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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९२
    12

    यो व्यतीँ॒रफा॑णय॒त्सुयु॑क्ताँ॒ उप॑ दा॒शुषे॑। त॒क्वो ने॒ता तदिद्वपु॑रुप॒मा यो अमु॑च्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । व्यती॑न् । अफा॑णयत् । सुऽयु॑क्तान् । उप॑ । दा॒शुषे॑ ॥ त॒क्व: । ने॒ना । तत् । इत् । वपु॑: । उ॒प॒ऽमा । य: । अमु॑च्यत ॥९२.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो व्यतीँरफाणयत्सुयुक्ताँ उप दाशुषे। तक्वो नेता तदिद्वपुरुपमा यो अमुच्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । व्यतीन् । अफाणयत् । सुऽयुक्तान् । उप । दाशुषे ॥ तक्व: । नेना । तत् । इत् । वपु: । उपऽमा । य: । अमुच्यत ॥९२.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जिस [परमात्मा] ने (व्यतीन्) विविध प्रकार चलते रहनेवाले, (सुयुक्तान्) बड़े योग्य पदार्थों को (दाशुषे) आत्मदानी [भक्त] के लिये (उप) सुन्दर रीति से (अफाणयत्) सहज में उत्पन्न किया है और (यः) जिस [परमात्मा] ने (उपमाः) पास रहनेवाले को (अमुच्यत) [दुःखों से] मुक्त किया है, (तत् इत्) वही (वपुः) बीज बोनेवाला [ब्रह्म] (तक्वः) व्यापक (नेता) नेता [अगुआ परमात्मा] है ॥१०॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा ने अपने सहज स्वभाव से अनोखे-अनोखे पदार्थ रचकर अपने विवेकी भक्तों को परम आनन्द दिया है, सब मनुष्य उस सर्वशक्तिमान् की उपासना करके सुखी होवें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(यः) परमात्मा (व्यतीन्) अत सातत्यगमने-इन्। विविधसदागमनशीलान् (अफाणयत्) फण गतौ अनायासेनोत्पत्तौ च-णिच्। फणतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अनायासेनोत्पादितवान् (सुयुक्तान्) सुयोग्यान् पदार्थान् (उप) पूजायाम् (दाशुषे) आत्मदानिने। उपासकाय (तक्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१। तकतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। वप्रत्ययः। व्यापकः (नेता) (तत्) (इत्) एव (वपुः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। डुवप बीजतन्तुसन्ताने-उसि। बीजोत्पादकं ब्रह्म (उपमा) विभक्तेराकारः। उपमे अन्तिकनाम-निघ० २।१६। उपमं निकटस्थम्। उपासकम् (यः) परमात्मा (अमुच्यत) मुक्तवान् दुःखेभ्यः ॥

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    विषय

    वपुः

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (दाशुषे) = दानशील अथवा अपने को प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाले के लिए (वि+अतीन्) = विशिष्ट गतिवाले (सुयुक्तान्) = उत्तमता से शरीर-रथ में जुते हुए इन्द्रियाश्वों को (उप अफाणयत्) = समीपता से प्राप्त करता है, वह प्रभु ही (तक्वः) = हमारे यज्ञों में प्राप्त होनेवाले हैं। प्रभु ही हमें यज्ञों के प्रति प्राप्त कराते हैं। २. नेता-वे प्रभु ही हमें मार्ग पर ले-चलनेवाले हैं। प्रभु नेता होते हैं तो (तत् इत्) = तभी यह उपासक (वपुः) = सब बुराइयों का वपन [छेदन] करनेवाला होता है। (उपमा) = यह औरों के लिए उपमानभूत हो जाता है। ऐसा बन जाता है कि (यः अमुच्यत) = जो मुक्त हो जाता है। पवित्र जीवनवाले पुरुषों की, लोग इससे उपमा देने लग जाते हैं कि 'यह तो ऐसा पवित्र है, जैसाकि वह वपुः ।

    भावार्थ

    हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। प्रभु हमें गतिशील सुयुक्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त कराके उत्तम मार्ग पर ले-चलेंगे। हम बुराइयों का छेदन करके उपमानभूत जीवन को प्रास करेंगे। हम जीवन्मुक्त-से बन जाएंगे।

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    भाषार्थ

    (यः) जिस परमेश्वर ने (व्यतीन्) व्युत्थित-वृत्तियों से रहित उपासकों को (अफाणयत्) योगमार्ग में प्रगतिशील किया, और उन्हें (सुयुक्तान्) सुगमता से योगयुक्त किया, तथा (उपयुक्तान्) योगमार्ग के उपयोगी किया, वह परमेश्वर (तक्वः) प्रसन्न होकर, (दाशुषे) आत्मसमर्पक के लिए, (नेता) मार्ग प्रदर्शन करता है, वह (उपमा) उपमारूप है, (यः) जो कि उपासक के (तत् इत्) उसी वर्त्तमान (वपुः) शरीर को (अमुच्यत) छुड़ा देता, और उसे मुक्त कर देता है।

