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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वा भुवनानि छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त
    13

    वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे सं ब॑भूविमे॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नानि अ॒न्तः। उ॒तादि॑त्सन्तं दापयतु प्रजा॒नन्र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं॒ नि य॑च्छ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाज॑स्य । नु । प्र॒ऽस॒वे । सम् । ब॒भू॒वि॒म॒ । इ॒मा । च॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । अ॒न्त: । उ॒त । अदि॑त्सन्तम् । दा॒प॒य॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । र॒यिम् । च॒ । न॒: । सर्व॑ऽवीरम् । नि । य॒च्छ॒ ॥२०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजस्य नु प्रसवे सं बभूविमेमा च विश्वा भुवनानि अन्तः। उतादित्सन्तं दापयतु प्रजानन्रयिं च नः सर्ववीरं नि यच्छ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाजस्य । नु । प्रऽसवे । सम् । बभूविम । इमा । च । विश्वा । भुवनानि । अन्त: । उत । अदित्सन्तम् । दापयतु । प्रऽजानन् । रयिम् । च । न: । सर्वऽवीरम् । नि । यच्छ ॥२०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (वाजस्य) बल के (प्रसवे) उत्पत्ति में (नु) ही (संबभूविम) हम समर्थ हुए हैं, (च) और (इमा=इमानि) यह (विश्वा=विश्वानि) सब (भुवनानि) लोक (अन्तः) [उसीके] भीतर हैं, (प्रजानन्) ज्ञानवान् ईश्वर (अदित्सन्तम्) देने की इच्छा न करनेवाले से (उत) भी (दापयतु) दिलावे। (च) और [हे ईश्वर] (नः) हमें (सर्ववीरम्) सर्ववीरों से युक्त (रयिम्) धन (नि) नित्य (यच्छ) दे ॥८॥

    भावार्थ

    सब चराचर जगत् अन्न के आश्रित ठहरा है। सर्वज्ञ परमेश्वर अदानी पुरुषों को भी सुपात्रों के लिये दान शक्ति देवे, और हमें और हमारे वीरों को धनी बनावे ॥८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद १९।२५ वा २४ में है ॥

    टिप्पणी

    ८−(वाजस्य) बलस्य। (नु) एव। (प्रसवे) ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति प्र+षू प्रेरणे, यद्वा, षूङ् प्राणिगर्भविमोचने-अप्। उत्पत्तौ। (संबभूविम) भू सत्तायाम्-लिट्। वयं समर्था बभूविम। (इमा) इमानि। परिदृश्यमानानि। (विश्वा) सर्वाणि। (भुवनानि) अ० २।१।४। भू-क्युन्। लोकाः (अन्तः) वाजप्रसवस्य मध्ये वर्त्तन्ते। (उत) अपि। (अदित्सन्तम्) नञ्+दा, सन्-शतृ। सनि भीमाघुरभ०। पा० ७।४।५४। इति इसादेशः। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। दातुमनिच्छन्तम्। (दापयतु) दानाय प्रवर्तयतु। (प्रजानन्) अवगच्छन् परमेश्वरः। (रयिम्) धनम्। (नः) अस्मभ्यम्। (सर्ववीरम्) सर्ववीरोपेतम् (नि) नियमेन। नित्यम्। (यच्छतु) पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्० पा० ७।३।७८। इति दाण् दाने यच्छादेशः। ददातु ॥

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    विषय

    वाजस्य प्रसवे संबभूविम

    पदार्थ

    १.(नु) = अब (वाजस्य) = उस शक्ति के पुज प्रभु के (प्रसवे) = [प्रेरणे] प्रेरण में (संबविम) = सम्यक हों-सदा प्रभु की प्रेरणा के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त हों (च) = और (इमा विश्वा भुवनानि) = सूर्य आदि इन सब लोकों को (अन्तः) = अपने अन्दर देखने का प्रयत्न करें। यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' जो कुछ पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में। ब्रह्माण्ड के स! आदि देव चक्षु आदि के रूप में शरीर में रहते हैं। प्रभु की प्ररेणा में चलता हुआ पुरुष शरीर को देवस्थली के रूप में देखता है। यह शरीर उसकी दृष्टि में 'देवमन्दिर' हो जाता है। २. वे प्रभु (अदित्सन्तम् उत) = न देने की इच्छावाले  को भी (प्रजानन्) = खूब समझते हुए-उचित प्रेरणा के द्वारा (दापयतु) = दान की वृत्तिवाला बनाएँ (च) = और हे प्रभो! आप (न:) = हमारे लिए (सर्ववीरम् रयिम्) = वीर सन्तानोंवाली सब सम्पति को (नियच्छ) = नियमितरूप से दीजिए।

