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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 127 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 2
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - पथ्या बृहती सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    78

    उष्ट्रा॒ यस्य॑ प्रवा॒हणो॑ व॒धूम॑न्तो द्वि॒र्दश॑। व॒र्ष्मा रथ॑स्य॒ नि जि॑हीडते दि॒व ई॒षमा॑णा उप॒स्पृशः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उष्ट्रा॒: । यस्य॑ । प्रवा॒हण॑: । व॒धूम॑न्त: । द्वि॒र्दश॑ ॥ व॒र्ष्मा । रथ॑स्य॒ । नि । जि॑हीडते । दि॒व: । ई॒षमा॑णा: । उप॒स्पृश॑: ॥१२७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो वधूमन्तो द्विर्दश। वर्ष्मा रथस्य नि जिहीडते दिव ईषमाणा उपस्पृशः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उष्ट्रा: । यस्य । प्रवाहण: । वधूमन्त: । द्विर्दश ॥ वर्ष्मा । रथस्य । नि । जिहीडते । दिव: । ईषमाणा: । उपस्पृश: ॥१२७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्य) जिस [राजा] के (रथस्य) रथ के (प्रवाहणः) ले चलनेवाले, (ईषमाणाः) शीघ्रगामी, (उपस्पृशः) जुते हुए, (वधूमन्तः) ऊँटनियों सहित, (द्विर्दश) दो बार दस (उष्ट्राः) ऊँट (दिवः) उन्मत्त मनुष्य के (वर्ष्मा=वर्ष्माणम्) ऊँचे पद का (नि जिहीडते) अपमान करते रहते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    राजा बीसहों ऊँट-ऊँटनी आदि को रथ आदि में जोतकर अनेक उद्यम करे-करावे और उद्योगी लोगों को बहुत से उचित पारितोषिक देवे ॥२, ३॥

    टिप्पणी

    २−(उष्ट्राः) उषिकुशिभ्यां कित्। उ० ४।१६२। उष दाहे; वधे च-ष्ट्रन् कित्। पशुभेदाः (यस्य) राज्ञः (प्रवाहणः) वह प्रापणे-णिच् कनिन् वाहकाः (वधूमन्तः) उष्ट्रीसहिताः (द्विर्दश) द्विवारं दश। विंशतिम् (वर्ष्मा) अ० ३।४।२। वृष प्रजननैश्ययोः-मनिन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। द्वितीयास्थाने सुः। वर्ष्माणम्। उच्चपदम् (रथस्य) यानस्य (नि) नितराम् (जिहीडते) अ० ४।३२।। हेडृ अनादरे क्रोधे च तिरस्कुर्वन्ति (दिवः) दिवु मदे-क्विप्। उन्मत्तस्य (ईषमाणाः) ईष गतौ-शानच्। शीघ्रगामिनः (उपस्पृशः) उपस्पृष्टाः। योजिताः ॥

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    विषय

    'दिवः ईषमाणाः, उपस्पृशः'

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित स्तोता वह है (यस्व) = जिसके (प्रवाहण:) = [प्रवाहिण:] प्रकृष्ट गतिवाले (द्वि:दश) = दस प्राण तथा दस इन्द्रियाँ-ये बीस तत्त्व-(वधूमन्त:) = बुद्धिरूप प्रकृष्ट वधूवाले होते हुए (उष्ट्रा:) = सब दोषों का दहन करनेवाले होते हैं [उष दाहे] आत्मा पति है और बुद्धि उसकी पत्नी है। [आत्मा Adam है तो बुद्धि Eve]। जब इन्द्रियों व प्राणों के साथ इस उत्कृष्ट बुद्धि का सम्पर्क होता है तब ये प्राण व इन्द्रियाँ सब दोषों का दहन करनेवाली होती हैं। २. उस समय (रथस्य) = इस शरीर-रथ के (वष्र्मा) = [Surface of a mountain] शिखर [शिरःस्थ आँख, कान, नाक, मुख] (निजिहीडते) = इन सब प्राकृतिक भोगों का निरादर करते प्रतीत होते हैं। यह स्तोता प्राकृतिक भोगों में नहीं फँसता । इस स्तोता के शरीर-रथ के शिखर (दिवः ईषमाणा:) = प्रकाश की ओर गतिवाले होते हैं और अन्ततः (उपस्पृश:) = उस प्रभु को समीपता से स्पर्श करनेवाले होते है।

    भावार्थ

    स्तोता की इन्द्रियाँ व प्राण प्रकृष्ट बुद्धि से युक्त होकर गतिशील होते हैं और सब दोषों का दहन करनेवाले होते हैं। अब यह स्तोता प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठता है और प्रकाश की ओर चलता हुआ प्रभु को प्राप्त करनेवाला होता है।

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    भाषार्थ

    (उष्ट्राः) सांसारिक दाह-सन्ताप से रक्षा करनेवाले, (वधूमन्तः) सुखों की प्राप्ति करानेवाले, (द्विर्दश) दोगुना-दस, (यस्य) जिस महात्मा के (रथस्य) शरीर-रथ के (वर्ष्मा) ढांचे का (प्रवाहणः) उत्कृष्टरूप में वहन करते, और उसे (नि जिहीडते) नितरां सक्रिय रखते हैं, जैसे कि (उपस्पृशः) सूर्यस्पर्शी (दिवः) द्योतमान किरणें (ईषमाणाः) गति करती हुई, सूर्यरूपी (रथस्य वर्ष्म) रथ के ढांचे को, (निजिहीडते) नितरां सक्रिय रखती हैं—(अगले मन्त्र से सम्बन्ध)

