अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - वायुः, त्वष्टा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
21
गो॒सनिं॒ वाच॑मुदेयं॒ वर्च॑सा मा॒भ्युदि॑हि। आ रु॑न्धां स॒र्वतो॑ वा॒युस्त्वष्टा॒ पोषं॑ दधातु मे ॥
स्वर सहित पद पाठगो॒ऽसनि॑म् । वाच॑म् । उ॒दे॒य॒म् । वर्च॑सा । मा॒ । अ॒भि॒ऽउदि॑हि । आ । रु॒न्धा॒म् । स॒र्वत॑: । वा॒यु: । त्वष्टा॑ । पोष॑म् । द॒धा॒तु॒ । मे॒ ॥२०.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
गोसनिं वाचमुदेयं वर्चसा माभ्युदिहि। आ रुन्धां सर्वतो वायुस्त्वष्टा पोषं दधातु मे ॥
स्वर रहित पद पाठगोऽसनिम् । वाचम् । उदेयम् । वर्चसा । मा । अभिऽउदिहि । आ । रुन्धाम् । सर्वत: । वायु: । त्वष्टा । पोषम् । दधातु । मे ॥२०.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(गोसनिम्) गोलोक [गौओं वा स्वर्ग] की देनेवाली (वाचम्) वाणी को (उदेयम्) मैं बोलूँ। [हे ईश्वर !] (वर्चसा) तेज के साथ (मा=माम्) मेरे ऊपर (अभ्युदिहि) सब ओर से उदय हो। (वायुः) प्राण वायु [मुझको] (सर्वतः) सब प्रकार से (आ रुन्धाम्) घेरे रहे। (त्वष्टा) विश्वकर्मा परमेश्वर वा सूर्य (मे) मेरे लिए (पोषम्) पोषण (दधातु) देता रहे ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्य ईश्वर के ध्यान से सत्यवादी और सत्यकर्मी होकर अपने प्राणों को वश में रक्खे और पुरुषार्थी होकर सूर्य से वृष्टि द्वारा अपना पोषण प्राप्त करे ॥१०॥ ॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
१०−(गोसनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। इति षणु दाने-इन्। गां धेनुं स्वर्गं वा सनोति ददातीति गोसनिः। गोलोकस्य धेनसमूहस्य। स्वर्गलोकस्य वा दात्रीम्। (वाचम्) वाणीम्। (उदेयम्) लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति वद व्यक्तायां वाचि-अङ्। उद्यासम्। (वर्चसा) तेजसा। अन्नेन-निघ० २।७। (मा) माम्। (अभ्युदिहि) अभित उद्गच्छ प्राप्नुहि। (आ रुन्धाम्) रुधिर् आवरणे-लोट्। आवृणोतु। आच्छादयतु। (सर्वतः) सर्वाभ्यो दिग्भ्यः। (वायुः) सूत्रात्मा। प्राणः। (त्वष्टा) अ० २।५।६। सूक्ष्मकर्ता। विश्वकर्मा परमेश्वरः। सूर्यः। (पोषम्) पुष्टिम्। (दधातु) धारयतु। ददातु। (मे) मह्यम् ॥
विषय
गोसनिं वाचमुदेयम्
पदार्थ
१. (गोसनिम्) = ज्ञान की वाणियों का ही सम्भजन करनेवाली (वाचम्, उदेयम्) = वाणी को मैं बोलूँ-हमारी वाणियाँ ज्ञानवर्धक शब्दों का ही उच्चारण करें। हे प्रभो! (वर्चसा) = तेजस्विता के साथ (मा अभि) = मेरी ओर (उदिहि) = आइए-आप मुझे तेजस्वी बनाइए। 'गोसनि वाक' का उच्चारण करता हुआ मैं ज्ञानी बनें और वर्चस्वी होऊँ। २. मुझे (सर्वतः) = सब ओर से (वायुः) = प्राणशक्ति और क्रियाशीलता (आरुन्धाम्) = रुद्ध करे। मैं सदा प्राणशक्ति-सम्पन्न ब क्रियाशील बना रहूँ। (त्वष्टा) = बह रूपों का निर्माता प्रभु में (पोषं दधातु) = मुझमें पोषण को धारण करे।
भावार्थ
मैं ज्ञान, वर्चस्, क्रियाशीलता व पोषण को धारण कर। विशेष-इसप्रकार जीवन को सब वसुओं से सम्पन्न करनेवाला 'वसिष्ठ' ही अगले सूक्त का भी ऋषि है -
भाषार्थ
(गोसनिम्) गोदान१ सम्बन्धी (वाचम्) वेद वाक् का (उदेयम्) मैं कथन अर्थात् प्रवचन करूं, [हे वाक्!] (वर्चसा) निजज्ञानदीप्ति के साथ (मा अभि) मेरे अभिमुख (उदिहि) उदित हो। (वायुः) वायुनामक परमेश्वर (सर्वत:) सब ओर (आ रुन्धाम्) मेरा आवरण करे, (त्वष्टा) कारीगर परमेश्वर (मे) मुझ में (पोषम्) पुष्टि (दधातु) स्थापित करे।