    भावार्थ

    हम शक्तिपञ्ज प्रभु की प्ररेणा में वर्ते। सुर्य आदि सब देवों को अपने अन्दर देखें, इस शरीर को देवमन्दिर जानें। प्रभु हमें दानशील बनाएँ और वीर सन्तानों से युक्त धन प्रदान करें।

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    भाषार्थ

    (वाजस्य प्रसवे) अन्न की उत्पत्ति में (नु) निश्चय से (संवभूविम) हम मिलकर रहे हैं, (च), और (इमा विश्वा भुवनानि) ये सब उत्पन्न प्राणी (अन्तः) अन्न के भीतर सत्तावान् रहे हैं। (प्रजानन्) इसे जानता हुआ [सम्राट्] (उत अदित्सन्तम्) दान देने की अनिच्छा वाले को भी (दापयतु) दान देनेवाला करे। (च) और [ हे सम्राट्] (न:) हमें (सर्ववीरम्) सब वीर पुत्रोंवाली (रयिम्) सम्पत्ति (नि यच्छ) नितरां प्रदान कर। वीरपुत्र=दानवीर पुत्र, दानशूर पुत्र।

    टिप्पणी

    [अन्तः= सब प्राणियों की सत्ता अन्नाधीन है। यथा " अन्नाद् रेतः रेतसः पुरुषः" (तैत्ति० उपनिषद्) अर्थात् अत्र से वीर्य और वीर्य से पुरुष। पुरुष पद सब प्राणियों का उपलक्षक है, प्राणी वीर्यजात ही हैं।]

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    विषय

    ईश्वर से उत्तम ऐश्वर्य और सद्गुणों की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हम (वाजस्य प्रसवे) ज्ञान और बल के उत्पन्न करने में (सम् बभूविम) उत्तम रूप से समर्थ हों और (इमा च विश्वा भुवनानि) और ये समस्त भुवन भी (अन्तः) उसी समस्त ज्ञान-बलोत्पादक परमात्मा के भीतर ही उत्पन्न होकर समर्थ होते हैं। (उत) और हे परमात्मन् ! आप (प्रजानन्) सर्वज्ञ, सब कुछ जानते हुए (अदित्सन्तम्) न दान करने वाले पुरुष से भी (दापयतु) दान कराया करें। और (नः) हमें (सर्ववीरं) सब प्रकार के वीर, श्रेष्ठ, बलवान् पुत्रों से युक्त धन सम्पत्ति को (नियच्छ) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    (तु०) ‘दापयति’ (च०) ‘सनो रयि सर्व’ इति यजु०। ‘सर्व वीराम्’ इति ते० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः । अग्निर्वा मन्त्रोक्ता नाना देवताः। १-५, ७, ९, १० अनुष्टुभः। ६ पथ्या पंक्तिः। ८ विराड्जगती। दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Man’s Self-development

    Meaning

    Let us be united together for the development of knowledge and the production of food, energy and power. Indeed all these worlds of existence are one and united within the same ultimate cosmic order. May the same refulgent and generous power convert even the ungiving selfish to giving generosity. And O Lord, give us the wealth which comprises total heroism and magnanimity of the human nation.

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    Subject

    All Bhuvana

    Translation

    By the growth of food, we have come into existence and all these beings are within (dependent on) it. May the Lord, knowing our heart's desires, make the unwilling donor willing to give, and bestow on us riches along with all the brave sons for ever.

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    Translation

    Let us reach to God who is the cause of all strength and prosperity and in whom are held all these worlds. Let Him who knows everything inspire even into unbenevolent man the sense of bounty and give us wealth with brave men and children.

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    Translation

    May we be competent to acquire knowledge and power. All these worlds of life are held within God. May the All-knowing God urge even the niggard to bounty. May He give us wealth coupled with noble sons.

