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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 142 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 142/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४२
    13

    प्र बो॑धयोषो अ॒श्विना॒ प्र दे॑वि सूनृते महि। प्र य॑ज्ञहोतरानु॒षक्प्र मदा॑य॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । बो॒ध॒य॒ । उ॒ष॒: । अ॒श्विना॑ । प्र । दे॒वि॒ । सू॒नृ॒ते॒ । म॒हि॒ ॥ प्र । य॒ज्ञ॒ऽहो॒त॒: । आ॒नु॒षक् । प्र । मदा॑य । श्रव॑: । बृ॒हत् ॥१४२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र बोधयोषो अश्विना प्र देवि सूनृते महि। प्र यज्ञहोतरानुषक्प्र मदाय श्रवो बृहत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । बोधय । उष: । अश्विना । प्र । देवि । सूनृते । महि ॥ प्र । यज्ञऽहोत: । आनुषक् । प्र । मदाय । श्रव: । बृहत् ॥१४२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।

    पदार्थ

    (उषः) हे उषा ! [प्रभात वेला] (अश्विनौ) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (प्र बोधय) जगादे, (देवि) हे देवी ! [व्यवहारकुशल] (सूनृते) हे अन्नवाली ! (महि) हे पूजनीया ! [उषा] (प्र=प्र बोधय) जगादे। (यज्ञहोतः) हे उत्तम संगति देनेवाले ! [विद्वान्] (आनुषक्) लगातार (प्र) जगादे, (बृहत्) बड़े (श्रवः) यश के लिये और (मदाय) आनन्द के लिये (प्र) जगादे ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रातःकाल उठकर सदा अन्न आदि धन, कीर्ति और आनन्द के लिये प्रयत्न करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(प्र बोधय) जागरय (उषः) हे प्रभातवेले (अश्विनौ) व्यापकौ”। अहोरात्रौ (प्र) प्र बोधय (देवि) हे व्यवहारकुशले (सूनृते) अथ० ३।१२।२। सूनृता यज्ञनाम-निघ० २।७, अर्शआद्यच्, टाप्। हे अन्नवति (महि) हे महति (प्र) प्र बोधय (यज्ञहोतः) हे उत्तमसंगतिदातः। विद्वन् (आनुषक्) अथ० ४।३२।१। अनुषक्तं निरन्तरम् (प्र) प्र बोधय (मदाय) हर्षाय (श्रवः) विभक्तेर्लुक्। श्रवसे। यशसे (बृहत्) बृहते। महते ॥

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    विषय

    प्रात:कालीन कार्यक्रम

    पदार्थ

    १. हे (उष:) = उषाकाल की देवि! (अश्विना प्रबोधय) = तू प्राणापान को हममें प्रबुद्ध कर, अर्थात् हम प्रातः प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हो। हे (देवि) = प्रकाशयुक्त (सुनृते) = प्रिय सत्य वाणी उषे! (महि) = [मह पूजायाम्] पूजा को (प्र) = [बोधय] हममें प्रबुद्ध कर। हम प्रातः प्रबुद्ध होकर प्रभु की उपासना में प्रवृत्त हों। २. हे (आनुषक्) = निरन्तर (यज्ञहोत:) = यज्ञों में हव्यों को आहुत करनेवाली तू हमें (प्र) = प्रबुद्ध कर । हम प्रात: यज्ञ करनेवाले हों। हे उषे! (मदाय) = आनन्द प्राप्त कराने के लिए (बृहत् श्रव:) = बहुत उत्कृष्ट ज्ञान को (प्र) = हममें प्रबुद्ध कर।

    भावार्थ

    हम प्रातः जागकर प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। प्राणसाधना के साथ 'प्रभु-पूजन यज्ञ व स्वाध्याय' करें।

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    भाषार्थ

    (उषः) हे उषाः! तू समय पर (अश्विना) अश्वियों को जगा दिया कर। (देवि सूनृते) हे प्रिय तथा सत्य और दिव्य (महि) महावेदवाणी! (प्रबोधय) तू अश्वियों को प्रातःकाल में बोध प्रदान किया कर। (यज्ञहोतः) हे यज्ञों के करनेवाले “होता” नामवाले ऋत्विक्! तू (आनुषक्) निरन्तर अर्थात् सदा (प्र बोधय) अश्वियों को यज्ञ करने के लिए सावधान किया कर, तथा (मदाय) उनकी और राष्ट्र की प्रसन्नता के लिए उन्हें (बृहत् श्रवः प्र बोधय) वेदवाणी का महा-श्रावण कराया कर।

    टिप्पणी

    [अश्वियों को उषाकाल के समय निद्रा से स्वयं जाग कर, वेदवाणी का नित्य स्वाध्याय करना चाहिए, नियमपूर्वक अग्निहोत्र तथा यज्ञ करने चाहिए, और होता द्वारा वेदोपदेशों का प्रभूत-श्रवण करते रहना चाहिए। उषाकाल में जागने का अभिप्राय यह है कि उषाकाल में निद्राग्रस्त न होना चाहिए, जागना तो उषाकाल से भी पूर्व होना चाहिए, अर्थात् प्रभातवेला में।]

