Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 72 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अथर्वाङ्गिरा देवता - शेपोऽर्कः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - वाजीकरण सूक्त
    44

    याव॑द॒ङ्गीनं॒ पार॑स्वतं॒ हास्ति॑नं॒ गार्द॑भं च॒ यत्। याव॒दश्व॑स्य वा॒जिन॒स्ताव॑त्ते वर्धतां॒ पसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या॒व॒त्ऽअ॒ङ्गीन॑म् । पार॑स्वतम् । हास्ति॑नम् । गार्द॑भम् । च॒ । यत् । याव॑त् । अश्व॑स्य । वा॒जिन॑: । ताव॑त् । ते॒ । व॒र्ध॒ता॒म् । पस॑: ॥७२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावदङ्गीनं पारस्वतं हास्तिनं गार्दभं च यत्। यावदश्वस्य वाजिनस्तावत्ते वर्धतां पसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावत्ऽअङ्गीनम् । पारस्वतम् । हास्तिनम् । गार्दभम् । च । यत् । यावत् । अश्वस्य । वाजिन: । तावत् । ते । वर्धताम् । पस: ॥७२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राज्य बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यावदङ्गीनम्) जितने अङ्ग हैं उनसे सिद्ध, (पारस्वतम्) पालनसमर्थ पुरुषों से सिद्ध, (च) और (गार्दभम्) [बोझ उठानेवाले] गदहों से सिद्ध, (यत्) जितना राज्य है। और (यावत्) जितना (वाजिनः) अन्नयुक्त (अश्वस्य) बलवान् पुरुष [राज्य] का है, (तावत्) उतना (ते) तेरा (पसः) राज्य (वर्धताम्) बढ़े ॥३॥

    भावार्थ

    जिस राज्य में सब राज्य के अङ्ग, अर्थात्, १−राजा, २−मन्त्री, ३−मित्र, ४−कोश, ५−राज्यप्रबन्ध, ६−गढ़, ७−सेना, देखो अमर १८।१७, १८, प्रजापालक अधिकारी और हस्ती गर्दभ आदि पशु और अन्न और बलवान् राजा होते हैं, वहाँ अनेक प्रकार से वृद्धि होती है, वैसे ही सब मनुष्यों को वृद्धि करनी चाहिये ॥३॥ इति सप्तमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(यावदङ्गीनम्) तेन निर्वृत्तम्। ४।२।६८। इति−ख। यावन्ति अङ्गानि तावद्भिर्निर्वृत्तं सिद्धम्, तानि यथा। स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च। राज्याङ्गानि प्रकृतयः। इत्यमरः, १८।१७, १८। (पारस्वतम्) परस्वत्−अण्। परस्वद्भिः पालनसमर्थैः पुरुषैर्निर्वृत्तम् (हास्तिनम्) हस्तिन्−अण्। इनण्यनपत्ये। पा० ६।४।१६४। इति प्रकृतिभावः हस्तिभिर्निर्वृत्तं सिद्धम् (गार्दभम्) गर्दभ−अण्। गर्दभैर्वहनशीलैः पशुभिर्निर्वृत्तम् (च) (यत्) यत्प्रमाणम् (यावत्) (अश्वस्य) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। इति अशू व्याप्तिसंहत्योः−क्वन्। अश्नुते व्याप्नोति कार्याणि सोऽश्वः, बलवान् पुरुषः, तस्य (वाजिनः) वाजः, अन्नम्−निघ० २।७। अन्नवतः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यावदङ्गीनम्

    पदार्थ

    १. (पारस्वतम्) = पालन करनेवाले का राष्ट्र (यावत् अङ्गीनम्) = जितना ठीक अङ्गोंवाला होता है, उतना ही (हास्तिनम्) = यह उत्तम हाथियोंवाला होता है (च) = और (यत्) = जो यह राष्ट्र है वह (गार्दभम्) = उत्तम गर्दभोंवाला-उत्तम भारवाही पशुओंवाला होता है। २. (यावत्) = जितना (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले (वाजिनः) = शक्तिशाली राजा का राष्ट्र होता है, (तावत्) = उतना (ते पस:) = तेरा राष्ट्र (वर्धताम्) = वृद्धि को प्राप्त करे।

