अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 142/ मन्त्र 6
यन्नू॒नं धी॒भिर॑श्विना पि॒तुर्योना॑ नि॒षीद॑थः। यद्वा॑ सु॒म्नेभि॑रुक्थ्या ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । नू॒नम् । धी॒भि: । अ॒श्वि॒ना॒ । पि॒तु: । योना॑ । नि॒ऽसीद॑थ: ॥ यत् । वा॒ । सु॒म्नेभि॑: । उ॒क्थ्या॒ ॥१४२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्नूनं धीभिरश्विना पितुर्योना निषीदथः। यद्वा सुम्नेभिरुक्थ्या ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । नूनम् । धीभि: । अश्विना । पितु: । योना । निऽसीदथ: ॥ यत् । वा । सुम्नेभि: । उक्थ्या ॥१४२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) क्योंकि (नूनम्) अवश्य, (उक्थ्या) हे बड़ाई योग्य (अश्विना) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] (धीभिः) कर्मों के साथ, (वा) और (यत्) क्योंकि (सुम्नेभिः) अनेक सुखों के साथ (पितुः) पालन करनेवाले पुरुष के (योना) घर में (निषीदथः) दोनों बैठते हो ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य दिन-राति तत्त्व का ग्रहण करके यशस्वी, बलवान् और कार्यकुशल होवें ॥४-६॥
टिप्पणी
६−(यत्) यतः (नूनम्) अवश्यम् (धीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१। (अश्विना) हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (पितुः) पालनकर्तुः पुरुषस्य (योना) योनौ। गृहे (निषीदथः) उपविशथः। निवसथः (यत्) यतः (वा) समुच्चये (सुम्नेभिः) सुम्नैः। अनेकसुखैः (उक्थ्या) हे उक्थ्यौ। प्रशस्यौ ॥
विषय
धीभिः-सुम्नेभिः
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (यत्) = चूँकि (धीभि:) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्मों के द्वारा (पितुः योना) = उस परमपिता प्रभु के गृह में (निषीदथ:) = आसीन होते हो, अर्थात् आपकी साधना के द्वारा मल-क्षय व ज्ञानदीप्ति होकर प्रभु का दर्शन होता है। (यद् वा) = अथवा (सुम्नेभि:) = स्तोत्रों के द्वारा आप ब्रह्मलोक में निवास कराते हो, अत: उवथ्या आप स्तुत्य होते हो।
भावार्थ
प्राणसाधना से बुद्धि का विकास होता है, स्तुति की प्रवृत्ति जागरित होती है। ये बुद्धि व स्तुति हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाली होती हैं। यह प्रभु के गृह में निवास करनेवाला व्यक्ति 'पुरुमीढ' अपने में शक्ति का खुब ही सेचन करनेवाला बनता है यह 'आजमीढ'-[अजा गतौ] गति का अपने में सेचन करता है। प्रभु का उपासक शक्ति व गतिवाला होता है। इन्हीं के अगले सूक्त के प्रथम सात मन्त्र हैं। आठवें का ऋषि वामदेव-सुन्दर दिव्यगुणोंवाला है। नौवें के ऋषि मेध्यातिथि व मेधातिथि है-पवित्र प्रभु की ओर चलनेवाले, बुद्धि की ओर चलनेवाले। प्रथम मन्त्र यह है -
भाषार्थ
हे (प्रचेतसा) प्रज्ञासम्पन्न अश्वियो! तुम दोनों, (प्र द्युम्नाय) राष्ट्रसम्बन्धी प्रकृष्ट-अन्न तथा प्रकृष्ट यश के चिन्तन के लिए, (प्र शवसे) प्रकृष्ट-सैनिकादि बल के चिन्तन के लिए, (प्र नृषाह्याय) शत्रुओं के प्रकृष्ट पराभव के चिन्तन के लिए, (प्र दक्षाय) राष्ट्र की प्रगति तथा वृद्धि के चिन्तन के लिए॥ ५॥ (उक्थ्या अश्विना) हे प्रशंसनीय अश्वियो! तुम दोनों, (यत् नूनम्) निश्चयपूर्वक (धीभिः) अपने-अपने निश्चित कर्त्तव्यकर्मों के अनुसार, (यद् वा) तथा (सुम्नेभिः) प्रजाजनों को सुख पहुंचाने की भावनाओं के अनुसार, (पितुः) परमपिता परमेश्वर के (योना=योनौ) सिंहासन पर (निषीदथः) बैठते हो॥ ६॥