    टिप्पणी

    [व्यतीन्=वि+अत् (सातत्यगमने)=चित्त की सततगति से विहीन। अफाणयत्=फणति गतिकर्मा (निघं০ २.१४)। तक्व=तक् हसने।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (यः) जो योगाभ्यासी पुरुष (व्यतीन्) विविध विषयों में जाने वाले (सु युक्तान्) उत्तम रीति से सन्मार्ग में लगाये गये, इन्द्रिय रूप प्राणों को (दाशुषे उप) यज्ञशील आत्मा के निमित्त उसी को प्राप्त करने के लिये (उप अफाणयत्) उसके प्रति पहुंचाता है उनको वशकर भीतर की तरफ ही एकाग्र कर लेता है वह (तक्वः) कृच्छ्र तपस्वी (नेता) नायक के समान (यः उपमा) जो उसका साक्षात् ज्ञान कर लेता है (तत् इत्) तब ही (वपुः अमुच्यत) इस शरीर बन्धन से मुक्त हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    That soul is Indra, man of self control and self power, who withdraws his scattered powers of senses and mind, turns them inward and engages them into meditation for the sake of generosity of the spirit, and then as their patient master and leader, with the power and grace of his self-possession, releases and relaxes them in the state of peace. He is the sovereign soul.

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    Translation

    That _ All-pervading He (God) who creates the moving and well—arranged worldly objects for the enjoyment of the soul (Dashushe), who relieves from all pains the man who- is in His close contact and whio is sower of seed in matter, is our leader.

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    Translation

    That All-pervading He (God) who creates the moving and well—arranged worldly objects for the enjoyment of the soul (Dashushe), who relieves from all pains the man who is in His close contact and who is sower of seed in matter, is our leader.

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    Translation

    The powerful yogi surely surpasses all impediments of inimical forces of evil and ignorance, or attaining a very charming form beyond the sense-organs and mind even, by this devotional praise-singing, succeeds in breaking open the gate, the highest post of salvation, the ripe fruit of his life-long efforts.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(यः) परमात्मा (व्यतीन्) अत सातत्यगमने-इन्। विविधसदागमनशीलान् (अफाणयत्) फण गतौ अनायासेनोत्पत्तौ च-णिच्। फणतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। अनायासेनोत्पादितवान् (सुयुक्तान्) सुयोग्यान् पदार्थान् (उप) पूजायाम् (दाशुषे) आत्मदानिने। उपासकाय (तक्वः) कॄगॄशॄदॄभ्यो वः। उ० १।१। तकतिर्गतिकर्मा-निघ० २।१४। वप्रत्ययः। व्यापकः (नेता) (तत्) (इत्) एव (वपुः) अर्तिपॄवपि०। उ० २।११७। डुवप बीजतन्तुसन्ताने-उसि। बीजोत्पादकं ब्रह्म (उपमा) विभक्तेराकारः। उपमे अन्तिकनाम-निघ० २।१६। उपमं निकटस्थम्। उपासकम् (यः) परमात्मा (अमुच्यत) मुक्तवान् दुःखेभ्यः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যঃ) যিনি/যে [পরমাত্মা] (ব্যতীন্) বিবিধ প্রকারে সদা গমনশীল, (সুয়ুক্তান্) সুযোগ্য পদার্থ সমূহকে (দাশুষে) আত্মদানী [ভক্ত] এর জন্য (উপ) উত্তম রীতিতে (অফাণয়ৎ) সহজে/অনায়াসে উৎপন্ন করেছেন এবং (যঃ) যিনি/যে [পরমাত্মা] (উপমাঃ) নিকটে স্থিত উপাসককে (অমুচ্যত) [দুঃখ থেকে] মুক্ত করেছেন, (তৎ ইৎ) তিনি-ই (বপুঃ) বীজ বপনকারী, বীজ উৎপাদক [ব্রহ্ম] (তক্বঃ) ব্যাপক (নেতা) নেতা [অগ্রণী পরমাত্মা] ॥১০॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মা নিজ সরল স্বভাব দ্বারা অত্যন্ত গুরুত্বপূর্ণ পদার্থসমূহ রচনা করে নিজের বিবেকবান ভক্তদের পরম আনন্দ প্রদান করেছেন, সকল মনুষ্য সেই সর্বশক্তিমানের উপাসনা করে সুখী হোক ॥১০॥

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    भाषार्थ

    (যঃ) যে পরমেশ্বর (ব্যতীন্) ব্যুত্থিত-বৃত্তি রহিত উপাসকদের (অফাণয়ৎ) যোগমার্গে প্রগতিশীল করেছেন, এবং তাঁদের (সুযুক্তান্) সুগমতাপূর্বক যোগযুক্ত করেছেন, তথা (উপযুক্তান্) যোগমার্গের উপযোগী করেছেন, সেই পরমেশ্বর (তক্বঃ) প্রসন্ন হয়ে, (দাশুষে) আত্মসমর্পকের জন্য, (নেতা) মার্গ প্রদর্শন করেন, তিনি (উপমা) উপমারূপ, (যঃ) যিনি উপাসকের (তৎ ইৎ) সেই বর্ত্তমান (বপুঃ) শরীরকে (অমুচ্যত) মুক্ত করে।।

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