टिप्पणी
[गोसनिम्=गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)+ षणु दाने (तनादि:)। वाक् का दान करनेवाली वाणी है वेदवाक्। वेदवाक् ही सब वाणियों की मातृरूपा है। सब वाणियों का मूलस्रोत वेदवाणी ही है। अभ्युदिहि="उदिहि" द्वारा दृष्टान्तरूप में सूर्योदय अभिप्रेत है, जोकि दीप्ति द्वारा सबको प्रकाशित करता है। इसी प्रकार वेद वाक् है, जोकि निजज्ञान दीप्ति द्वारा ज्ञेयों का ज्ञान देती है। वायु से अभिप्रेत परमेश्वर है (यजुः० ३२।१)। परमेश्वर वायु अर्थात् प्राणरूप होकर सबका आवरण कर रहा है। रुन्धाम्=रुधिर् आवरणे (रुधादि:)। त्वष्टा="त्वक्षतेर्वा स्यात् करोतिकर्मणः" (निरुक्त ८।२।११)। "त्वक्षु तनूकरणे" (भ्वादिः) तनूकरण अर्थात् सूक्ष्मकरण का काम बढ़ई करता है। वह स्थूल काष्ठ से सूक्ष्म चमस, तथा कुर्सी आदि का निर्माण करता है। परमेश्वर भी बढ़ई के सदृश कारीगर है। वह महाव्यापिनी प्रकृति से अल्पकाय पृथिवी आदि और अन्न का उत्पादन कर हम में पोषण स्थापित कर रहा है। उदेयम्="वद व्यक्तायां वाचि" (भ्वादिः), "लिङयाशिष्यङ्" (अष्टा० ३।१।८६) इत्यङ्। उदेयम्=उद्यासम् उच्यासम् (सायण)] [१. परमेश्वर ने गोदान अर्थात् वेदवाणी हम सबको दी है, उसका दान किया है। यथा, "यथेमां वाचं कल्याणीमावदानी जनेभ्य:" आदि (यजु:० २६।२)। इसे "गोसनिम्" द्वारा निर्दिष्ट किया है। इस वेद वाणी के संबंध में कहा है कि "वाचम् उदेयम्"।]
विषय
ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य और सद्गुणों की प्रार्थना ।
भावार्थ
मैं (गोसनिं) गौ=वाणी, ज्ञान, आत्मा, परमेश्वर और वेद वाणी को भजन करने हारी (वाचम्) वाणी का (उदेयं) उच्चारण करूं । हे परमात्मन् ! (मा वर्चसा) मुझ को ब्रह्म तेज से (अभि उत्-इहि) और भी उन्नत कर। (सर्वतः) सब प्रकार (वायुः) सब का विधारक परमात्मा (मे) मुझे (आ रुन्धाम्) सब बुरे मार्गों में जाने से बचावे । (त्वष्टा) सब पदार्थों का उत्पादक परमात्मा (मे) मेरा (पोषं दधातु) पोषण करे। इति चतुर्थोऽनुवाकः ।
टिप्पणी
(तृ०) ‘आरुधाम्’ इति क्वचित्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्वा मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-५, ७, ९, १० अनुष्टुभः। ६ पथ्या पंक्तिः। ८ विराड्जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Man’s Self-development
Meaning
Let me speak the cultured language of knowledge and divine awareness. O Lord of light, raise me with the light and lustre of life. May Vayu, divine vibrancy of life protect me all round and stop me from going astray. May Tvashta, divine spirit of refinement, bear and bring me all round nourishment for body, mind and soul.
Subject
Vāyu and Tvastr
Translation
May I speak words winning cows for me. May the vital wind surround me on all sides. May the supreme architect provide nourishment for me.
Translation
O’ God; may we pronounce the Vedic word enclothed with knowledge please uplift me with the splendor of your knowledge. May air obstruct me from doing evil and may the sun give growth to me.
