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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - जगती सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त
    17

    अ॒हं सोम॑माह॒नसं॑ बिभर्म्य॒हं त्वष्टा॑रमु॒त पू॒षणं॒ भग॑म्। अ॒हं द॑धामि॒ द्रवि॑णा ह॒विष्म॑ते सुप्रा॒व्या॑ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । सोम॑म् । आ॒ह॒नस॑म् । बि॒भ॒र्मि॒ । अ॒हम् । त्वष्टा॑रम् । उ॒त । पू॒षण॑म् । भग॑म् । अ॒हम् । द॒धा॒मि॒ । द्रवि॑णा । ह॒विष्म॑ते । सु॒प्र॒ऽअ॒व्या᳡ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥३०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्। अहं दधामि द्रविणा हविष्मते सुप्राव्या यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । सोमम् । आहनसम् । बिभर्मि । अहम् । त्वष्टारम् । उत । पूषणम् । भगम् । अहम् । दधामि । द्रविणा । हविष्मते । सुप्रऽअव्या । यजमानाय । सुन्वते ॥३०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (आहनसम्) प्राप्तियोग्य (सोमम्) ऐश्वर्य को (अहम्) मैं (त्वष्टारम्) रसों के छिन्न-भिन्न करने हारे सूर्य को (उत) और (पूषणम्) पोषण करने हारी पृथिवी को और (भगम्) सेवनीय चन्द्रमा को (बिभर्भि) धारण करता हूँ। (अहम्) मैं (हविष्मते) भक्ति रखनेवाले, (सुन्वते) विद्यारस का निचोड़ करने हारे (यजमानाय) देवताओं की पूजा वा संगति करनेहारे पुरुष को (सु प्राव्या=०-णि) सुन्दर सुन्दर रक्षा योग्य (द्रविणा) अनेक धन (दधामि) देता हूँ ॥६॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने अनेक प्रकार के ऐश्वर्य और सूर्य आदि बड़े उपकारी पदार्थ रचे हैं। विद्वान् लोग विज्ञान द्वारा उनसे लाभ प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(अहम्) परमेश्वरः (सोमम्) अ० १।६।२। ऐश्वर्यम् (आहनसम्) आङ्+हन हिंसागत्योः-असुन्। सम्यक् प्रापणीयम् (बिभर्भि) धारयामि (त्वष्टारम्) अ० २।५।६। रसानां तनूकर्तारं सूर्यम् (उत) अपि च (पूषणम्) अ० १।९।१। पूषा पृथिवीनाम। निघ० १।१। पोषयित्रीं पृथिवीम् (भगम्) अ० १।१४।१। भगो भजतेः-निरु० १।७। सेवनीयं चन्द्रम् (दधामि) ददामि प्रयच्छामि (द्वविणा) द्रविणानि। धनानि (हविष्मते) हविः-अ० १।४।३। दानयुक्ताय। भक्तिविशिष्टाय (सुप्राव्या) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।३।१२४। इति सु+प्र+अव रक्षणो-ण्यत्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः-इति वृद्धेरभावः। सुष्ठु प्रकर्षेण अवनीयानि। रक्षणीयानि। (यजमानाय) देवपूजकाय (सुन्वते) षुञ् अभिषवे शतृ। विद्यारसस्याभिषवं मथनं कुर्वते ॥

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    विषय

    'हविष्मान्, यजमान, सुन्वन्'

    पदार्थ

    १. (अहम्) = मैं (सोमम्) = उस सोम [वीर्यशक्ति] को उपासकों के शरीर में (बिभर्मि) = धारण करता हूँ जोकि (आहनसम्) = शरीर के सब रोगों का हनन करनेवाला है। (अहं त्वष्टारम्) = मैं निर्माण की देवता को (उत) = और (पूषणं भगम्) = पोषण के लिए आवश्यक ऐश्वर्य को धारण करता हूँ, (अहं) = मैं (हविष्मते) = हविष्मान् के लिए-सदा दानपूर्वक अदन [ भोग] करनेवाले के लिए द्रविणा (दधामि) = धनों का धारण करता हूँ, इस (हविष्मान्) = को धनों की कमी नहीं रहती। (सन्वते) = अपने अन्दर सोमशक्ति का सम्पादन करनेवाले (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए मैं (सप्राव्या) = उत्तमता से प्रकृष्ट रक्षण करनेवाले धनों का धारण करता हूँ। 'सुन्वन्' का भाव 'निर्माणात्मक कर्मों को करना' भी है। इस निर्माण के कार्य में लगे हुए व्यक्ति के लिए भी प्रभु धनों की कभी कमी नहीं होने देते।

    भावार्थ

    प्रभु वीर्यशक्ति प्राप्त कराके उपासक को नीरोग बनाते हैं, उसे निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त करके पोषण के लिए पर्याप्त धन प्रास कराते है। प्रभु 'हविष्मान्, यज्ञमान व सुन्बन्' पुरुष को उत्तम धन प्राप्त कराते हैं।