    Footnote

    See Yajur, 9-24, 25.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(वाजस्य) बलस्य। (नु) एव। (प्रसवे) ॠदोरप्। पा० ३।३।५७। इति प्र+षू प्रेरणे, यद्वा, षूङ् प्राणिगर्भविमोचने-अप्। उत्पत्तौ। (संबभूविम) भू सत्तायाम्-लिट्। वयं समर्था बभूविम। (इमा) इमानि। परिदृश्यमानानि। (विश्वा) सर्वाणि। (भुवनानि) अ० २।१।४। भू-क्युन्। लोकाः (अन्तः) वाजप्रसवस्य मध्ये वर्त्तन्ते। (उत) अपि। (अदित्सन्तम्) नञ्+दा, सन्-शतृ। सनि भीमाघुरभ०। पा० ७।४।५४। इति इसादेशः। सः स्यार्धधातुके। पा० ७।४।४९। इति सस्य तकारः। दातुमनिच्छन्तम्। (दापयतु) दानाय प्रवर्तयतु। (प्रजानन्) अवगच्छन् परमेश्वरः। (रयिम्) धनम्। (नः) अस्मभ्यम्। (सर्ववीरम्) सर्ववीरोपेतम् (नि) नियमेन। नित्यम्। (यच्छतु) पाघ्राध्मास्थाम्नादाण्० पा० ७।३।७८। इति दाण् दाने यच्छादेशः। ददातु ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (বাজস্য প্রসবে) অন্নের উৎপত্তিতে (নু) নিশ্চিতরূপে (সংবভূবিম) আমরা সাথে থেকেছি, (চ), এবং (ইমা বিশ্বা ভুবনানি) এই সকল উৎপন্ন প্রাণী (অন্তঃ) অন্নের ভেতরে/মধ্যে সত্তাবান থেকেছে। (প্রজানন্) এটা জেনে [সম্রাট্] (উত অদিৎসন্নম্) দান দিতে অনিচ্ছুককেও (দাপয়তু) দান দাতা করুক (চ) এবং [হে সম্রাট্] (নঃ) আমাদের (সর্ববীরম্) সমস্ত বীর পুত্রসম্পন্ন (রয়িম্) সম্পত্তি (নি যচ্ছ) নিরন্তর প্রদান করো। বীরপুত্র= দানবীর পুত্র।

    टिप्पणी

    [অন্তঃ= সকল প্রাণীদের সত্তা অন্নাধীন। যথা "অন্নাদ্ রেতঃ রেতসঃ পুরুষঃ” (তৈত্তি০ উপনিষদ্) অর্থাৎ অন্ন থেকে বীর্য এবং বীর্য থেকে পুরুষ। পুরুষ পদ সমস্ত প্রাণীদের উপলক্ষক, প্রাণী হলো বীর্যজাত।]

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    मन्त्र विषय

    ব্রহ্মজ্ঞানোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বাজস্য) বলের/শক্তির (প্রসবে) উৎপত্তিতে (নু)(সংবভূবিম) আমরা সমর্থ হয়েছি, (চ) এবং (ইমা=ইমানি) এই (বিশ্বা=বিশ্বানি) সমস্ত (ভুবনানি) লোক (অন্তঃ) [তার] ভিতরে/অভ্যন্তরে রয়েছে/বর্তমান, (প্রজানন্) জ্ঞানবান্ ঈশ্বর (অদিৎসন্তম্) দানের ক্ষেত্রে অনিচ্ছুকদের দ্বারা (উত)(দাপয়তু) দান করাবেন/দানের জন্য প্রবৃত্ত করবেন। (চ) এবং [হে ঈশ্বর] (নঃ) আমাদের (সর্ববীরম্) সর্ববীর যুক্ত (রয়িম্) ধন (নি) নিত্য (যচ্ছ) দিন/প্রদান করুন ॥৮॥

    भावार्थ

    সকল চরাচর জগৎ অন্নে আশ্রিত রয়েছে। সর্বজ্ঞ পরমেশ্বর অদানী পুরুষদেরও সুপাত্রদের জন্য দানশক্তি প্রদান করুক, এবং আমাদের ও আমাদের বীরদের ধনী করুক ॥৮॥ এই মন্ত্র কিছু ভেদে যজুর্বেদ ১৯।২৫ বা ২৪ এ রয়েছে ॥

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