Translation
May I utter speech full of knowledge, O God, ameliorate me through divine splendor. May God in every way save me from treading evil paths. May God grant me strength.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(गोसनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। इति षणु दाने-इन्। गां धेनुं स्वर्गं वा सनोति ददातीति गोसनिः। गोलोकस्य धेनसमूहस्य। स्वर्गलोकस्य वा दात्रीम्। (वाचम्) वाणीम्। (उदेयम्) लिङ्याशिष्यङ्। पा० ३।१।८६। इति वद व्यक्तायां वाचि-अङ्। उद्यासम्। (वर्चसा) तेजसा। अन्नेन-निघ० २।७। (मा) माम्। (अभ्युदिहि) अभित उद्गच्छ प्राप्नुहि। (आ रुन्धाम्) रुधिर् आवरणे-लोट्। आवृणोतु। आच्छादयतु। (सर्वतः) सर्वाभ्यो दिग्भ्यः। (वायुः) सूत्रात्मा। प्राणः। (त्वष्टा) अ० २।५।६। सूक्ष्मकर्ता। विश्वकर्मा परमेश्वरः। सूर्यः। (पोषम्) पुष्टिम्। (दधातु) धारयतु। ददातु। (मे) मह्यम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(গোসনিম্) গোদান১ সম্বন্ধী (বাচম্) বেদ বাক্-এর (উদেয়ম্) আমি কথন অর্থাৎ প্রবচন করি, [হে বাক্ !] (বর্চসা) নিজ জ্ঞানদীপ্তির সাথে (মা অভি) আমার অভিমুখে (উদিহি) উদিত হও। (বায়ুঃ) বায়ুনামক পরমেশ্বর (সর্বতঃ) সবদিকে/সর্বতোভাবে (আ রুন্ধাম্) আমার আবরণ করুক, (ত্বষ্টা) কারিগর পরমেশ্বর (মে) আমার মধ্যে (পোষম্) পুষ্টি (ধাতু) স্থাপিত করুক।
टिप्पणी
[গোসনিম্ = গৌঃ বাঙ্নাম (নিঘং০ ১।১১)+ ষণু দানে (তনাদিঃ)। বাক্-এর প্রদানকারী বাণী হলো বেদবাক্। বেদবাক্ ই হলো সমস্ত বাণীর মাতৃরূপা। সমস্ত বাণীর মূলস্রোত হলো বেদবাণী। অভ্যুদিহি= "উদিহি" দ্বারা দৃষ্টান্তরূপে সূর্যোদয় অভিপ্রেত হয়েছে, যা দীপ্তি দ্বারা সবকিছু প্রকাশিত করে। এরূপ বেদবাক্, যা নিজজ্ঞান দীপ্তি দ্বারা জ্ঞেয়দের জ্ঞান প্রদান করে। বায়ু দ্বারা অভিপ্রেত হলেন পরমেশ্বর (যজু০ ৩২।১)। পরমেশ্বর বায়ু অর্থাৎ প্রাণরূপ হয়ে সকলের আবরণ করছেন। রুন্ধাম্= রুধির আবরণে (রুধাদিঃ)। ত্বষ্টা= "ত্বক্ষতের্বা স্যাৎ করোতিকর্মণঃ' (নিরুক্ত ৮।২।১১)। "ত্বক্ষূ তনূকরণে" (ভ্বাদিঃ) তনূকরণ অর্থাৎ সূক্ষ্মকরণের কাজ তক্ষক/ছুতোর করে। সে স্থূল কাষ্ঠ থেকে সূক্ষ্ম স্রুব, এবং চেয়ার আদি নির্মাণ করে। পরমেশ্বরও হলেন তক্ষকের মতো কারীগর। তিনি মহাব্যাপিনী প্রকৃতি থেকে অল্পকায় পৃথিবী আদি ও অন্নের উৎপাদন করে পোষণ/পুষ্টি স্থাপিত করছেন। উদেয়ম্= "বদ ব্যক্তায়াং বাচি" (ভ্বাদিঃ), "লিঙ্যাশিষ্যঙ্" (অষ্টা০ ৩।১।৮৬) ইত্যঙ্। উদেয়ম্ =উদ্যাসম্, উচ্যাসম্ (সায়ণ)।] [১. পরমেশ্বর গোদান অর্থাৎ বেদবাণী আমাদের সকলকে দিয়েছেন, তা দান করেছেন। যথা, "যথেমাং বাচং কল্যাণীমাবদানী জনেভ্যঃ" আদি (যজু০ ২৬।২)। একে "গোসনিম্" দ্বারা নির্দিষ্ট করা হয়েছে। এই বেদবাণী সম্বন্ধে বলা হয়েছে "বাচম্ উদেয়ম্"।]
मन्त्र विषय
ব্রহ্মজ্ঞানোপদেশঃ
भाषार्थ
(গোসনিম্) গোলোক [স্বর্গ] প্রদায়ী/দায়ক (বাচম্) বাণী যেন (উদেয়ম্) আমি বলি। [হে ঈশ্বর !] (বর্চসা) তেজসহিত (মা=মাম্) আমার উপর (অভ্যুদিহি) সব দিক থেকে উদয় হও। (বায়ুঃ) প্রাণ বায়ু [আমাকে] (সর্বতঃ) সর্ব প্রকারে (আ রুন্ধাম্) ঘিরে থাকুক/আচ্ছাদিত করুক। (ত্বষ্টা) বিশ্বকর্মা পরমেশ্বর বা সূর্য (মে) আমার জন্য (পোষম্) পোষণ/পুষ্টি (দধাতু) দিতে থাকুক/প্রদান করুক॥১০॥
भावार्थ
মনুষ্য ঈশ্বরের ধ্যান করে সত্যবাদী ও সত্যকর্মী হয়ে নিজের প্রাণকে নিয়ন্ত্রণে রাখুক এবং পুরুষার্থী হয়ে সূর্য থেকে বৃষ্টি দ্বারা নিজের পোষণ/পুষ্টি প্রাপ্ত করুক ॥১০॥
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