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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 92/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९२
    19

    उद्यद्ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॑ गृ॒हमिन्द्र॑श्च॒ गन्व॑हि। मध्वः॑ पी॒त्वा स॑चेवहि॒ त्रिः स॒प्त सख्युः॑ प॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् ।यत् । ब्र॒ध्नस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । गृ॒हम् । इन्द्र॑: । च॒ । गन्व॑हि ॥ मध्व॑: । पी॒त्वा । स॒चे॒व॒हि॒ । त्रि । स॒प्त । सख्यु॑: । प0952गदे ॥९२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्यद्ब्रध्नस्य विष्टपं गृहमिन्द्रश्च गन्वहि। मध्वः पीत्वा सचेवहि त्रिः सप्त सख्युः पदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् ।यत् । ब्रध्नस्य । विष्टपम् । गृहम् । इन्द्र: । च । गन्वहि ॥ मध्व: । पीत्वा । सचेवहि । त्रि । सप्त । सख्यु: । प0952गदे ॥९२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 92; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मन्त्र ४-२१ परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (ब्रध्नस्य) नियम करनेवाले [वा महान्, परमेश्वर] के (विष्टपम्) सहारे [अर्थात्] (गृहम्) शरण को (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला आचार्य] (च) और [मैं ब्रह्मचारी] (उत्) ऊँचे होकर (गन्वहि) हम दोनों प्राप्त करें। (त्रिः) तीन बार [सत्त्व, रज, तम तीनों गुणों सहित] (सप्त) सात [भूर् भुवः आदि सात अवस्थाओंवाले संसार] के (मध्वः) निश्चित ज्ञान का (पीत्वा) पान करके (सख्युः) सखा [मित्र, परमात्मा] के (पदे) पद [प्राप्तियोग्य मोक्षसुख] में (सचेवहि) हम दोनों सींचे जावें ॥४॥

    भावार्थ

    आचार्य और जिज्ञासु ब्रह्मचारी परमात्मा की शरण लेकर सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों द्वारा भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्य इन सात अवस्थाओं से सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों को जानकर मोक्ष पद प्राप्त करके सदा वृद्धि करें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(उत्) उच्चैः (यत्) यदा (ब्रध्नस्य) अ० ७।२२।२। नियामकस्य। महतः परमेश्वरस्य (विष्टपम्) अ० १०।१०।३१। आश्रयम् (गृहम्) शरणम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवानाचार्यः (च) अहं ब्रह्मचारी च (गन्वहि) आवां प्राप्नुयाम (मध्वः) मधुनः। यथार्थज्ञानस्य (पीत्वा) पानं कृत्वा। अनुभूय (सचेवहि) षच समवाये सेके च। सिक्तौ प्रवृद्धौ भवेव (त्रिः) त्रिवारं सत्त्वरजस्तमोगुणैः (सप्त) भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्, इति सप्तावस्थाविशेषसम्बन्धिनः संसारस्य (सख्युः) सर्वमित्रस्य परमेश्वरस्य (पदे) प्राप्तव्ये मोक्षसुखे ॥

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    विषय

    सख्युः पदे

    पदार्थ

    १. घर में पत्नी यह कामना करती है कि मैं (च) = और (इन्द्रः) = मेरा यह जितेन्द्रिय पति हम दोनों ही (उत्) = उत्कृष्ट (यत्) = जो (बध्नस्य विष्टपम्) = सूर्य के तापशून्य अथवा विशिष्ट रूप से दीप्त (गृहे) = गृह को (गन्वहि) = जाएँ, अर्थात् हमारे घर में सूर्य की किरणें व प्रकाश बहुत ही अच्छी तरह आएँ। सूर्यकिरणें इस गृह को तापशून्य व नीरोग बनानेवाली हों। २. (मध्वः पीत्वा) = इस गृह में रहते हुए हम सोम का पान करके (सख्युः पदे) = परमसखा उस प्रभु के चरणों में (त्रि:सप्त) = इक्कीस शक्तियों को (सचेवहि) = प्राप्त करें।

    भावार्थ

    हमारे घर सूर्यकिरणों से प्रकाशित हों। इनमें हम प्रभु का स्मरण करते हुए सोमरक्षण द्वारा शरीर की सब शक्तियों को स्थिर रखें।

