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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
    43

    अ॒हं रु॒द्राय॒ धनु॒रा त॑नोमि ब्रह्म॒द्विषे॒ शर॑वे॒ हन्त॒वा उ॑। अ॒हं जना॑य स॒मदं॑ कृणोम्य॒हं द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । रु॒द्राय॑ । धनु॑: । आ । त॒नो॒मि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑ । शर॑वे । हन्त॒वै । ऊं॒ इति॑ । अ॒हम् । जना॑य । स॒ऽमद॑म् । कृ॒णो॒मि॒ । अ॒हम् । द्यावा॑पृथि॒वी इत‍ि॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥३०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ। अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । रुद्राय । धनु: । आ । तनोमि । ब्रह्मऽद्विषे । शरवे । हन्तवै । ऊं इति । अहम् । जनाय । सऽमदम् । कृणोमि । अहम् । द्यावापृथिवी इत‍ि । आ । विवेश ॥३०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (रुद्राय) दुःखनाशक शूर के लिये (ब्रह्मद्विषे) ब्राह्मणों के द्वेषी (शरवे) हिंसक के (हन्तवै) मारने को (उ) ही (धनुः) धनुष् (आ तनोमि) सब ओर से तानता हूँ। (अहम्) मैं (जनाय) भक्त जन के लिये (समदम्) आनन्दयुक्त [जगत्] (कृणोमि) करता हूँ। (अहम्) मैंने (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवीलोक में (आ) सब ओर से (विवेश) प्रवेश किया है ॥५॥

    भावार्थ

    सर्वव्यापक परमेश्वर शिष्टों की रक्षा के लिये दुष्टों का नाश करता है और अपने भक्तों को सब स्थानों में आनन्द देता है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(अहम्) परमेश्वरः (रुद्राय) म० १। ज्ञानदात्रे। दुःखनाशकाय। तस्य हितायेत्यर्थः (धनुः) अ० ४।६।६। चापम् (आ तनोमि) विस्तारयामि। राज्यं करोमि (ब्रह्मद्विषे) द्विष अप्रीतौ-क्विप्। ब्राह्मणानां द्वेष्ट्रे (शरवे) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति शॄ हिंसायाम्-उ। कर्मणि चतुर्थी। हिंसकम्। दुष्टम् (हन्तवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। इति हन हिंसागत्योः-तवै। हन्तुं हिंसितुम् (उ) अवधारणे (जनाय) भक्तजनार्थम् (समदम्) मदोऽनुपसर्गे। पा० ३।३।६८। इति मदी हर्षे-अप्। मदेन हर्षेण सहितम् (कृणोमि) करोमि (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (आविवेश) प्रविष्टवान् ॥

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    विषय

    'संग्राम-विजेता' प्रभु

    पदार्थ

    १. राष्ट्र में प्रजाओं के कष्टों का निवारण करनेवाला राजा रुद्र है [रुत् कष्ट द्रावयति]। यह अपने धनुष से प्रजा-पीड़कों का संहार करता है। इसके लिए धनुष आदि साधनों को प्राप्त करानेवाले प्रभु ही हैं। (अहम्) = मैं ही (रुद्राय) = प्रजा-कष्ट-निवारक इस राजा के लिए (धनु:) = धनुष को (आतनोमि) = ज्या इत्यादि से युक्त करता है, जिससे यह राजा (ब्रह्माद्विषे) = ज्ञान के साथ प्रीति न रखनेवाले (शरवे) = हिंसक पुरुष के (हन्तवा उ) = हनन के लिए निश्चय से समर्थ हो सके। इसप्रकार राजा राष्ट्र की उन्नति में विघ्नभूत लोगों को उचित दण्ड देने का सामर्थ्य उस प्रभु से ही प्राप्त करता है। २. लोगों का जो अपने अन्त:शत्रु काम-क्रोध आदि से युद्ध चलता है, उस युद्ध में भी प्रभु ही विजय प्राप्त कराते हैं। (अहम्) = मैं ही (जनाय) = लोगों के लिए (समदं कृणोमि) = संग्नाम करता हूँ। वस्तुत: काम आदि शत्रुओं का संहार प्रभु ही करते हैं। (अहम्) = मैं ही द्(यावापृथिवी आविवेश) = सम्पूर्ण युलोक व पृ

    भावार्थ

    राजा को राष्ट्र-पालन की शक्ति प्रभु से ही प्रास होती है। मनुष्यों को काम क्रोध आदि को जीतने की शक्ति भी प्रभु ही देते हैं।

     

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( अहम् ) =  मैं   ( रुद्राय ) = ज्ञानदाता व दु:ख के नाशक पुरुष के हित के लिए और  ( ब्रह्मद्विषे ) = ब्रह्मज्ञानी, वेदपाठी, विद्वानों के द्वेषी  ( शरवे ) = हिंसक के  ( हन्तवे ) = मारने को  ( उ ) =  ही  ( धनु: ) = धनुष  ( आतनोमि ) = तानता हू  ( अहम् ) = में  ( जनाय ) = भक्त जन के लिए  ( समदम् कृणोमि ) = आनन्द सहित इस जगत् को करता हूं।   ( अहम् द्यावापृथिवी ) = मैंने सूर्य और पृथिवी लोक में  ( आविवेश ) = सब ओर से प्रवेश किया  है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमेश्वर, उत्तमज्ञानी पुरुषों की रक्षा के लिए, श्रेष्ठों के दुःखदायक पुरुषों के नाश के लिए, सदा उद्यत रहता है और अपने भक्तों को सदा सब स्थानों में आनन्द देता है ।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं पारमेश्वरी माता (रुद्राय) रौद्रकर्मा क्षत्रिय के लिए (धनुः आतनोमि) धनुष् की डोरी को विस्तृत करती हूँ, धनुष पर चढ़ाती हूँ, (ब्रह्मद्विषे) ब्रह्म तथा वेदद्वेषी के (शरवे) हिंसन के लिए, तथा (हन्तवै उ) और हनन के लिए। (अहम्) मैं (जनाय) जनसमूह के लिए (समदम्) संग्राम (कृणोमि) तैयार करती हूँ, (अहम्) मैं (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी में (आ विवेश) सर्वत्र प्रविष्ट हुई हूँ।