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    विषय

    स्तुति योग्य पुरुष का वर्णन।

    भावार्थ

    (यस्य) जिसके (प्रवाहिणः) उत्तम स्थान को प्राप्त कराने वाले (वधूमन्तः) वधू अर्थात् हिंसाशील शत्रु नाशक शक्तियों वाले (द्विः दश) बीस (उष्ट्राः) ऊंट हैं। और (यस्य) जिसके (रथस्य) रथ की (वर्ष्माः) चोटियां (दिवः) आकाश को (उपस्पृशः) छूती हुई (ईषमाणाः) चलते हुए (दिवः) आकाश को (नि जिहीडते) नीचा दिखाती हैं। अथवा—(यस्य) जिस राजा के (द्विः र्दश) बीस, (वधूमन्तः) हिंसा करने वाली शत्रु नाशक शक्तियों से युक्त (उष्ट्राः) शत्रु को दग्ध करने वाले (प्रवाहणः) आगे बढ़ने वाले या उत्तम अश्व आदि सवारियों पर चढ़ कर चलने वाले हों। और (रथस्य) रथ की (वर्मा) ऊंची ध्वजाएं। (ईषमाणः) चलती चलती (उपस्पृशः) गगन को छूने वाली (दिवः नि जिहीडते) आकाश या सूर्य को भी तिरस्कार करती हैं। इस सूक्त के अध्यात्मिक अर्थ भी निकलते हैं।

    टिप्पणी

    ‘प्रत्राहणः’ इति शं० पा०। ‘वधूभतो’ इति क्वचित्। ‘वरिष्मा’ इति क्वचित्। ‘जहीडते’, ‘जिहीषते’ इति च क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तिम्रो नाराशंस्यः। अतः परं त्रिशद् ऋच इन्द्रगाथाः।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra

    Meaning

    Here is the adorable man ruler, the leading light, whose grand chariot, twenty virile bulls draw and the radiating rays of the sun touch, energise and bless with light and beauty. (Another, mystic, interpretation is given by professor Vishvanath Vidyalankar: Here is the yogi whose body system, twenty perceptive and volitional senses and pranas energise and move just as the radiant rays of the sun keep the heaven and earth radiant and inspiring.)

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    Translation

    The twenty camels with their females yoked and moving fast are the drawers of whose car and the tops of chariot make the sky bow down, so powerful is this king.

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    Translation

    The twenty camels with their females yoked and moving fast are the drawers of whose car and the tops of chariot make the sky bow down, so powerful is this king.

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    Translation

    O broadcaster, go on broadcasting thy speech, like parrots on a tree, laden with ripe fruits. The tongue goes on uttering words between the lips, just as the cutting line goes on moving between the blades of a scissors! (The verse indicates the way how the voice of the broadcaster goes on moving in a wave-line, like the one made of the cutting of a scissors).

    Footnote

    ‘Rebha’: One who makes use of ‘ribhus’ i.e., magnetic or electric waves.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(उष्ट्राः) उषिकुशिभ्यां कित्। उ० ४।१६२। उष दाहे; वधे च-ष्ट्रन् कित्। पशुभेदाः (यस्य) राज्ञः (प्रवाहणः) वह प्रापणे-णिच् कनिन् वाहकाः (वधूमन्तः) उष्ट्रीसहिताः (द्विर्दश) द्विवारं दश। विंशतिम् (वर्ष्मा) अ० ३।४।२। वृष प्रजननैश्ययोः-मनिन्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। द्वितीयास्थाने सुः। वर्ष्माणम्। उच्चपदम् (रथस्य) यानस्य (नि) नितराम् (जिहीडते) अ० ४।३२।। हेडृ अनादरे क्रोधे च तिरस्कुर्वन्ति (दिवः) दिवु मदे-क्विप्। उन्मत्तस्य (ईषमाणाः) ईष गतौ-शानच्। शीघ्रगामिनः (उपस्पृशः) उपस्पृष्टाः। योजिताः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যস্য) যার [রাজার] (রথস্য) রথ (প্রবাহণঃ) বহনকারী, (ঈষমাণাঃ) শীঘ্রগামী, (উপস্পৃশঃ) সংযোজিত, (বধূমন্তঃ) উষ্ট্রীর সহিত, (দ্বির্দশ) বিশটি/দুই বার দশ (উষ্ট্রাঃ) উট (দিবঃ) উন্মত্ত মনুষ্যের (বর্ষ্মা=বর্ষ্মাণম্) উচ্চ পদের/অবস্থানের (নি জিহীডতে) অপমান করতে থাকে ॥২॥

    भावार्थ

    রাজা কুড়িটি উষ্ট্র-উষ্ট্রীকে রথে সংযোজিত করে অনেক উদ্যম করুক এবং উদ্যোগী লোকদেরকে বহু উপযুক্ত পুরষ্কার প্রদান করুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    (উষ্ট্রাঃ) সাংসারিক দাহ-সন্তাপ থেকে রক্ষাকারী, (বধূমন্তঃ) সুখ প্রেরণকারী/প্রদানকারী, (দ্বির্দশ) দ্বিগুণ-দশ, (যস্য) যে মহাত্মার (রথস্য) শরীর-রথের (বর্ষ্মা) গঠনের/আকৃতির (প্রবাহণঃ) উৎকৃষ্টরূপে বহন করে, এবং তাকে (নি জিহীডতে) নিরন্তর সক্রিয় রাখে, যেমন (উপস্পৃশঃ) সূর্যস্পর্শী (দিবঃ) দ্যোতমান কিরণ-সমূহ (ঈষমাণাঃ) গতিশীল হয়ে, সূর্যরূপী (রথস্য বর্ষ্ম) রথের আকৃতিকে, (নিজিহীডতে) নিরন্তর সক্রিয় রখে—(আগামী মন্ত্রের সাথে সম্বন্ধিত)

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