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    भाषार्थ

    (ब्रध्नस्य) बृहद्-ब्रह्म के (विष्टपम्) ताप-संताप रहित (गृहम्) हृदय-गृह में, (यद्) जब (इन्द्रः) परमेश्वर (च) और मैं उपासक (उद् गन्वहि) इकट्ठे हो जाते हैं, तब (मध्वः पीत्वा) परमेश्वर मेरे मधुरभक्तिरस को, और मैं उपासक परमेश्वर के आनन्दरस को पीकर—(सख्युः) सखिपन के (त्रिः सप्त पदे) २१ वें पद पर (सचेवहि) परस्पर एक-दूसरे के संगी साथी हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    [त्रिः सप्त पदे=त्रिः सप्तमे पदे, अर्थात् २१ वें पद पर। ५ भूतों से उत्पन्न स्थूल शरीर के ५ पद, ५ तन्मात्रों के सूक्ष्मशरीर के ५ पद, ५ कर्मेन्द्रियों के ५ पद, ५ ज्ञानेन्द्रियों के ५ पद। २१ वां पद है अन्तःकरण। अर्थात् उपासक जब स्थूल शरीर, पंच-तन्मात्राओं ५ कर्मेन्द्रियों और ५ ज्ञानेन्द्रियों पर विजय पाकर, आनन्दानुगत तथा अस्मितानुगत समाधियों में, अन्तःकरण में लीन हो जाता है—तब इस २१ वें स्थान में, पद में, परमेश्वर और उपासक में सखिभाव स्थापित हो जाता है। ब्रध्नस्य=ब्रध्नः महान् (निघं০ ३.३)। विष्टपम्=वि+तप (ताप-सन्ताप)। पंच तन्मात्रा—शीत, उष्ण, सुख, दुःख की अनुभूतियाँ पञ्चतन्मात्रिक शरीर द्वारा होती हैं। गीता में कहा है कि—“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः” (गीता০ २.१४)। थिओसोफिस्ट जिसे Astral body कहते हैं, वह यह पञ्चतन्मात्रिक शरीर ही है।]

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    विषय

    ईश्वर स्तुति।

    भावार्थ

    (यत्) जब (इन्दः च) मैं और विभूतिमान् परम = आत्मा हम दोनों (ब्रध्नस्य) सर्वाश्रय इस महान् परमेश्वर के मोक्षमय (विष्टपं गृहम्) विविध तपस्याओं से युक्त अथवा आविष्ट या उपविष्ट पुरुष की रक्षा करने वाले शरण को (उत् गन्वहि) प्राप्त होते हैं तब वहां (त्रिः सप्त) इक्कीसवें, परम आदित्यस्वरूप, तेजोमय (सख्युः) सखा, मित्र, परमेश्वर के (पदे) ज्ञानमय वेद्य रूप में स्थित होकर (मध्वः) आनन्दरस का (पीत्वा) पान करके (सचेवहि) परस्पर संगत होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ प्रिययेधः, १६-२१ पुरुहन्मा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १-३ गायत्र्यः। ८, १३, १७, २१, १९ पंक्तयः। १४-१६, १८, २० बृहत्यः। शेषा अनुष्टुभः। एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brhaspati Devata

    Meaning

    Up let us rise on top of the sun and vast spaces, reach the abode of Indra, and, having drunk the soma sweet of ecstasy, let us be together across and over the thrice seven stages of being in evolution in the purely spiritual state of the lord’s presence as a friend. (The thrice seven are the steps of physical, mental and pychic evolutionary phases of existence in three qualitative modes of being in the process of becoming. The seven states of evolution in descending order from pure being are: mahat, Ahankara and the five elements, akasha, vayu, agni, apah and prthivi. The three qualitative modes are sattva, rajas and tamas or thought, energy and matter. Another way to explain the twenty one is: five elements, five pranic energies, five perceptive organs and five organs of volition, the twenty-first is antahkarana or psychic self. When the psychic self or the soul in the existential state wishes to rise back to the purely spiritual state, it has to cross the twenty one stages and then be in the company of Indra, the cosmic self, and even later, in the transcendental state of absolute Being, the Spirit, the Brahmic state. This is set out in detail in the Sankhya, Yoga and Vedanta philosophy.)

