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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    16

    न ब्रा॑ह्म॒णो हिं॑सित॒व्यो॒ऽग्निः प्रि॒यत॑नोरिव। सोमो॒ ह्य॑स्य दाया॒द इन्द्रो॑ अस्याभिशस्ति॒पाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ब्रा॒ह्म॒ण: । हिं॒सि॒त॒व्य᳡: । अ॒ग्नि: । प्रि॒यत॑नो:ऽइव । सोम॑: । हि । अ॒स्य॒ । दा॒या॒द: । इन्द्र॑: । अ॒स्य॒ । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा ॥१८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न ब्राह्मणो हिंसितव्योऽग्निः प्रियतनोरिव। सोमो ह्यस्य दायाद इन्द्रो अस्याभिशस्तिपाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । ब्राह्मण: । हिंसितव्य: । अग्नि: । प्रियतनो:ऽइव । सोम: । हि । अस्य । दायाद: । इन्द्र: । अस्य । अभिशस्तिऽपा ॥१८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रियतनोः=–०−नुः) तन को प्रिय लगनेवाले (अग्निः इव) अग्नि के समान वर्तमान (ब्राह्मणः) ब्रह्मज्ञानी (न) नहीं (हिंसितव्यः) सताया जा सकता है। (हि) क्योंकि (सोमः) चन्द्रमा (अस्य) इसका (दायादः) दायभागी [के समान] और (इन्द्रः) सूर्य (अस्य) इसका (अभिशस्तिपाः) अपवाद से बचानेवाला है ॥६॥

    भावार्थ

    ब्राह्मण वेदों का तत्त्व जानने से महाप्रबल होता है, क्योंकि वह सूर्य चन्द्रमा के समान नियम पर चलता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(न) निषेधे (ब्राह्मणः) वेदज्ञ आप्तपुरुषः (हिंसितव्यः) केनापि हिंसितुमशक्यः (अग्निः) पावकः (प्रियतनोः) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति प्रथमायाः षष्ठी। प्रियतनुः। शरीरस्य हितकरः (इव) यथा (सोमः) चन्द्रः (हि) यस्मात्कारणात् (अस्य) ब्राह्मणस्य (दायादः) दा दाने−घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। दायं विभजनीयधनमादत्ते। आतश्चोपसर्गे पा० ३।१।१३६। इति आ+दा−क। यद्वा, दायमत्ति, अद भोजने−अण्। दायभागी पुरुषो यथा (इन्द्रः) सूर्यः (अस्य) (अभिशस्तिपाः) अ० २।१३।३। अपवादाद् रक्षकः ॥

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    विषय

    अग्नि, सोम, इन्द्र [पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक]

    पदार्थ

    १. राजा को राष्ट्र में (ब्राह्मणः न हिंसितव्यः) = ज्ञानी का हिंसन नहीं करना चाहिए। यह ज्ञानी तो (प्रियतनो: अग्निः इव) = प्रिय शरीर की अग्नि के समान है, अर्थात् शरीर में अग्नि न रहे तो जैसे वह मृत हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी के न रहने पर तो राष्ट्र-शरीर मृत ही हो जाएगा। २. (सोमः) = शान्त प्रभु (ही) = निश्चय से (अस्य दायादः) = इसका बन्धु है और (इन्द्रः सर्वशक्तिमान्) = प्रभु (अस्य अभिशस्तिपा:)  = इसका हिंसा व निन्दा से रक्षक है। यह ब्राह्मण तो सोम व इन्द्र ही होता है-शान्त व शक्तिमान्। अथवा 'सोम'चन्द्रमा तथा 'इन्द्र' सूर्य के समान व्यवस्थित जीवनवाला होने से यह राष्ट्र में शन्ति और शक्ति का विस्तार करनेवाला होता है।