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    भाषार्थ

    (अहम्) मैं पारमेश्वरी माता (आहनसम) गतिशील [अथवा, रात्रि में अन्धकार का] हनन करनेवाले (सोमम्) चन्द्रमा का (बिभर्मि) भरण-पोषण करती हूं, (अहम) मैं (त्वष्टारम्) त्वष्टा का (उत) तथा (पूषणम्) पूषा का, और (भगम्) भग का [विभर्मि] भरण-पोषण करती हूँ, (अहम्) मैं (हविष्मते) हवि:वाले, (सुन्वते यजमानाय) सोमयाजी यजमान के लिए (सु प्राव्या) शोभन प्रकार से रक्षा करनेवाले (द्रविणा) धनों को (दधामि) धारण करती हूं।

    टिप्पणी

    [आहनसम्=आ+हन हिंसागत्योः (अदादिः), चन्द्रमा रात्रि में उदित होता है और अन्धकार का हनन करता है, तथा पश्चिम में उदित होकर प्रतितिथि पूर्व की ओर गति करता रहता है। त्वष्टारम्= सूर्य, विद्युत, वायु, अग्नि (निरुक्त त्वष्टा शब्द; ८।२।११)। पूषणम्= आदित्यः (निरुक्त ७।३।९), "अथ यद् रश्मिपोषं पुष्यति तद् पूषा भवति" (निरुक्त १२।२।१६, पद १०) भगम्= तस्य प्रागुत्सर्पणात् (निरुक्त १२।२।१३(८)। 'सुप्राव्या' पाठ है (प्रातिशाख्य में ४।११); न कि 'सुप्राव्ये' चतुर्थ्येकवचन; यथा "सुप्रावी+ङे(सायण) ]

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    विषय

    परमेश्वरी सर्वशासक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (अहं) मैं (आहनसं) गतिशील या अन्धकार के विनाशक (सोमं) सोम अर्थात् चन्द्र को (बिभर्मि) धारण करता हूं, और मैं ही (त्वष्टारं) सूर्य को और (पूषणं) सब के पोषक वायु को और (भगं) ऐश्वर्यवान् को भी धारण करता हूं। (अहं) मैं (हविष्मते) हवि द्वारा यज्ञ करने वाले (सुन्वते) सोम सवन करने वाले (यजमानाय) यजमान को (सु-प्र-अव्या) सुखप्रद (द्रविणा) धनों को (दधामि) प्रदान करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वाग्दैवत्यम्, १-५, ७, ८ त्रिष्टुभः। ६ जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    All-sustaining Vak

    Meaning

    I bear the ruling soma joy of corporate existence, how people experience and express it. I bear and support Tvashta, Pusha and Bhaga, formative evolution, nourishment and growth, and the power, excellence and rising glory of the human nation. I bear and bring the wealth and prosperity of life for the yajamana who creates sweetness and light for life and offers liberal havi in the corporate yajna for the common welfare of humanity and indeed for all life.

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    Translation

    I bend the bow of the Lord, so that His arrow may strike and destroy enemy of learned and pious devotees. I wage war against the hostilés (or infidels). I pervade heaven and earth. (Also Rg. X. 125.6).

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    Translation

    I maintain the unalienable supremacy of the people, I keep under my control Tvastar, the fire, I have my Control over Pushan, the air and Bhaga, the fortune. I give the pleasure giving wealth to the performer of Yajna, who offers oblation, and pours out juice of Soma.

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    Translation

    I cherish and sustain the darkness—dispelling moon, the Sun, the life- infusing air, and the prosperous person. I bestow nice, nourishing wealth, on a devotee, a distiller of the juice of knowledge, and a reverer of the sages.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(अहम्) परमेश्वरः (सोमम्) अ० १।६।२। ऐश्वर्यम् (आहनसम्) आङ्+हन हिंसागत्योः-असुन्। सम्यक् प्रापणीयम् (बिभर्भि) धारयामि (त्वष्टारम्) अ० २।५।६। रसानां तनूकर्तारं सूर्यम् (उत) अपि च (पूषणम्) अ० १।९।१। पूषा पृथिवीनाम। निघ० १।१। पोषयित्रीं पृथिवीम् (भगम्) अ० १।१४।१। भगो भजतेः-निरु० १।७। सेवनीयं चन्द्रम् (दधामि) ददामि प्रयच्छामि (द्वविणा) द्रविणानि। धनानि (हविष्मते) हविः-अ० १।४।३। दानयुक्ताय। भक्तिविशिष्टाय (सुप्राव्या) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।३।१२४। इति सु+प्र+अव रक्षणो-ण्यत्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः-इति वृद्धेरभावः। सुष्ठु प्रकर्षेण अवनीयानि। रक्षणीयानि। (यजमानाय) देवपूजकाय (सुन्वते) षुञ् अभिषवे शतृ। विद्यारसस्याभिषवं मथनं कुर्वते ॥

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