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    Translation

    I, the disciple and Indra, the preceptor when reach vast refuge (Griha) of great controlling God drinking the knowledge of twenty one elements of rare body (Sukshma sharira) unite us with the knowledge and happiness of God who is our friend.

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    Translation

    I, the disciple and Indra, the preceptor when reach vast refuge (Griha) of great controlling God drinking the knowledge of twenty one elements of rare body (Sukshma sharira) unite us with the knowledge and happiness of God who is our friend.

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    Translation

    O learned seers of lovely intelligence, worship Him, the suppressor of all evil forces. Thoroughly sing His praises. Do pray to Him. Let the sons pay their homage to Him and pay your obeisance to Him, Who subdues all evils like a fort.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(उत्) उच्चैः (यत्) यदा (ब्रध्नस्य) अ० ७।२२।२। नियामकस्य। महतः परमेश्वरस्य (विष्टपम्) अ० १०।१०।३१। आश्रयम् (गृहम्) शरणम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवानाचार्यः (च) अहं ब्रह्मचारी च (गन्वहि) आवां प्राप्नुयाम (मध्वः) मधुनः। यथार्थज्ञानस्य (पीत्वा) पानं कृत्वा। अनुभूय (सचेवहि) षच समवाये सेके च। सिक्तौ प्रवृद्धौ भवेव (त्रिः) त्रिवारं सत्त्वरजस्तमोगुणैः (सप्त) भूर्, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम्, इति सप्तावस्थाविशेषसम्बन्धिनः संसारस्य (सख्युः) सर्वमित्रस्य परमेश्वरस्य (पदे) प्राप्तव्ये मोक्षसुखे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মন্ত্রাঃ-৪-২১ পরমাত্মগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যৎ) যখন (ব্রধ্নস্য) নিয়ামক/নিয়ন্তা/নিয়মকর্তা [বা মহান্, পরমেশ্বর এর] (বিষ্টপম্) আশ্রয়ে [অর্থাৎ] (গৃহম্) শরণকে (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যযুক্ত আচার্য] (চ) এবং [আমি ব্রহ্মচারী] আমরা উভয়েই (উৎ) উচ্চ হয়ে (গন্বহি) প্রাপ্ত করি। (ত্রিঃ) তিন বার [সত্ত্ব, রজ, তম তিন গুণের সহিত] (সপ্ত) সপ্ত [ভূর্ ভুবঃ আদি সপ্ত অবস্থাযুক্ত সংসার]-এর (মধ্বঃ) নিশ্চিত জ্ঞান (পীত্বা) পানের মাধ্যমে (সখ্যুঃ) সখার [মিত্র, পরমাত্মার] (পদে) পদে [প্রাপ্তিযোগ্য মোক্ষসুখে] (সচেবহি) আমরা উভয়ে অভিষিক্ত হই ॥৪॥

    भावार्थ

    আচার্য এবং জিজ্ঞাসু ব্রহ্মচারী পরমাত্মার শরণ নিয়ে সত্ত্ব, রজ ও তম এই তিন গুণ দ্বারা ভূর্, ভুবঃ, স্বঃ, মহঃ, জনঃ, তপঃ এবং সত্য এই সপ্ত অবস্থার মাধ্যমে সূক্ষ্ম ও স্থূল পদার্থকে জ্ঞাত হয়ে মোক্ষ পদ প্রাপ্তির দ্বারা সদা সমৃদ্ধি প্রাপ্ত হয় ॥৪॥

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    भाषार्थ

    (ব্রধ্নস্য) বৃহদ্-ব্রহ্মের (বিষ্টপম্) তাপ-সন্তাপ রহিত (গৃহম্) হৃদয়-গৃহে, (যদ্) যখন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (চ) এবং আমি উপাসক (উদ্ গন্বহি) একত্রিত হই, তখন (মধ্বঃ পীত্বা) পরমেশ্বর আমার মধুরভক্তিরস, এবং আমি উপাসক পরমেশ্বরের আনন্দরস পান করে—(সখ্যুঃ) সখ্যতা-এর (ত্রিঃ সপ্ত পদে) ২১ তম পদে (সচেবহি) পরস্পর একে-অপরের সঙ্গী সাথী হয়ে যাই।

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