    भावार्थ

    राजा को ज्ञानी ब्राह्मण पर ज्ञान-प्रसार के कार्यों में प्रतिबन्धरूप अत्याचार नहीं करना चाहिए। यह ज्ञानी तो राष्ट्र शरीर में अग्नि के समान जीवन का संरक्षक होता है। यह राष्ट्र में सोम और इन्द्र [चन्द्र-सूर्य] के समान शान्ति व शक्ति का विस्तारक होता है।

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    भाषार्थ

    (ब्राह्मणः) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् (न हिंसितव्यः) हिंसा के योग्य नहीं, यह (प्रियतनोः) प्रिय तनु की ( अग्नि: इव ) अग्नि के सदृश है। (हि) निश्चय से (अस्य) इसकी (दायादः) सम्पत्ति का अदन करनेवाला उत्तराधिकारी (सोमः) सोमयज्ञ है, और (इन्द्रः) सम्राट् (अस्य) इसका ( अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षक है।

    टिप्पणी

    [अग्निः= शरीर का तापमान, या जाठराग्नि। शरीर के तापमान के अभाव से शरीर मृत हो जाता है, जाठराग्नि के विकृत हो जाने से शरीर विकृत हो जाता है। ब्राह्मण भी राष्ट्र-शरीर तथा साम्राज्य-शरीर का अग्निरूप है। इसकी सम्पत्ति का 'दायाद' सोमयज्ञ है। सोमयज्ञ के सम्पादन में इसकी सम्पत्ति का व्यय होता है। ऐसे निःस्वार्थी और परोपकारी की रक्षा सम्राट स्वयं करता है। उसके शरीर की रक्षा, स्वास्थ्य तथा व्यय का प्रबन्ध सम्राट् स्वयं करता है।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    (प्रियतनोः अग्निः इव) अपने प्यारे शरीर की अग्नि के समान (ब्राह्मणः) ब्राह्मण को जानकर (न हिंसितव्यः) उसका वध न करना चाहिये, क्योंकि वह (अग्निः) अग्नि के समान है और (सोमः) सबका प्रेरक, एवं सब का आल्हादकारी परमात्मा (अस्य दायादः) इसका बन्धु है और (इन्द्रः) वही परमेश्वर इसका (अभिशस्तिपाः) चारों ओर से पड़ने वाले निन्दा, अपवाद एवं शस्त्र आघातों से उसको बचाने वाला है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    Brahmana, the man of Brahma, is inviolable like the vitality of one’s own body. Like the vital heat of one’s own body he is the vital fire of the body politic. Soma, lord of universal peace and joy, is his kinsman and Indra, lord omnipotent, is his protector against calumny and violence.

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    Translation

    An intellectual should not be harmed, like fire of one’s own beloved body. The blissful Lord is his close relation and the resplendent Lord is his protector from curses.

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    Translation

    No Brahman like fire beneficial to body must be injured as the moon is akin to him and the sun guards him from curse.

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    Translation

    A Brahmin, dear as fire to the body, must not be injured, for God is his Friend, and He guards him from infamy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(न) निषेधे (ब्राह्मणः) वेदज्ञ आप्तपुरुषः (हिंसितव्यः) केनापि हिंसितुमशक्यः (अग्निः) पावकः (प्रियतनोः) सुपां सुपो भवन्ति। वा० पा० ७।१।३९। इति प्रथमायाः षष्ठी। प्रियतनुः। शरीरस्य हितकरः (इव) यथा (सोमः) चन्द्रः (हि) यस्मात्कारणात् (अस्य) ब्राह्मणस्य (दायादः) दा दाने−घञ्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। दायं विभजनीयधनमादत्ते। आतश्चोपसर्गे पा० ३।१।१३६। इति आ+दा−क। यद्वा, दायमत्ति, अद भोजने−अण्। दायभागी पुरुषो यथा (इन्द्रः) सूर्यः (अस्य) (अभिशस्तिपाः) अ० २।१३।३। अपवादाद् रक्षकः ॥

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