    टिप्पणी

    [शरवे= शृ हिंसायाम् (क्र्यादिः)। समदम्= समत्सु संग्रामनाम (निघं० २।१७)। पार्थिव जीवन में छोटे-बड़े संग्राम होते रहे हैं, हो भी रहे हैं। पृथिवीवासी जब दुष्कर्मा हो जाते हैं, तत्फलरूप में उनके संहार के लिए, पारमेश्वरी माता के नियमानुसार संग्राम होने लगते हैं।]

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    विषय

    परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (ब्रह्म-द्विषे) ब्रह्म = वेद-ज्ञान के साथ द्वेष करने वाले, ब्रह्मघाती, (शरवे) हिंसक (रुद्राय) और कष्ट पहुंचाने वाले को (हन्तवा) मारने के लिये (उ) भी (अहम्) मैं ही ईश्वर (धनुः) धनुष् को (आतनोमि) तानता हूं। (अहं) मैं ईश्वर ही (जनाय) जन्तुओं के लिये (समदं) सामूहिक प्रमोद को (कृणोमि) उत्पन्न करता हूं। (अहं) मैं ही (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी दोनों में (आविवेश) आविष्ट, व्यापक हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    All-sustaining Vak

    Meaning

    I draw the bow for Rudra, powers of justice and punishment, to eliminate the forces of hate and violence against the lovers and observers of piety and divinity. I fight for the people and create felicity and joy for them, and I reach and pervade the heaven and earth.

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    Translation

    I verily of myself announce the truth, that is approved of by both, the divine ones and men; I make him formidable, a sage, a seer, and wise, whomsoever I choose. (Also Rg. X.125.5)

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    Translation

    I bend the bow to kill the man who is cruel, violent and enemy of knowledge, I raise battle for the good Of the a people and I penetrate earth and heaven.

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    Translation

    I bend the bow for striking and slaying the foe of knowledge, the violent and the tormentor. I create this pleasant, beautifulworld for the people. I have penetrated Earth and Heaven.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(अहम्) परमेश्वरः (रुद्राय) म० १। ज्ञानदात्रे। दुःखनाशकाय। तस्य हितायेत्यर्थः (धनुः) अ० ४।६।६। चापम् (आ तनोमि) विस्तारयामि। राज्यं करोमि (ब्रह्मद्विषे) द्विष अप्रीतौ-क्विप्। ब्राह्मणानां द्वेष्ट्रे (शरवे) शॄस्वृस्निहि०। उ० १।१०। इति शॄ हिंसायाम्-उ। कर्मणि चतुर्थी। हिंसकम्। दुष्टम् (हन्तवै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा० ३।४।९। इति हन हिंसागत्योः-तवै। हन्तुं हिंसितुम् (उ) अवधारणे (जनाय) भक्तजनार्थम् (समदम्) मदोऽनुपसर्गे। पा० ३।३।६८। इति मदी हर्षे-अप्। मदेन हर्षेण सहितम् (कृणोमि) करोमि (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (आविवेश) प्रविष्टवान् ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    অহং রুদ্রায় ধনুরাতনোমি ব্রহ্মদ্বিষো শরবে হন্তবা উ।

    অহং জনায় সমদং কৃণোম্যহং দ্যাবাপৃথিবী আ বিবেশ ।।৭৬।।

    (অথর্ব ৪।৩০।৫)

    পদার্থঃ (অহম্) আমি (রুদ্রায়) জ্ঞানদাতা এবং দুঃখের নাশক ব্যক্তিদের কল্যাণের জন্য এবং (ব্রহ্মদ্বিষে) ব্রহ্মজ্ঞানী, বেদপাঠী বিদ্বানের দ্বেষকারী (শরবে) হিংসকের (হন্তবে) নাশের জন্য (উ)(ধনুঃ) ধনুক (আতনোমি) ধারণ করি। (অহম্) আমি ভক্তদের জন্য (সমদম্ কৃণোমি) আনন্দময় এই জগৎ (জনায়) রচনা করেছি। (অহম্ দ্যাবাপৃথিবী) আমি সূর্য এবং পৃথিবীলোকে (আবিবেশ) ব্যাপ্ত রয়েছি।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ দয়ানিধি পরমেশ্বর আমাদের উপদেশ করছেন যে, "আমি (পরমেশ্বর) উত্তম জ্ঞানী পুরুষদের রক্ষার জন্য, শ্রেষ্ঠদের দুঃখদায়ক পুরুষদের বিনাশের জন্য সদা উদ্যত থাকি এবং নিজের উপাসসকদের সদা সকল স্থানে আনন্দ প্রদান করি" ।।৭৬।।

     

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