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    विषय

    वेदवाणी।

    भावार्थ

    हे (उषः) पापों को दग्ध करनेहारी उषः ! हे (महि) पूजनीय ! हे (सूनृते) उत्तम सत्य ज्ञान को धारण करने वाली वेदवाणि ! हे (देवि) ज्ञान प्रकाश देने वाली ! तू (अश्विना) स्त्री पुरुष नर नारी दोनों को (प्र बोधय) भली प्रकार उन्नति के लिये जगा दे, प्रबुद्ध कर, उनको ज्ञानवान् बना। हे (यज्ञहोतः) यज्ञ, परस्पर सुसंगत व्यवहारों के प्रवर्त्तक राजन् ! तू भी (प्र) नर नारी दोनों को उत्तम ज्ञानवान् बना, चेता, (आनुषक् प्र) तू निरन्तर जगा। (मदाय) हर्ष प्राप्त करने के लिये (बृहत् श्रवः) जो बढ़ा भारी यश, ज्ञान और अन्न है, उसको (प्र) प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शशकर्ण ऋषिः। अश्विनौ देवते -१-४ अनुष्टुभः। ५, ६, गायत्र्यौ। षडृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    O divine dawn, great lady of truth and leading light of a new day, awaken the Ashvins, harbingers of new knowledge and awareness, and O inspirer of the day’s yajnic activity, relentlessly exhort men and women to work for the joy of life and win great prosperity, honour and fame.

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    Translation

    Let this dawn give rise to day and night both. Let this great luminous one and giver of corn wake all. O Hotar of Yajna you wake me frequently for fame and happiness.

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    Translation

    Let this dawn give rise to day and night both. Let this great luminous one and giver of corn wake ail. O Hotar of Yajna you wake me frequently for fame and happiness.

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    Translation

    O bright, respectable dawn, fully equipped with natural forces awaken the Asvins, the two powerful forces of nature. O performer of the sacrifice at dawn, continually go on energising these forces and offering profuse food-grains and material for attainment of happiness and joy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(प्र बोधय) जागरय (उषः) हे प्रभातवेले (अश्विनौ) व्यापकौ”। अहोरात्रौ (प्र) प्र बोधय (देवि) हे व्यवहारकुशले (सूनृते) अथ० ३।१२।२। सूनृता यज्ञनाम-निघ० २।७, अर्शआद्यच्, टाप्। हे अन्नवति (महि) हे महति (प्र) प्र बोधय (यज्ञहोतः) हे उत्तमसंगतिदातः। विद्वन् (आनुषक्) अथ० ४।३२।१। अनुषक्तं निरन्तरम् (प्र) प्र बोधय (मदाय) हर्षाय (श्रवः) विभक्तेर्लुक्। श्रवसे। यशसे (बृहत्) बृहते। महते ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    অহোরাত্রসুপ্রয়োগোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (উষঃ) হে উষা! [প্রভাত বেলা] (অশ্বিনৌ) উভয় অশ্বীকে [ব্যাপক দিন-রাতকে] (প্র বোধয়) জাগাও/জাগ্রত করো, (দেবি) হে দেবী! [ব্যবহারকুশল] (সূনৃতে) হে অন্নদাতা! (মহি) হে পূজনীয়া! [ঊষা] (প্র=প্র বোধয়) জাগিয়ে দাও/জাগ্রত করো। (যজ্ঞহোতঃ) হে উত্তমসঙ্গতি দাতা! [বিদ্বান] (আনুষক্) নিরন্তর (প্র) জাগ্রত করো, (বৃহৎ) বৃহৎ (শ্রবঃ) যশের জন্য এবং (মদায়) আনন্দের জন্য (প্র) জাগ্রত করো ॥২॥

    भावार्थ

    মনুষ্য প্রাতঃকালে উঠে সর্বদা অন্ন আদি ধন, কীর্তি এবং আনন্দের জন্য প্রচেষ্টা করুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    (উষঃ) হে উষাঃ! তুমি সঠিক সময়ে (অশ্বিনা) অশ্বিদের জাগ্রত করো। (দেবি সূনৃতে) হে প্রিয় তথা সত্য এবং দিব্য (মহি) মহাবেদবাণী! (প্রবোধয়) তুমি অশ্বিদের প্রাতঃকালে বোধ প্রদান করো। (যজ্ঞহোতঃ) হে যজ্ঞকারী “হোতা” নামবিশিষ্ট ঋত্বিক্! তুমি (আনুষক্) নিরন্তর অর্থাৎ সদা (প্র বোধয়) অশ্বিদের যজ্ঞ করার জন্য সাবধান/বোধ প্রদান করো, তথা (মদায়) তাঁদের এবং রাষ্ট্রের প্রসন্নতার জন্য তাঁদের (বৃহৎ শ্রবঃ প্র বোধয়) বেদবাণীর মহা-শ্রাবণ করাও।

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