हैं, (द्वितीयेभ्यः शंखेभ्य:) = मध्य संवेगवाले द्वितीय श्रेणी के शान्तेन्द्रिय पुरुषों के लिए (स्वाहा) = शुभ शब्द कहते हैं और (तृतीयेभ्यः शंखेभ्यः) = इन तीव्र संवेगवाले शान्तेन्द्रिय पुरुषों के लिए (स्वाहा) = अपने को सौंपते हैं [स्व हा] और उन-जैसा बनने के लिए यत्नशील होते हैं।
भावार्थ
योगांगानुष्ठान से विषयों से ऊपर उठकर हम क्रमशः अधिकाधिक शान्तेन्द्रिय बनें। ऐसे पुरुषों के साथ ही हमारा उठना-बैठना हो-हम भी उन-जैसा बनने के लिए यत्न करें।
भाषार्थ
(तृतीयेभ्यः) तीसरी कोटि के (शङ्खेभ्यः) शङ्खों द्वारा साध्य रोगों के निवारण के लिए (स्वाहा) जाठराग्नि में आहुतियां हों॥ १०॥
टिप्पणी
[शङ्खों से अभिप्राय है—शङ्खभस्मे। शङ्ख या शङ्खभस्म, तत्साध्य रोगों का उपलक्षक है। मन्त्र ८-१० में तीन प्रकार के शङ्ख कहें हैं। प्रत्येक प्रकार के शङ्खों की भस्मों के गुण भिन्न-भिन्न हैं। (अथर्व० ४.१०.१) में शंख को “जातः विद्युतः ज्योतिषस्परि”, “हिरण्यजाः”, और “कृशनः” कहा है। यह पीतवर्ण शंख है, जैसे कि पीतवर्ण की कौड़ियां होती हैं। पीतवर्ण के कारण ही कविता में पीतवर्ण शंख को “विद्युत् की ज्योति से उत्पन्न हुआ”, “हिरण्य से उत्पन्न हुआ” तथा “कृशन” अर्थात् सुवर्णरूप कहा है। कृशनम्=हिरण्यनाम (निघं० १.२)। यह शंख प्रथम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है। द्वितीय कोटि के शंख को “समुद्रजः” कहा है (अथर्व० ४.१०.४) अर्थात् समुद्र से पैदा हुआ। यह बड़े आकार का शुभ्रवर्ण का होता है। तृतीय कोटि के शंख को “सिन्धुत: पयभृित:” (अथर्व० ४.१०.४) कहा है, अर्थात् नदियों से प्राप्त हुआ। इस प्रकार के शंखों को “घोघा” कहते हैं। ये छोटे आकार के होते हैं। “हिरण्यजाः; कृशनः” को “विश्वभेषजः” कहा है (अथर्व० ४.१०.३)। “समुद्रज शंख” द्वारा राक्षसरूप और खा जानेवाले रोगों, अमीवा रोगों, अमति, तथा सदा कष्टप्रद रोगों पर विजय पाने का वर्णन है (अथर्व० ४.१०.२, ३)। तथा “कार्शन” शंख को आयुषे, वर्चसे, बलाय, दीर्घायुत्वाय, तथा शतशारदाय—रक्षार्थ बांधने का वर्णन हुआ है (अथर्व० ४.१०.७)। बांधने का अभिप्राय है—शंखभस्म का सेवन कर उस के प्रभाव को शरीर में स्थिर रखना, उस का अपव्यय न करना।]
विषय
अथर्व सूक्तों का संग्रह।
भावार्थ
(प्रथमेभ्यः, द्वितीयेभ्यः तृतीयेभ्यः शंखभ्यः ३ स्वाहा ३) प्रथम, द्वितीय और तृतीय शंख सूक्तों का भी उत्तम ज्ञान प्राप्त करो। शंख सूक्त ‘शंनोदेवी’ आदि शान्तिगण में पठित सूक्त समझने चाहियें। वे तीन काण्डों में पृथक् वर्णित होने से प्रथम, द्वितीय, तृतीय नाम से कह गये हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवताः। १ साम्न्युष्णिक् ३, १९ प्राजापत्या गायत्री। ४, ७, ११, १७, दैव्यो जगत्यः। ५, १२, १३ दैव्यस्त्रिष्टुभः, २, ६, १४, १६, दैव्यः पंक्तयः। ८-१० आसुर्यो जगत्यः। १८ आसुर्यो अनुष्टुभः, (१०-२० एकावसानाः) २ चतुष्पदा त्रिष्टुभः। एकविंशत्यृचं समाससूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Chhandas
Meaning
Svaha for shells of the third order (born of rivers).
Translation
Svàha to the chapters containing the third Sankhas.
Translation
Attain knowledge: of third qualities of happiness and prosperity and appreciate them.
Translation
The thorough knowledge of the 1st, 2nd and 3rd Shankla suktas be mastered.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(तृतीयेभ्यः) आद्यन्तापेक्षया मध्ये वर्तमानेभ्यः (शङ्खेभ्यः) म०८। शान्तिप्रदगुणेभ्यः ॥
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