    भावार्थ

    राष्ट्र के अङ्गों में परस्पर समन्वय होने पर वहाँ हाथी-घोड़े आदि पशु भी उत्तम होते हैं। राजा जितना-जितना कर्मों में व्याप्त और शक्तिशाली होता है, उतना-उतना उसका राष्ट्र बढ़ता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यावद् अङ्गीनम्) जितने अवयवों वाला (पारस्वतम्= पारावतम्) कबूतर का, (हास्तिनम्) हाथो का, (च यत्) और जो (गार्दभम्) गर्दभ का, (यावत्) जितना (वाजिनः अश्वस्य) शक्तिशाली अश्व का (पस:) राष्ट्र या राज्य है [हे राजन् !] (तावत्) उतना (ते) तेरा (पस:) राष्ट्र या राज्य (वर्धताम्) बढ़े, विस्तृत हो। पसः =राष्ट्र, मन्त्र (६‌।७२।१)

    टिप्पणी

    ["पारस्वतम्" छान्दस पाठ है, और लौकिक संस्कृत पाठ है "पारावतम्"। "सकार" हलन्त का विकार "अकार" हुआ है। मन्त्र में "हस्ती" आदि सब अमानुष प्राणिवाचक पद हैं, अत: "पारस्वतम्" पद भी अमानुष प्राणिवाचक पद प्रतीत होता है, जो कि "पारावतम्" सम्भव है। पारावत् है कबूतर। "पारावतम्" आदि द्युलोकस्थ तारागणों की प्राण्याकृतियां अभिप्रेत हैं। इन आकृतियों में जितने-जितने तारा हैं वे उस-उस के अङ्ग हैं, अवयव है। प्रत्येक "पारावत" आदि जितनी डिगरियों [अंशों] में फैला हुआ है, विस्तृत हुआ है, उतने विस्तार वाला उस-उस का मानो राष्ट्र है, राज्य है। राजा के प्रति कहा है कि तेरा राष्ट्र या राज्य भी इन्हीं विस्तारों के सदृश विस्तृत हो। वर्तमान द्युलोक के चित्र अभिप्रेत वैदिक-चित्रों के सर्वथा अनुरूप नहीं है। चित्रों की व्याख्या परिशिष्ट में देखिए।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रजनन अंगों की पूर्ण वृद्धि।

    भावार्थ

    (यावत् अङ्गीनम्) जितने अंगों वाला शरीर (पारस्वतम्) पूर्ण पुरुष का होता है और (यत्) जितना (हास्तिनं गार्दभं च) हाथी का या गधे का अथवा (वाजिनः अश्वस्य यावत्) वेगवान्, बलवान् अश्व का अंग दृढ़, हृष्ट पुष्ट, अमोघवीर्य होता है (तावत् ते पसः वर्धताम्) हे पुरुष। उतना ही तेरा भी प्रजननांङ्ग पुष्ट हो। पं० ग्रीफिथ ने इस सूक्त को अश्लील समझ कर छोड़ दिया है। पं० क्षेमकरणजी ने इस सूक्त में ‘शेपः’ और ‘पस’ आदि शब्दों का अर्थ ‘राष्ट्र’ किया है। पर हमारी सम्मति में शरीर के जिस अंग से मानव सृष्टि उत्पन्न होती है उसके परिपक्व और पुष्ट होने का उपदेश करना कोई असंगत, अश्लील और अनुचित बात नहीं है। कइयों की सम्मति में ‘तायादर’ और ‘परस्वान्’ कोई विशेष पशु हैं। अतः उनके अंग की उपमा होना अनुचित नहीं। राष्ट्रपक्ष में—(२) (यथा तायादरं पसः) जितना पालने योग्य राष्ट्र (वातेन स्थूलभं कृतम्) यज्ञ द्वारा परस्पर संगति, संगठन द्वारा विशाल बना लिया जाय (यावत् पारस्वतः पसः) और जितना राष्ट्र पालन शक्ति से युक्त राजा का होना चाहिये (तावत्) उतना (ते पसः वर्धताम्) तेरा राष्ट्र भी बढ़े। (३) (यावद् अंगीनम्) जितने अंगों से युक्त (पारस्वतम्) वीर भटों का बना, (हास्तिनम्) हाथियों का (गार्दभम्) गधों, खच्चरों का और (अश्वस्य वाजिनः) वेगवान् अश्वों का बना हुआ (पसः) राष्ट्र-बल होना सम्भव है (तावत् ते वर्धताम्) उतना ही तेरा भी बढ़े। राजा के वीर्य का प्रतिनिधि राष्ट्र और सेनाबल है। शरीर में—यह हृष्ट पुष्ट शरीर और हृष्ट-पुष्ट प्रजननेन्द्रिय है इसलिये वेद में दोनों का समान ही परिभाषा-शब्दों से वर्णन किया जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। शेपोऽर्को देवता। १ जगती। २ अनुष्टुप्। ३ भुरिगनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Manliness