टिप्पणी
[द्युम्नाय=द्युम्नं द्योततेर्यशो वा अन्नं वा (निरु০ ५.१.५)। शवस्=बलम् (निघं০ २.९)। दक्षाय= दक्ष गतिवृद्धयोः। धीभिः=धीः कर्मनाम (निघं০ २.१)। सुम्नेभिः=सुम्नम् सुखनाम (निघं০ ३.६)। पितुर्योना=देखो मन्त्र २०.१४०.२ की टिप्पणी।]
विषय
वेदवाणी।
भावार्थ
हे (अश्विनौ) विद्या और कर्म में पारंगत आचार्य और प्रध्यापक एवं विद्वान् स्त्री पुरुषो ! (यत्) क्योंकि आप दोनों (धीभिः) कर्मों और ज्ञानों से (पितुः) पालक पिता के (योनौ) स्थान पर (निषीदथः) विराजते हो तुम दोनों पिता के तुल्य पूजनीय हो (यद्वा) और क्योंकि तुम दोनों (सुम्नेभिः) सुखकारी उपायों से भी पिता के पद पर बैठने योग्य हो इसलिये तुम दोनों (उक्थ्या) प्रशंसा के योग्य हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शशकर्ण ऋषिः। अश्विनौ देवते -१-४ अनुष्टुभः। ५, ६, गायत्र्यौ। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Adorable Ashvins, when with your thoughts and acts of the day you go back and sit in the parental home with all rest in peace, then come again and bless us with peace and prosperity of an active life.
Translation
Since these teacher and preacher whom all praises are due with their wisdom and acts are praiseworthy therefore, they with many pleasures rest in the shelter of God who is the father of all.
Translation
Since these teacher and preacher whom all praises are due with their wisdom and acts are praiseworthy therefore, they with many pleasures rest in the shelter of God who is the father of all.
Translation
O ‘Asvins,’ as you certainly occupy the position of the parents by your intelligence and actions and by your pleasure-giving means and knowledge, you are worthy of our respect and praise.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(यत्) यतः (नूनम्) अवश्यम् (धीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१। (अश्विना) हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (पितुः) पालनकर्तुः पुरुषस्य (योना) योनौ। गृहे (निषीदथः) उपविशथः। निवसथः (यत्) यतः (वा) समुच्चये (सुम्नेभिः) सुम्नैः। अनेकसुखैः (उक्थ्या) हे उक्थ्यौ। प्रशस्यौ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
অহোরাত্রসুপ্রয়োগোপদেশঃ
भाषार्थ
(যৎ) কারণ (নূনম্) অবশ্য, (উক্থ্যা) হে প্রশংসনীয় (অশ্বিনা) উভয় অশ্বী [ব্যাপক দিন-রাত্রি] (ধীভিঃ) কর্মের সাথে, (বা) এবং (যৎ) কারণ (সুম্নেভিঃ) অনেক সুখের সাথে (পিতুঃ) পালনকারী পুরুষের (যোনা) ঘরে (নিষীদথঃ) উভয়ে উপবেশন করো॥১৪২.৬॥
भावार्थ
মনুষ্য দিবা-রাত্রি তত্ত্ব গ্রহণ করে যশস্বী, বলবান এবং কার্যকুশলী হোক ॥৪-৬॥
भाषार्थ
(উক্থ্যা অশ্বিনা) হে প্রশংসনীয় অশ্বিদ্বয়! তোমরা, (যৎ নূনম্) নিশ্চিতরূপে (ধীভিঃ) নিজ-নিজ নিশ্চিত কর্ত্তব্যকর্মানুসারে, (যদ্ বা) তথা (সুম্নেভিঃ) প্রজাদের সুখ প্রদানের ভাবনা অনুসারে, (পিতুঃ) পরমপিতা পরমেশ্বরের (যোনা=যোনৌ) সিংহাসনে (নিষীদথঃ) বসো॥ ৬॥
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