    Meaning

    As far as the constituent parts of the dominion of any other successful ruler are extended and strengthened by the voice of the people and possible of the arms of the constituted system, so may the dominion of the virile and dynamic ruler grow and expand in freedom and prosperity. (In the Veda, the universe is described as a Purusha, a living, breathing, intelligent, self-organising, organismic sovereign system: Rgveda 10,90; yajurveda 31; Atharva-veda 19,6. And the system is correspondent at the micro as well as the macro level. The single individual is Ekarat, the social system is Samrat, and the cosmic system is Virat. Tthere is another Purusha also, the sanyasins, free and uninvolved with mundane problems: they are the Pari-vrat Purusha. In this sukta, the correspondency between the Ekarat or micro-system (mantra 1) and the social system, Samrat, between the individual and the cosmos, is described. Just as a healthy individual body is constituted of healthy and strongly working parts, so the social body of a united dominion upto the international level is constituted of healthy and strongly functional parts.)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    As large is the male organ of the wild ass, of the elephant, of the ass and as large as that of a hot horse, so large may your male organ become, fitting well the female organ.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    As proportionate in stature and vigor is the genital organ of pigeon according to its bodily structure, as proportional in stature and vigor is the genital organ of elephant according to his bodily structure, as proportionate in stature and vigor is the genital organ of donkey as according to his bodily structure and as proportionate in stature and vigor is the genital organ of the powerful horse in according to his bodily structure, sc proportionate in stature and vigor be your genital organ, O house-holding man ! according to your bodily structure.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Just as a good government should be endowed with necessary accoutrements, able administrators, elephants, asses, and swift horses, so should thy rule be extended.

    Footnote

    Accoutrements: (1) King (2) Minister (3) Treasury (4) Army 6) Forts (6) Friends (7) Administration vide Amarkosh 18-17-18.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यावदङ्गीनम्) तेन निर्वृत्तम्। ४।२।६८। इति−ख। यावन्ति अङ्गानि तावद्भिर्निर्वृत्तं सिद्धम्, तानि यथा। स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि च। राज्याङ्गानि प्रकृतयः। इत्यमरः, १८।१७, १८। (पारस्वतम्) परस्वत्−अण्। परस्वद्भिः पालनसमर्थैः पुरुषैर्निर्वृत्तम् (हास्तिनम्) हस्तिन्−अण्। इनण्यनपत्ये। पा० ६।४।१६४। इति प्रकृतिभावः हस्तिभिर्निर्वृत्तं सिद्धम् (गार्दभम्) गर्दभ−अण्। गर्दभैर्वहनशीलैः पशुभिर्निर्वृत्तम् (च) (यत्) यत्प्रमाणम् (यावत्) (अश्वस्य) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। इति अशू व्याप्तिसंहत्योः−क्वन्। अश्नुते व्याप्नोति कार्याणि सोऽश्वः, बलवान् पुरुषः, तस्य (वाजिनः) वाजः, अन्नम्−निघ० २।७। अन्नवतः। अन्यत्पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top